सुधीर जैन : 'हरिकथा अनंता' बन गई है फांसी पर बहस...

सुधीर जैन : 'हरिकथा अनंता' बन गई है फांसी पर बहस...

पिछले महीने फांसी को लेकर मीडिया में बड़ी बहस चली। हालांकि याकूब मेमन को फांसी के बाद यह अचानक बंद हो गई थी, लेकिन अब पांच और लोगों को फांसी की सजा के ऐलान से वह अधूरी बहस फिर शुरू होने का मौका आया है। वैसे तो फांसी की सजा को लेकर लंबे वक्त से सोच-विचार होता आ रहा है। कम से कम दो सौ साल का अनुभव है कि हम अब तक यह दुविधा खत्म नहीं कर पाए।

पिछले महीने चली बहस में और कोई नई बात हो या न हो, लेकिन यह नया जरूर दिखा कि बहस सार्वजनिक मंचों पर हुई। यानी टीवी चैनलों पर, अखबारों में और सोशल मीडिया और चाय की दुकानों तक पर। कहने को तो हम कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है, लेकिन इन बहसों में मानने और समझने लायक कोई निष्कर्ष नहीं निकला। इसीलिए नई स्थिति में नया सवाल उठना स्वाभाविक है कि ऐसे मसलों पर सिलसिलेवार तरीके से सोचने-समझने वाले लोग कौन हो सकते हैं...?

जवाब में कोई भी कह सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी को अपनी राय देने का हक है। नागरिकों की गरिमा की रक्षा के लिए इससे कौन इनकार करेगा, और फिर पिछले महीने की बहस के दौरान जितने बड़े राजनेताओं, पत्रकारों और वकीलों ने बहस की है, उनके महत्त्वपूर्ण होने को कौन चुनौती दे सकता है। लोकतंत्र में सभी मुद्दों पर राय-मशविरे और बहस के लिए वही सर्वोत्तम विकल्प समझे जाते हैं। बहरहाल पिछले महीने की फांसी की सजा पर बहस करने वालों में प्रमुख रूप से इन्हीं तीन तबकों ने चर्चा की। पूरे देश ने उन्हें सुना। खासतौर पर वकालत करने वालों को, लेकिन इस पेशे के बड़े दिग्गज भी दो अलग-अलग विचारों-संप्रदायों में बंटे दिखे।

दोनों के पास अपने-अपने तर्क हैं। पेशे से वकील के पास आर्ग्यूमेंट या बहस की पेशेवर क्षमता होना स्वाभाविक है, सो, फांसी की सजा के पक्ष और विपक्ष में अपनी-अपनी जरूरतों और अपने-अपने तर्क देने में कोई किसी से पीछे नहीं रहा, लेकिन उनकी बहस के बाद आमतौर पर यह दुविधा अभी भी बनी हुई है कि क्या हम भी दूसरे सौ से ज्यादा देशों की तरह फांसी की सजा को खत्म कर दें या भारत में बढ़ते जघन्य अपराधों, उग्रवादी सांप्रदायिकता या आतंकवाद से निपटने का जब तक कोई दूसरा उपाय नहीं मिलता, तब तक फांसी की सजा का प्रावधान बनाए रखें...?

यानी, इस मुद्दे पर दुविधा स्पष्ट है और निश्चित रूप से हम यह भी कह सकते हैं कि इसके समाधान के लिए देश में उपलब्ध कुछ विद्वानों को भी हमने सुन लिया है, इसीलिए एक नया सुझाव यह है कि अब हमें ज्ञान की विशिष्ट शाखा यानी अपराधशास्त्र की तरफ देख लेना चाहिए।

हमारा आशय उस अपराध विज्ञान या अपराधशास्त्र से है, जिसे अंग्रेज़ी में क्रिमिनोलॉजी कहा जाता है। भले ही ज्यादातर लोगों को न पता हो कि हमारे देश में भी इस विषय में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के लिए पढ़ाई का काम पिछले 55 साल से चल रहा है। यह अलग बात है कि दशकों तक अपराधशास्त्र में हर साल पोस्ट ग्रेजुएट करने वालों की संख्या आठ या 10 छात्रों से ज्यादा नहीं रही। फिर भी अपने ही देश में शुद्ध रूप से एक विज्ञान के तौर पर अपराध शास्त्र का अध्ययन कर चुके और गाहे-बगाहे सक्रिय रहने वाले विशेषज्ञों की संख्या इस समय पांच सौ से कम नहीं होगी। ये अपराधशास्त्री कहां हैं...? उन्हें किस काम पर लगाया गया है...? इसका लेखा-जोखा उपलब्ध नहीं है।

