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This Article is From Oct 31, 2018

ठीकरा फुड़वाने के लिए रिजर्व बैंक अपना सिर तैयार रखे...

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 31, 2018 22:16 pm IST
    • Published On अक्टूबर 31, 2018 22:16 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 31, 2018 22:16 pm IST
देश की माली हालत को लेकर रहस्य पैदा हो गया है. रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच कुछ चल पड़ने की खबरें हैं. क्या चल रहा है? ये अभी नहीं पता. उजागर न किए जाने का कारण यह है कि आम तौर पर रिजर्व बैंक और सरकार के बीच कुछ भी चलने की बातें तब तक नहीं की जातीं जब तक सरकार कोई फैसला न ले ले. लेकिन हैरत की बात ये है कि सरकार ने आश्चर्यजनक रूप से रिजर्व बैंक के बारे में एक बयान जारी किया है. कुछ गड़गड़ होने का शक पैदा होने के लिए इतना काफी से ज्यादा है. 

क्या कहा सरकार ने
वैसे तो कोई नहीं समझ पा रहा है कि सरकार के इस बयान के मायने क्या हैं. इसलिए भ्रम की स्थिति बनी. वित्तमंत्रालय यानी सरकार के बयान को देखें तो उसमें यह कहा गया है कि रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता जरूरी है. इसका मतलब है कि कहीं कोई ऐसी बात होगी कि रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर खतरा मंडराया होगा. वरना वित्त मंत्रालय को बाकायदा बयान की जरूरत ही क्यों पड़ती. बहरहाल सरकार के बयान से भ्रम पैदा तो हुआ ही है. वैसे मीडिया में ये खबर चल रही थी कि रिजर्व बैंक के गवर्नर इस्तीफा देने वाले हैं. कारण के बारे में अटकल यह लगाई जाने लगी थी कि कुछ मामलों में गवर्नर पर सरकार का दबाव पड़ रहा है जिसे वे झेल नहीं पा रहे हैं. 

क्या भ्रम पैदा हुआ
भ्रम या अंदेशा देश की माली हालत को लेकर है. सरकार के बयान के बाद चर्चा यह चल पड़ी कि देश के बैंकों की हालत खराब है. खासतौर पर बैंकों के दिए लाखों करोड़ के कर्ज की रकम डूबने के बारे में. वैसे यह कोई नया अंदेशा नहीं है. बैंकों के दिए दस लाख  करोड़ के कर्ज की रकम डूबने के आंकड़े महीनों से सुनाई दे रहे हैं. बहरहाल बैंक चाह रहे हैं कि उन्हें अपना काम-काज जारी रखने  के लिए सरकार अपनी तरफ से पूंजी दे. डेढ़ साल पहले यह तय सा भी हो गया था कि सरकार कोई लाख सवा लाख करोड़ की पूंजी बैंकों में डालेगी, लेकिन अब तक वह 10 हजार करोड़ भी नहीं दे पाई. उधर डूबते कर्जों के नए-नए मामले आ रहे हैं और एनपीए नाम की यह रकम 10 लाख करोड़ से बढ़कर बारह हजार करोड़ रुपये होने को आई है. जीडीपी के आंकड़े बिगाड़ने के लिए यह रकम भयावह है. इतनी बड़ी डूबती रकम को लेकर बैंकों और खुद रिजर्व बैंक की चिंता स्वाभाविक है.

बात इतनी भर नहीं
देश की माली हालत को लेकर चिंता डूबते कर्ज़ भर की नहीं है. महीनों से कई और अंदेशे भी जताए जा रहे हैं. कुछ जिम्मेदार किस्म के मीडिया प्रतिष्ठान और आर्थिक मामलों के जानकार अपनी अपनी हैसियत और राजनीतिक माहौल को देखते हुए खुलकर न  सही लेकिन इशारे जरूर करते रहे हैं. इसी स्तंभ में देश की माली हालत को लेकर एक आलेख ढाई साल पहले लिखा गया था, इतना ही नहीं दो दो पूर्व वित्तमंत्री मसलन पी चिंदंबरम और यशवंत सिन्हा तो हाल के दिनों में एक बार, नहीं बल्कि दसियों बार देश की बिगड़ती माली हालत को लेकर आगाह कर चुके हैं. सरकारी आंकड़ों के जरिए यह बताया गया कि देश की माली हालत नाजुक हो चली है. मसलन इस बार के बजट में सरकार ने 19 दशमलव एक पांच फीसद राजस्व बढ़ने का हिसाब लगाया था. छह महीने हो गए और बढ़ पाया पौने आठ फीसद की रफतार से. वित्तीय वर्ष के बाकी बचे समय में लक्ष्य हासिल हो पाना लगभग नामुकिन हो गया है.

देश की माली हालत को लेकर ऊहापोह में तो नहीं है सरकार...?

सरकार की दूसरी सबसे बड़ी मुश्किल सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी को बेचने यानी विनिवेश के मोर्चे पर नाकामी है. हिसाब लगाया था कि अस्सी हजार करोड़ सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचकर आ जाएंगे. उसी हिसाब से खर्च कर डाला गया. अब पता चल रहा है कि शुरुआती छह महीने में सिर्फ साढ़े नौ हजार करोड़ ही जुट पाए. इसी तरह सरकारी कंपनियों से मिलने वाले लाभांश का हिसाब गड़बड़ा रहा है. सरकार ने एक लाख करोड़ मिलने का हिसाब लगाकर कई योजनाएं बना डाली थीं. लेकिन ज्यादातर कंपनियों खासतौर पर तेल कंपनियों से उतना लाभांश मिलने में भारी अड़चन पैदा हो गई है. चालू खाते का घाटा पहले से ही बढ़ता ही जा रहा है.

कई और संकट जिनकी नापतोल मुश्किल 
लाख कोशिशों के बावजूद रुपये की गिरती कीमत सरकार के समेटे में नहीं आ रही. रुपये की बदहाली थामने के लिए देश के पास विदेशी मुद्रा में जमा भंडार बेचने का भी असर अब बेअसर हो चला है. भले ही कच्चे तेल के दाम पर हमारा बस नहीं, लेकिन कच्चे तेल के मामले में सारी धारणाएं और प्रचारात्मक कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं. यानी कहीं से कोई उम्मीद बची नहीं दिख रही है.

रिज़र्व बैंक से उलझाव के अलावा चारा क्या?
हम वैधानिक लोकतंत्र हैं. लोकतंत्र हैं सो सरकार को जनता के सामने नियमित रूप से अपनी जवाबदारी बनाए रखनी पड़ती है. खासतौर पर चुनाव के साल में तो और भी ज्यादा. इसीलिए कोई भी लोकतांत्रिक सरकार नहीं चाहती कि किसी भी क्षेत्र में नाकामी के लिए वह जिम्मेदार साबित हो. अपनी व्यवस्था भी ऐसी बना रखी है कि हर क्षेत्र में हमने तरह-तरह की संस्थाएं बना रखी हैं और उन्हें स्वायत्त घोषित कर रखा है. किसी भी अफेदफे में जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ने के लिए ये संस्थाएं एक सिर की तरह काम आती हैं. क्यों न यह माना जाए कि रिजर्व बैंक को ठीकरा फुड़वाने के लिए अपने सिर को तैयार रखना चाहिए. 

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
 

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