साल की सबसे बड़ी मुश्किल केंद्र सरकार के सिर पर आकर खड़ी हो गई है। देश का आम बजट पेश होने में सिर्फ डेढ़ महीना बचा है। अमूमन दो महीने पहले से ही सालाना आमदनी और खर्च का हिसाब लगने लगता था, लेकिन इस बार अब तक हलचल भी शुरू नहीं हुई। अलबत्ता इस गुजरते वित्त वर्ष में सरकार ने इतने सारे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम और योजनाओं के ऐलान कर डाले हैं कि उन्हें शुरू करने के लिए वित्त मंत्रालय को सूझ ही नहीं रहा होगा कि किस कार्यक्रम के लिए पैसा दें, और कौन-सा छोड़ दें। यह हफ्ता इस लिहाज़ से खास है कि विभिन्न मंत्रालय अपनी मांग का पक्का चिट्ठा पेश करने में जुटेंगे। इसी हफ्ते से नागरिक समूह और संस्थाएं भी सक्रिय हो जाएंगी, और वे सरकार की ऐलानिया योजनाओं के लिए ज़रूरी रकम का प्रावधान करने का दबाव बनाना शुरू करेंगी।
मंदी की आफत
चौतरफा लक्षण हैं कि देश मंदी की कगार पर है। खाने-पीने की चीजों के अलावा दूसरे सामानों से बाज़ार पटे पड़े हैं। बाज़ार में ग्राहकी घटती जा रही है। दीपावली तक पर बाज़ारों में ज्यादा रौनक नहीं थी। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र भारी संकट में है। चीन के सस्ते माल ने देसी उद्योग की नाक में दम कर रखा है। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था में कृषि को महत्व मिलता नज़र नहीं आता। यानी ले-देकर विनिर्माण के सहारे ही अर्थतंत्र का चक्का घुमाने की कोशिश फिर होगी, जबकि पूछा यह जाना चाहिए कि मंदी के भारी कदमों की आहट के बीच हम अपने उद्योगों में बनवाएंगे क्या...?
निर्यात की बुरी हालत
इस बार का बजट बनाने में सबसे बड़ी मुश्किल देश से निर्यात घटते चले जाने की है। नई सरकार की हिफाज़त में मीडिया का अब तक का जो रुख रहा है, उससे हालात के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। फिर भी निर्यात के आंकड़ों को छिपाया नहीं जा पाया। अपना माल दूसरे देशों को बेचने की मात्रा 20 से 30 फीसदी घट गई है, और इससे ही अंदाज़ा लग जाता है कि दुनिया में कितनी भयानक मंदी है।
कृषि क्षेत्र पर संकट
पिछले दो साल में कृषि क्षेत्र पर सुल्तानी और आसमानी, यानी दोतरफा मार पड़ी है। इस साल किसान जितनी बुरी हालत में हैं, उन्हें उससे उबारने के बारे में इसी बजट में सोचना पड़ेगा। बुंदेलखंड और विदर्भ मरणासन्न स्थिति में पहुंच गए हैं। वैसे तो उनके लिए फौरी मदद की ज़रूरत थी, लेकिन लगता है, संकट के आकार को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने आंखें मूंदें रखीं। पिछले हफ्ते दो-चार हज़ार करोड़ की राहत का जो ऐलान हुआ, वह बड़ी देर से भेजी गई बहुत नाकाफी राहत साबित हो रही है। लेकिन बजट पेश होने की तारीख, यानी फरवरी के आखिरी हफ्ते में बुंदेलखंड जैसे इलाकों में जैसा हाहाकार मचने का अंदेशा है, उस हिसाब से सरकार पर पूरा दबाव रहेगा कि इन इलाकों को 40 से 50 हज़ार करोड़ रुपये किस तरह पहुंचाए।
बेकाबू होती बेरोज़गारी
देश में 10 करोड़ प्रत्यक्ष बेरोज़गारों और 25 करोड़ अप्रत्यक्ष बेरोज़गारों को सपने दिखाकर ही मौजूदा सरकार को सत्ता हासिल हुई थी। पिछले दो साल तो सरकार ने अपने को नई-नई सरकार होने के बहाने से गुजार लिए, लेकिन अब युवा वर्ग के सब्र का बांध भी टूट रहा है। भले ही स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप जैसे कार्यक्रमों का ऐलान करके अब तक उन्हें दिलासा दिया जाता रहा हो, लेकिन इस बार के बजट में उनके लिए स्पष्ट प्रावधान करना मजबूरी होगी। इधर हकीकत यह भी है कि रोज़गार बढ़ाने के पुराने कार्यक्रम चलाने के लिए ही पैसे के इंतज़ाम का रोना रोया जाता रहा, तो फिर नए नाम से इन रोज़गार कार्यक्रमों के लिए कितनी रकम निकल पाएगी, यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है।
हां, 10 करोड़ प्रत्यक्ष बेरोज़गारों को 25-50 हज़ार का कर्ज़ देकर कोई काम शुरू कराने की बात सोची जा सकती है। सरकार बैंकों से कर्ज़ा दिलाने का ऐलान कर सकती है, हालांकि यह भारी जोखिम का काम होगा, क्योंकि बैंक पुराने कर्ज़ों की वसूली में बुरी तरह फेल हो चुके हैं। उनकी भारी-भरकम रकमें बट्टेखाते में जा चुकी हैं। पांच-सात लाख करोड़ के नए कर्ज़ देने में इतना जोखिम होगा कि बैंकों का भट्टा बैठ सकता है। यानी बेरोज़गारों को कर्ज़ दिलाने के बहाने बैंकों को एनपीए की भरपाई के लिए इसी बजट में कोशिशें होती दिखेंगी। हालांकि यह काम इतना पेचीदा और बड़ा है कि घुमावदार बातें बनाते समय वित्त मंत्रालय का गला सूख जाएगा।
स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप से बना माल बेचेंगे किसे?
