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This Article is From Feb 19, 2015

हृदयेश जोशी : जंतर-मंतर की चीखें और एक शाही शादी का बुलावा

Hridayesh Joshi
  • Blogs,
  • Updated:
    फ़रवरी 19, 2015 20:02 pm IST
    • Published On फ़रवरी 19, 2015 19:56 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 19, 2015 20:02 pm IST

मैं जंतर-मंतर में हूं। दिल्ली में विरोध प्रदर्शन का ये अखाड़ा नारों से गूंज रहा है। यूं तो यहां हर रोज़ धरने होते हैं, लेकिन आज कई जमावड़े हैं, इसलिए भीड़ काफी ज्यादा हुई। हरी धोती वाली महिलाओं के साथ आए कुछ युवा लड़के और बुज़ुर्ग। नारे, भाषणबाज़ी और गुस्सा।

कौतूहलवश जानकारी लेने के लिए मैं उनके बीच जाता हूं। मेरे पास कैमरा नहीं है, लेकिन हाथ में कलम और डायरी देखकर दो महिलाएं चिल्लाती हैं। 'ओ अख़बार वाले बाबू, इधर आओ।' मैं उस ओर देखता हूं। ये लोग गुस्से में हैं। मैं अपना बचाव तैयार करते हुए कहता हूं, अरे बहन जी, कहां से आए हैं आप लोग... लेकिन वे महिलाएं मेरी सहानुभूति को अनदेखा कर देती हैं और गुस्से में कहती हैं, "अरे सरम नहीं आता। सुबह से बइठे हैं। कोई अख़बार वाला न टीभी वाला आव रहा। वो अन्ना-सन्ना, नेता, ढकोसला क्या-क्या दिखावता हो। कमरिया टूट गई रही सुबह से।" कहते हुए एक अधेड़ उम्र की महिला अपनी पीठ दिखाती है। "अरे माता जी बताइए न क्या दिक्कत है। हम लिखेंगे।"

महिलाओं को मुझ पर भरोसा नहीं होता। वो धिक्कारपूर्ण अंदाज़ में गुड़मुड़ाती हैं। उनके बैनर पोस्टर देखकर मैं फिर पूछता हूं, आंगनवाड़ी वाले लोग हैं आप। क्या दिक्कत है? "अरे दिक्कत क्या है 5,000 हज़ार लोग आय रहे इधर। इहां हल्ला करने। हम आंगनवाड़ी वर्कर हैं। कोई सुनता नहीं हमारी।’ 38 साल की सुनीता कहती हैं, जो आगरा से आई हैं। अरे दिक्कत क्या है? "दिक्कत इ है बबुआ कि हमें माहवार 3200 रुपये मिलत रहा। चपरासी की पगार भी हमसे अधिक रही।" एक बुज़ुर्ग महिला ने कहा।

फिर भीड़ से निकल कर बनारस की मंजूरानी आती हैं। इनकी भाषा शहरी हिन्दी के ज्यादा करीब है। "सर हमें वैसे तो आंगनवाड़ी कर्मचारी कहा जाता है, लेकिन हमसे जनगणना से लेकर हेल्थ सर्विस तक सारे काम कराए जाते हैं। हमारी तनख्वाह एक सरकारी चपरासी से कम है।" उनके साथ खड़ी अनीता कहती हैं, "गर्भवती महिला से लेकर नवजात बच्चे का ख्याल रखने के अलावा हमसे खाना बनाने और दवाइयां बांटने के सारे काम कराए जाते हैं।" इनकी बातों से लगा कि इनके श्रम की गिनती कहीं नहीं होती। भारत के महत्वपूर्ण मानव संसाधन को विकसित करने में लगे ये लोग किसी गिनती में नहीं हैं। ऊपर से सामाजिक क्षेत्र में सरकार के खर्च को पैसे की बर्बादी बताया जाता है।

इसी भीड़ में मुझे छत्तीसगढ़ के दोस्त और माइनिंग और आदिवासी मामलों पर भिड़े रहने वाले वकील सुदीप श्रीवास्तव दिख जाते हैं। "देख रहे हैं आप। तीन-तीन बड़े प्रोटेस्ट हो रहे हैं। आप लोग फ़ालतू चीज़ें कवर करते हैं।" "मैं नहीं करता", मैं शेखी मारता हूं।
"वो तो अभी पता चल जाएगा।" सुदीप हंसते हुए कहते हैं, "पहले ये देखिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के अलावा वहां सैकड़ों हेल्थ वर्कर इकट्ठा हैं। और उधर एक और धरना रिसर्च स्कॉलर्स का..." मैं रिसर्च स्कॉलर्स को सुनने की कोशिश करता हूं।
‘ट्विंकल, ट्विंकल, लिटिल स्टार
मिस्टर जेटली, व्हेयर यू आर ..’

फिर दूसरी ओर से नारा आता है, ‘आंगनवाड़ी वालों को न्याय दिलाओ, न्याय दिलाओ, न्याय दिलाओ...’

मुझे साफ दिखता है। सरकार बदलने से कुछ नहीं बदलता। सब कुछ वहीं का वहीं है। कांग्रेस का मनरेगा से लेकर मोदी का मेक इन इंडिया सब ख़तरे में है। 'करोगे स्टोरी?' 'कल पक्का, बड़ी प्राइम टाइम के लिए'...'देखते हैं' सुदीप का शक बरकरार है।  'पक्का मीनिंगफुल स्टोरी है। कल कोई बकवास नहीं।' मैं ऐंठ के साथ कहता हूं।

अचानक फोन बजता है। मैं जेब से मोबाइल निकालता हूं। ऑफिस से कॉल है। ‘हैलो..हृदयेश,'कल आपको सैफई जाना है। मुलायम के पोते की शादी है लालू यादव की बेटी से।’ मैं सुदीप की ओर देखता हूं। मेरा दिल धक से बैठ जाता है। ‘क्यों मिल गई मीनिंगफुल स्टोरी।’ सुदीप ज़ोर से हंसते हैं।

मैं खिसियाकर आंगनवाड़ी महिलाओं की ओर देखता हूं। आगरा की वह अधेड़ उम्र की महिला मेरी ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रही है। इस घर सैफई से बहुत दूर नहीं है, मैं सोचता हूं। क्या इसे पता होगा कि मैं इसका दर्द टीवी पर बयान करने के बजाय उसी ओर जा रहा हूं। वह महिला अब भी मुझे देख रही है। उसे नहीं पता कि मुझे दो बड़े नेताओं के परिवार से टीवी पर शाही शादी के समारोह की रिपोर्टिंग का बुलावा आया है। इन गरीबों को देखते हुए मेरे कान में कैफ भोपाली का वह शेर गूंजता है- "वो अपनी बज्मेनाज़ की कीमत घटाए क्यों, हम कौन से अमीर हैं हमको बुलाए क्यों"

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