अपराध शास्त्र के पाठयक्रम के 12 पर्चों में एक दंडशास्त्र का भी होता है। दंडशास्त्र के इसी पर्चे में सजा के मकसद को पढ़ाया जाता है। यह भी पढ़ाया जाता है कि अंग्रेजों के शासन में हमारी दंड व्यवस्था क्या थी, और आजादी के आंदोलन में जेल भेजे गए हमारे नेताओं ने वहां क्या महसूस किया...? आजादी के बाद हमने अपनी जो दंड व्यवस्था बनाई, उसमें क्या-क्या जोड़ा? यह सब पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के लिए शुद्ध रूप से अपराध शास्त्र का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी को औपचारिक रूप से पढ़ाया जाता है।

आजाद होने के बाद हमारी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में दंड नीति क्या बनी और क्यों बनी...? इस दंड नीति को लागू करने में शुरुआती दो दशकों में क्या अनुभव रहे...? जहां-जहां लोचा या झोल दिखाई दिया, उसे दूर करने के लिए जेल सुधार कमेटियों की सिफाारिशों को भी इसी पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में पढ़ाए जाने का प्रबंध कम से कम '80 के दशक तक तो सागर विश्वविद्यालय के अपराध शास्त्र और न्यायालिक विज्ञान विभाग में था ही।

यह इस आधार पर कहा जा रहा है, क्योंकि इस आलेख के लेखक ने उसी अपराध शास्त्र व न्यायालिक विज्ञान विभाग से स्नातकोत्तर किया और वहीं से दंड शास्त्र के क्षेत्र में पीएचडी डिग्री के लिए उत्तर भारत की नौ जेलों के 307 सजायाफ्ता कैदियों पर लगातार सात साल शोध कार्य किया। यह लेखक इसी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर भी रहा और उसे पोस्ट ग्रेजुएट छात्रों को दंडशास्त्र पढ़ाने का काम भी दिया गया। लगता है आगे की बात की विश्वसनीयता के लिए यह इतिहास जरूर कोई भूमिका निभाएगा।

फांसी की सजा का सवाल जितना जटिल है, उसका जवाब उतना ही गुंजल होना स्वाभाविक है। मौजूदा शक्लोसूरत की हमारी ढाई सौ साल पुरानी हो गई आपराधिक न्याय प्रणाली में दुविधा का यह लक्षण अब तक जस का तस है। तारीखों वाले ज्ञात इतिहास में प्लेटो, अरस्तू से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य, खारवेल की शासन व्यवस्थाओं से होते हुए बैकेरिया, सदरलैंड और वुल्फगैंग के ज्ञान योगदान से विकसित आपराधिक न्याय प्रणालियों को और निरापद बनाने के लिए हमें आज भी इकन्ना एक से बहस करनी पड़ रही है, लेकिन यह आलेख लिखते समय हमारी सीमा है कि पत्रकारिता के अपने मिजाज के कारण इस आलेख को शोधपत्र का रूप नहीं दिया जा सकता। फिलहाल यहां सिर्फ इतना ही उचित और संभव होगा कि पाठकों के सामने सिर्फ दंड के उद्देश्यों का जिक्र किया जाए। सिर्फ उन उद्देश्यों का जिक्र किया जाए, जिन्हें ढाई हजार साल के लंबे सोच-विचार के बाद हम पृथ्वीवासी मानव सार्वभौमिक रूप से तय कर पाए हैं। इससे फिलहाल यह फायदा हो सकता है कि कानून बनाने की प्रकिया में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले कुछ जागरूक नागरिक कम से कम अब तक के अकादमिक विचार-विमर्श के सारतत्व से वाकिफ हो सकेंगे।

सजा देने के पांच मकसद हैं। उस लिस्ट में पहला मकसद अपराधी से बदला लेना होता है। समाज या व्यवस्था के खिलाफ किए गए अपराध के लिए व्यवस्था अपराधी से जो बदला लेती है, उसे प्रतिशोध या अंग्रेजी में रेट्रिब्यूशन कहते हुए अपराध शास्त्र के अध्यापन कक्ष में पढ़ाया जाता है। इसके पीछे के न्यायालिक दर्शन का लंबा-चौड़ा पाठ है। यहां उसकी व्याख्या की ज्यादा गुंजाइश है नहीं।

