मंदिर मुद्दे की उम्र का सवाल
चाहे सीधे तौर पर वोटों के नगदीकरण के लिए हो या धार्मिक आस्था के सहारे राजनीतिक लाभ के लिए, कोई भी मुद्दा ज़्यादा देर ज़िन्दा नहीं रहता। बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर का मामला लपट बनकर आए 20 साल गुजर चुके हैं। आखिर कब तक उसे उतना ही धुआंधार बनाए रखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के पिछले पांच विधानसभा चुनाव और पांच ही लोकसभा चुनाव में भी इस मुद्दे का असर हम देख चुके हैं। चुनावों में कब कौन सी बात कारगर हो उठती है, उसका हिसाब राजनीति के अच्छे खां भी नहीं लगा पाते। फिर भी मंदिर मुद्दे से उम्मीद लगाने वालों को तो लगेगा ही कि यही सबसे कारगर हथियार है।
ऐसे लोग अब तक सार्वजनिक रूप से यही कहते आए हैं कि यह राजनीति का नहीं, उनकी धार्मिक आस्था का सवाल है, लेकिन इस बार उन लोगों ने केंद्र में अपने रुझान की मौजूदा सरकार के होने को अपने पक्ष में बताने का नया तर्क जोड़ा है। यानी एक तरह से इस मुद्दे को राजनैतिक लाभ-हानि के लिहाज़ से भी माने जाने का इशारा साफ है। जहां तक समय की अनुकूलता का कोण है, तो उत्तर प्रदेश में पास आ गए चुनाव से पहले, साथ ही सबसे पहले मंदिर मुद्दे की पहल को उसी नजर से क्यों न देखा जाए...?
राजनीतिक परिस्थितियां अनुकूल होने का तर्क
बाबरी मस्जिद उर्फ विवादित ढांचा ढहाए जाने को 23 साल हो गए हैं। इस दौरान देश में और उत्तर प्रदेश में लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों की सरकारें आती और जाती रहीं। इनमें केंद्र में बीजेपी-नीत एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी भरे-पूरे छह साल सत्ता में गुज़ारे। यानी मंदिर आंदोलन के अगुवा और धार्मिक शाखा के नेताओं को यह तर्क देने में संकोच होना चााहिए कि 23 साल बाद एनडीए सरकार के रूप में राजनीतिक परिस्थितियां मंदिर मुद्दे के पक्ष में हैं। संकोच इसलिए होना चाहिए, क्योंकि अटल बिहारी सरकार कोई प्राचीन इतिहास की बात नहीं, बल्कि पिछले दशक की ही बात है।
कानूनी स्थिति का कोण
रही बात वैधानिक-संवैधानिक मामले की, तो कानून में ऐसा कौन-सा नया बदलाव हो गया है कि मंदिर निर्माण को अब अपने अनुकूल बताया जा सके। मामला अब भी न्यायालाय के विचाराधीन है। हाल में किसी भी तरह की कानूनी स्थिति नहीं बदली है, इसीलिए मंदिर के पक्षकारों ने भी संकोच के साथ यह कहा है कि हम तो अदालत का आखिरी फैसला अपने पक्ष में आने की प्रत्याशा के आधार पर अयोध्या में निर्माण सामग्री तैयार कर रहे हैं। साथ ही साथ यह भी जोड़ा जाता है कि यह काम तो लगातार चल ही रहा है, लेकिन तब यह सवाल उठता है कि अगर मंदिर निर्माण की तैयारी का काम पहले से ही लगातार चल रहा है तो अभी डेढ़ रोज पहले हलचल मचाकर जो लहर पैदा करने की कोशिश हुई, वह क्या थी...?
मंदिर को लेकर मौजूदा माहौल
जनसरोकारों के मुद्दों पर जनतांत्रिक जन अभी भी सामने आकर भागीदारी के लिए तैयार नहीं है। इन मुद्दों पर जनता का विचार जानने की व्यवस्था हम नहीं बना पाए हैं। समय-समय पर होने वाले चुनाव ही उनका विचार जानने का उपाय माने जाते हैं। सो, अगर चुनावों को आधार मानें तो बिल्कुल ताज़ा चुनाव बिहार का है, जिसके बाद जितने भी विश्लेषण हुए, उनका निष्कर्ष है कि जनतांत्रिक जन ने धर्म, संप्रदाय, आस्था आदि को राजनीतिक मामले में सिरे से नकार दिया।
इतना ही नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को दोबारा मौका न दिए जाने के बाद यह मुद्दा प्राथमिकता सूची में पीछे रखा जाने लगा था। यहां तक कि पिछले लोकसभा चुनाव में तमाम बहस और मंदिर आंदोलन के अगुवा नेताओं की कोशिशों के बाद रस्म के तौर पर ही इसे शामिल माना गया था। पौने दो साल बाद आज भी माना जाता है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लड़ा गया पिछला लोकसभा चुनाव विकास के सपने दिखाकर, खासतौर पर बेरोजगार युवाओं को लुभाकर, जीता गया था, और अगर मौजूदा माहौल की तस्वीर बनाएं तो नई सरकार को उसके हिसाब से कुछ कर दिखाने में तो दिक्कत आ ही रही है।
इन तथ्यों के आधार पर विश्लेषण करें तो मजबूरी के हालात में विकास के सपनों को छोड़कर वापस धार्मिक आस्था पर लौटने की अटकल खारिज नहीं की जा सकती। बस, देखना यह होगा कि कोई मुद्दा, जो अपने चरमोत्कर्ष को पहले ही पार कर चुका हो, क्या उसका इस्तेमाल फिर उतना ही धारदार बनाया जा सकता है...?
- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं
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