गौरतलब है कि स्टैंड-अप जैसे कार्यक्रम दूसरे नामों से दसियों बार आज़माए जा चुके हैं, लेकिन उनसे होता-हवाता कभी कुछ नहीं दिखा। और फिर मंदी के दौर में ये कुटीर उद्योग स्तर के नए उद्यमी क्या बनाएंगे, और अपनी बनाई चीज़ें कहां बेचेंगे...? इसका हिसाब लगाता तो अभी कोई भी नहीं दिखता। हो सकता है, इस बार के बजट में इसका कोई हिसाब बताया जाए। वैसे भी देश में होशियार हो चुके युवा आम बोलचाल में मार्केटिंग का मतलब समझाते हुए पाए जाते हैं। गलियों आौर बाज़ारों में फिजूल में चक्कर काटते ये बेरोज़गार खूब देख रहे हैं कि बाज़ार में ज़रूरत से ज्यादा माल अटा पड़ा है और अगर कहीं ज़रूरत दिखती है तो अनाज और दालों की। पढ़े-लिखे युवा कैसे खेती-बाड़ी में लगाए जा सकेंगे...? इसे हम इस आधार पर खारिज कर सकते हैं कि ये युवा इस साल किसान की दुर्दशा अपनी आंखों से देख रहे हैं। वे मीडिया में देख-सुन रहे हैं कि इस साल कर्ज़ से लदे किसानों की आत्महत्याओं की तादाद कितनी है।
अच्छी आमदनी के दावों से उम्मीदें भी बढ़ीं
2-जी 3-जी के नए आवंटनों, कोयला खदानों की नई नीलामियों, कच्चे तेल के दाम में आश्चर्यजनक कमी जैसे दसियों मदों में कम से कम दस लाख करोड़ की आमदनी के दावों की जांच इस बार के बजट से होगी। पिछले साल के बजट की तुलना में इस बार का बजट आकार बढ़कर 25 लाख करोड़ हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है, इस बार पैसे का रोना नहीं रोया जा सकता, लेकिन पिछले डेढ़ साल में तरह-तरह की योजनाओं के ऐलान जिस ताबड़तोड ढंग से हुए हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि इतनी रकम भी पूरी पड़ेगी। अकेले स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप कार्यक्रमों में कुछ होता हुआ दिखाने के लिए चार से छह लाख करोड़ का खर्चा मामूली बात होगी।
किसानों को देखना पड़ेगा बजट में
किसानों की दुर्दशा को देखते हुए उनके कर्ज़ माफ करने का काम भी इस साल के बजट में दिख सकता है। बजट के अलावा किसी और मौके के लिए इसे रोककर रखना इसलिए मुश्किल होगा, क्योंकि कम से कम डेढ़-दो लाख करोड़ की रकम का इंतजाम और कहीं से होना मुश्किल है। किसानों के लिए पानी का इंतजाम करने वाली चालू और नई योजनाओं पर एक-डेढ़ लाख करोड़ के खर्चे का हिसाब अलग है।
बहरहाल, मौजूदा हालात में आने वाला बजट यह सबक तो देगा ही कि जब तक पैसे का इंतज़ाम न हो, बड़े-बड़े काम न अमासे जाएं, वरना हर बजट में वायदों की पोल खुलती जाएगी।
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Jan 11, 2016
नरेंद्र मोदी सरकार का गला न सूख जाए इस बार का आम बजट बनाने में...?
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 28, 2016 12:38 pm IST
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Published On जनवरी 11, 2016 11:16 am IST
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Last Updated On जनवरी 28, 2016 12:38 pm IST
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