विज्ञापन
This Article is From Sep 21, 2016

#युद्धकेविरुद्ध : सत्ता का सोशल मीडिया काल और युद्धोन्मादी ताल

Umashankar Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 25, 2016 14:32 pm IST
    • Published On सितंबर 21, 2016 17:56 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 25, 2016 14:32 pm IST
पाकिस्तान पर बम मार दो. उसका समूल विनाश कर दो. ईंट से ईंट बजा दो. इस बार मत छोड़ो. इस तरह की बातों से न सिर्फ सोशल मीडिया भरा पड़ा है बल्कि न्यूज़ चैनलों के स्‍टूडियोज़ से भी ऐसी ही चीख सुनाई पड़ रही है. उरी का आतंकवादी हमला बहुत बड़ा हमला है इसमें कोई शक नहीं. एक सैनिक की शहादत भी बड़ा नुकसान होता है लेकिन इस हमले में 18 सैनिकों की शहादत हुई है. देश में गुस्सा लाज़िमी है.

हर कोई पूछ रहा है अब क्या. कोई सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत बता रहा है तो कोई कह रहा है कि सीधा हमला कर देना चाहिए. हवाई हमले से लेकर स्पेशल कमांडोज़ के जरिये ज़मीनी ऑपरेशन के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं. नई दिल्ली में बैठे डिफेंस एक्सपर्ट से लेकर सुदूरवर्ती गांवों से जो आवाज़ आ रही है, उसमें इस बार जंग को ही अंतिम उपाय बताने वालों की तादाद ज़्यादा है.

----- ----- ----- ----- ----- ----- ----- ----- ----- -----
#युद्धकेविरुद्ध कड़ी के सभी लेख यहां पढ़ें
----- ----- ----- ----- ----- ----- ----- ----- ----- -----

आख़िर इस बार क्यों पनपा है ये युद्धोन्माद. ऐसा नहीं है कि भारत और पाकिस्तान के इतिहास में ये पहली बार हो रहा है. ताकत के इस्तेमाल के जरिये पाकिस्तान को सबक सिखाने की मांग हमेशा से होती आई है. इस बार इसमें कुछ अंतर है. क्या है वो और क्यों है, ये बात भी किसी से छिपी नहीं. सबसे बड़ा फैक्टर है सोशल मीडिया और उससे आगे बढ़ कर अपना वजूद बचाए रख पाने के लिए संघर्षरत मेनस्ट्रीम मीडिया. ऐसा कह मैं सिर्फ मीडिया पर ठीकरा नहीं फोड़ रहा. पर सोशल मीडिया के इस्तेमाल ने किस तरह से नज़रिए पर असर डाला है ये देखने की बात है.

 सोशल मीडिया का इस्तेमाल बहुत नया नहीं तो बहुत पुराना भी नहीं है. लेकिन इसने 2001 और 2008 के भारत-पाकिस्तान तनाव से अलग इस बार के तनाव को हवा दी है. युद्धोन्मादी जनभावना के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले उतने दोषी नहीं हैं जितना वे दल और संगठन जिन्‍होंने पहले इसे अपनी राजनीतिक हित साधना के लिए खुल कर और हर तरह से इस्तेमाल किया और अब जब बोतल का जिन्न बड़ा हो गया है तो वह उससे बचने की सूरत नहीं तलाश पा रहे. और जिसे हम मुख्यधारा की मीडिया कहते हैं और उन पर अब दबाव ये है कि उपनी उपादेयता कैसे बनाए रखें.

बात सीधे तौर पर बीजेपी और इनके नेताओं की करते हैं. आपको याद होगा कि दिल्ली की सत्ता की ओर बढ़ते हुए नरेंद्र मोदी और उनके साथ के कई दूसरे नेताओं ने भी पाकिस्तान को लेकर किस तरह के बड़े और कड़े बयान दिए. पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देंगे. पाकिस्तान हमले कर रहा है और चीन हमारी ज़मीन पर घुसपैठ पर (मनमोहन सिंह) सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. विपक्ष के तौर पर बीजेपी ने यूपीए की सरकार को घेरने में भाषा और तेवर की हर हद लांघी. एक सिर के बदले दस सिर लाने की बात किसी और ने नहीं बल्कि सुषमा स्वराज ने की थी, जो अब विदेश मंत्री हैं.