सजा का दूसरा मकसद प्रतिरोध पढ़ाया जाता है। यह वही प्रतिरोध है, जिसे हिन्दी टीवी चैनलों पर बहस के दौरान अंग्रेजी में डिटरेंस कहा जाता है। अपराध की रोकथाम के लिए कड़ी सजा को कारगर उपाय मानने वाले लोग इस मकसद का बड़े धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। यह अलग बात है कि विश्व में आधुनिक आपराधिक न्याय प्रणाली के दौ सौ साल के इतिहास में सजा के प्रतिरोधी प्रभाव पर लगातार बौद्धिक विमर्श होता आ रहा है, लेकिन विश्वसनीय वैज्ञानिक शोध अध्ययन नहीं होने के कारण निश्चित तौर पर कुछ भी घोषित नहीं किया जा सकता। सामान्य अनुभव जरूर है कि कड़क से कड़क शासन व्यवस्थाओं में यह उतना कारगर साबित नहीं हुआ।

इसकी अपराधशास्त्रीय बारीकियों में जाएं तो प्रतिरोध के दो प्रकार पढ़ाए जाते हैं। एक विशिष्ट और दूसरा सामान्य। विशिष्ट प्रतिरोध वह है, जिसमें सजा देकर उस अपराधी को दोबारा अपराध करने से रोका जाता है, और सामान्य प्रतिरोध या जनरल डिटरेंस का मकसद है कि अपराधी को सजा मिलती देखकर दूसरे सामान्य लोग भी अपराध करने से बचें या डरें।

जनरल डिटरेंट इफेक्ट यानी सामान्य प्रतिरोधी प्रभाव की संदिग्धता को बताने के लिए अपराध शास्त्र की कक्षा में एक रोचक उदाहरण भी दिया जाता था। मसलन फ्रांस की क्रांति के उस अराजक दौर में जेबकतरी के अपराध हद से ज्यादा बढ़ गए थे। बहुत सोचा गया, बहुत उपाय किए गए। आखिर में पारंपरिक ज्ञान के आधार पर तय किया गया कि जेबकतरों को चौराहे पर सरेआम फांसी देनी शुरू की जाए। चौराहे पर फांसी इसलिए, ताकि दूसरे लोग इसे देखें और उन पर जनरल डिटरेंट इफेक्ट पड़े। फांसी की सजा की इस सनसनीखेज घटना को देखने के लिए भारी भीड़ जुटती थी। पाया गया कि इस भीड़ में ही खूब जेबें कटने लगीं।

देश और काल की वर्तमान परिस्थितियों में नवीनतम अपराधशास्त्रीय शोध अध्ययनों का तो पता नहीं है। ऐसे अध्ययन न होने या कम होने के कारण जो भी हों, लेकिन इतना जरूर है कि अपनी जटिल समस्याओं के समाधान के लिए ज्ञान के सृजन में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई नहीं देती, और जो दिलचस्पी थी, वह भी जाती हुई नजर आती है। अपराध और उसके सभी कारणों को एक साथ रखकर गणितीय समीकरण में दिखाने वाले अपराधास्त्री सदरलैंड का जिक्र तक हमारी बहसों में नहीं आता। डी सदरलैंड वही अपराधशास्त्री हैं, जो न्यायालिक मनोचिकित्सा के विषेशज्ञ थे और उनके सेकंड लॉ ऑफ क्रिमिनल बिहेवियर को अपराधशास्त्र के पाठयक्रम में पढ़ाया जाता है। अपराधी व्यवहार के दूसरे नियम में अपराध रोकने में प्रतिरोध की भूमिका आंशिक बताई गई है। इस नियम में प्रतिरोध के लिए अंग्रेजी शब्द डिटरेंस नहीं, बल्कि रेजिस्टेंस है।

सजा का तीसरा मकसद प्रायश्चित्त पढ़ाते चले आ रहे हैं। सुनने में ही यह उपाय कुछ आध्यात्मिक सा लगता है। पढ़ते-पढ़ाते समय यह लंबे व्याख्यान की मांग करता था। इसके आधुनिक व्याख्याकार इस मामले में मनोवैज्ञानिक पहलू जोड़कर इसके महत्त्व को बढ़ाते जरूर हैं, लेकिन इससे ज्यादा सुझाव नहीं दे पाते कि अपराध बोध के न्यूनीकरण के लिए अपराधी को प्रायश्चित्त करने लायक स्थितियां मुहैया करानी चाहिए। आज के जेल प्रशासक और जहां कहीं अपराधशास्त्री उपलब्ध हैं, वहां के ये विषेशज्ञ बड़ी आसानी से पता कर लेते हैं कि कौन से सजायाफ्ता कैदी प्रायश्चित्त के दौर से गुजर चुके हैं। लेकिन उनके पास इस स्थिति का सार्थक उपयोग करने के लिए वैधानिक अधिकार होने का प्रबंध नहीं है। जेल में अपराधी के अच्छे व्यवहार की एवज में सजा में दो-चार रोज की छूट की सिफारिश से ज्यादा उनके हाथ में कुछ नहीं होता। बहरहाल प्रायश्चित्त जैसी भावनात्मक चीज की विश्वसनीय नापतोल का इंतजाम न होने के कारण इस पर कोई पाठ बनाने की हमारी स्थिति है नहीं।