मुख्यधारा की मीडिया ने अपनी सीमितता के साथ इसे सुर्खियों में तो रखा ही, ट्विटर और फेसबुक के जरिये ये संदेश लोगों के हाथों तक पहुंचा. वे इसे जितनी बार चाहते पढ़ सकते थे. रिट्वीट और शेयर कर सकते थे. लेकिन अब पहले जो सत्ता हासिल करने के लिए वरदान साबित हो रहा था. सत्ता संभालने के बाद जवाब के लिए पीछे पड़ा भूत साबित हो रहा है. आलम ये है कि हमले के चार दिन बाद भी सुषमा स्वराज ने अपनी तरफ से उरी हमले पर कुछ नहीं कहा है. एक ट्वीट तक देखने को नहीं मिला है. विपक्ष के तौर पर उनके कहे को लोग अब दोहरा और पूछ रहे हैं कि ऐसा कब होगा.

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी ने किस-किस तरह के बयान दिए वो सब सोशल मीडिया पर वायरल कराए गए. सबका रिकॉर्ड सोशल मीडिया पर है. सब रिट्रीव कर लिए गए हैं. लंबी-लंबी बातों के साथ भाषण के छोटे-छोटे टुकड़े इधर से उधर भेजे जा रहे हैं. व्हाट्सअप ने इसे और आसान और प्रभावशाली बना दिया है. स्थिति ऐसी हो गई है कि जो कट्टर मोदी भक्त थे, वे भी सवाल पूछ रहे हैं. मतलब वे नेता के तौर पर मोदी नहीं व्यक्ति के तौर पर उनके तेवर के भक्त थे. सत्ता की व्यवहारिकता ने नेता को बदल दिया है लेकिन जनता उसी व्यक्ति को ढूंढ़ रही है जिसने रगों में खून को गरम किया था.

याद हो तो 2001 में संसद पर हमले के बाद सेना जब सीमा पर कूच कर रही थी तो लोग रास्ते में उनके ट्रकों को रोक-रोक कर जवानों को माला पहना रहे थे. ऑपरेशन पराक्रम के वक्त भी लोगों में पाकिस्तान को सबक सिखाने की भावना थी. ऐसा नहीं है कि वाजपेयी जी ने विपक्ष में रहते पाकिस्तान के खिलाफ़ सख़्त रुख नहीं अपनाया था. भाषणों में उसका ज़िक्र नहीं किया था. लेकिन तब सोशल मीडिया नहीं था. इसलिए वह सत्ता हासिल करने के लिए भावनाओं को भड़काने का टूल नहीं बना था.

2008 में मुंबई हमले के बाद भी लोग सीमा पार जा कर मज़ा चखाने की वकालत कर रहे थे. तब सोशल मीडिया आ चुका था. इस्तेमाल ने विस्तार नहीं लिया था. और ले भी रहा था तो मनमोहन सिंह के भाषण के ऐसे टुकड़े उसे नहीं मिले थे जिसे वायरल कर वह सरकार को धकिआए कि चलो युद्ध करो. पहले बहुत तेवर दिखाते थे. उन्हें तो ख़ुद मोदी ने मौनमोहन का ख़िताब दिया.