सजा का चौथा मकसद सुधार पढ़ाया जाता है। अंग्रेजी में रिफॉर्मेशन के नाम से दंड के उददेश्यों में शामिल यह सुधार नाम की सजा हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की अनुपम देन बताई जाती है, जबकि आजादी के पहले की दंड व्यवस्था में प्रतिशोध, प्रतिरोध और प्रायश्चित्त, ये तीन ही मकसद थे। अपराधियों के सुधार की बात के पीछे यह प्रतिस्थापना थी की अपराध एक व्याधि है और इसका उपचार किया जा सकता है या किया जाना चाहिए। अपराध के कारणों पर होने वाले शोधों का निष्कर्ष आया था कि अपराध मानसिक या सामाजिक या आर्थिक; या तीनों प्रकार का रोग है और इसका उपचार संबंधित उपायों से ही किया जाना चाहिए।

विकसित देशों में इस प्रयोग के अच्छे नतीजों के बाद ही आजादी के बाद के अपने नीतिकारों ने अपराधियों के सुधार की पद्धति लागू करवाई थी। जीवित अपराधी को मानव और अपना ही समझते हुए उसे सुधार योग्य मानते हुए हम लगातार अपने जेल सुधारों की रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की संबधित संस्थाओं को बड़े गर्व से भेजते हैं। यह अलग बात है कि देश में पुराने किस्म का नए तरह से जो सोच-विचार शुरू हुआ है, और दंड नीति के लिए जो जनांकाक्षा बनाई जा रही है, उससे सुधारात्मक या उपचारात्मक दंड की प्रचलित अवधारणा पर सवाल खड़े हो रहे हैं। देखते हैं कि जनांकाक्षा का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक लोग, पत्रकारगण और बड़े वकील आगे और क्या बहस करते हैं।

दंड का पांचवां मकसद पुनर्वास पढ़ाया जाता है। सजा के मकसद के रूप में सुनने में यह बात भी एक बार कुछ अजीब-सी जरूर लगती है, लेकिन इसके पीछे तर्क यह है कि जब हम अपराधी बन गए अपने नागरिक को सुधारयोग्य मानकर उसका उपचार करते हों, तो सजा पूरी करने के बाद समाज में उसे पुनर्वासित करने का काम भी करना पड़ता है। हालांकि आज से 30 साल पहले यानी '80 के दशक में जेल की सजा पूरी करने के बाद बाहर आए पूर्व कैदियों पर जो शोध सर्वेक्षण किया गया, उससे पता चलीं बातें बहुत निराशाजनक थीं। उसके बाद तो लगता है कि संबधित मंत्रालयों के अफसरों ने ऐसे सर्वेक्षणों में दिलचस्पी लेना ही कम कर दिया। खैर, जब कड़क दंड नीति की बातें जोर-शोर से बढ़ाई जा रही हों तो पुनर्वास के विकल्प को भी उन्हें कम से कम सैद्धांतिक तौर पर तो ढूंढना ही पड़ेगा।

इधर सैद्धांतिकता को छोड़कर व्यावहारिकता के नाम पर जब समस्या के बारे में रेडीमेड समाधानों पर नजर डालते हैं तो फिर दुविधा की स्थिति दिखने लगती है, क्योंकि मौजूदा विद्वान लोग फांसी की सजा के पक्ष और विपक्ष में बंटे हुए हैं। उनके आग्रहपूर्ण सुझाव और बहुत ही ज्यादा आग्रह के साथ समाधान पेश करना तात्कालिक घटनाओं के नजरिये से ज्यादा लगते हैं। जबकि आगा-पीछा सोचने के लिए विश्वसनीय शोधकार्य की जरूरत पड़ती है। ऐसे मामलों में तो इतिहास को भी वैज्ञानिक शोध पद्धति से जानने का सुझाव दिया जाता है। अपने विकास के लिए जहां प्रौद्योगिकी पर ही सारा जोर हो, वहां लगता है कि नीतिकारों को फिलहाल विज्ञान की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। वैज्ञानिक रुझान के लोगों को उस जरूरत के महसूस होने तक और इंतजार करना पड़ेगा। या फिर पत्रकार, राजनीतिक तबके और वकीलों को अपने-अपने कामों के अलावा अपराधशात्र, न्यायालिक मनोविज्ञान, दंडशास्त्र की विषेशज्ञता भी अलग से हासिल करनी पड़ेगी। तभी वे सार्थक और निर्णायक बहस यानी संवाद कर पाएंगे।

- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं

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