आज शायद कईयों को एहसास हो रहा होगा कि जब दुश्मन को पटखनी देनी हो तो मौन रह कर कूटनीति में जुटे रहना कितना अहम होता है. तभी आज के कई मंत्री संभला हुआ बयान दे रहे हैं. बता के नहीं करेंगे. जो करना है करेंगे. हालांकि ऐसा कह कर भी वह एक तरह से ऐलान कर रहे हैं कि करेंगे. दरअसल क्रेडिट का लोभ आपको कहीं का नहीं रहने देता. आप सोचते हैं कि पीछे के बोले को जस्टिफाई करना है तो आगे बढ़ कर कुछ कहना होगा. मज़बूत दिखने का लालच उनसे बोलवाता है. क्या कुछ नहीं कर पाएंगे इसे लेकर व्यवहारिकता का एहसास उन्हें सताता है.

हर तरह की चुनौतियों के बीच सरकार तो फिर भी संयमित रह कर एक ठोस रणनीति बनाने में जुटी है. लेकिन एक दांत के बदले पूरा जबड़ा ले आएंगे, ये संघ के नेता का शंखनाद है. ना उनको बिल्कुल डरने की ज़रूरत नहीं है. न तो पाकिस्तान से और न ही परमाणु हथियार के इस्तेमाल की उसकी धौंसपट्टी से. लेकिन जोश में होश खोने की ज़रूरत नहीं है. ये देख कर अच्छा लग रहा है कि जो मोदी और सुषमा के ट्वीट्स और बयान के साथ पिछली सरकार को शिखंडी बताने से नहीं चूक रहे थे, अब वे नए तरह के तर्कों के साथ आगे आ रहे हैं. युद्धोन्माद के खिलाफ़ लिख रहे हैं. दलीलें अपने नेताओं के उन तेवरों के विपरीत दे रहे हैं जो पहले खुद को खली समझते थे.

लेकिन फिर भी युद्ध के खिलाफ जितना लिखा जाए कम है. युद्ध के बाद भी वार्ता की टेबल पर बैठना होता है. इसलिए युद्ध कोई विकल्प नहीं. आतंकवादी ढांचे को तोड़ने के लिए ताक़त ज़रूरी है, लेकिन बुद्धि की ताक़त उससे ज़्यादा ज़रूरी है. जो सही में मोदी के भक्त हैं, उनके अंदर ये पनप रहा है धीरे-धीरे. जो उन्माद के भक्त थे वे उनसे अलग हो रहे हैं. वे जी भर भर कर कोस रहे हैं. अपने ही मोदी जी के खिलाफ़ कविताएं लिख रहे हैं.

लेकिन मोदी जी को इससे परेशान होने की ज़रूरत नहीं. हम उनके साथ हैं. वे ऐलान-ए-जंग न करें. प्रधानमंत्री के तौर पर देश को अंदर और बाहर से सुरक्षित रखने के कड़े से कड़े फैसले लें. दुनिया भर में जो उन्‍होंने अपनी चमक बिखेरी है उसका इस्तेमाल करें. मित्र बराक सत्ता से जाने वाले हैं लेकिन जाते-जाते भारत के हित में एक बड़ा फैसला तो कर ही सकते हैं. पाकिस्तान को अलग-थलग करने की दिशा में एक बयान ही दे दें. दुनिया के जिन नेताओं को सेल्फ़ी और झप्पी के ज़रिये अपना बनाया है उन सबको पाकिस्तान पर पाबंदी के लिए तैयार कर लें. मोदी जी हम आपकी तरफ देख रहे हैं. युद्ध की तरफ नहीं. युद्ध बहुत त्रासदी देता है. दशकों तक उसका दंश रहता है.

उमाशंकर सिंह एनडीटीवी में विदेश मामलों के संपादक हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं। इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
उरी आतंकी हमला, सोशल मीडिया, नरेंद्र मोदी, पाकिस्‍तान, 2008 मुंबई आतंकी हमला, संसद पर आतंकी हमला, अटल बिहारी वाजपेयी, Uri Terror Attack, Social Media, Narendra Modi, Pakistan, 2008 Mumbai Terror Attack, 2001 Parliament Attack, 2001 संसद पर आतंकी हमला, युद्ध के विरुद्ध
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com