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This Article is From Dec 22, 2019

असम, पूर्वोत्तर भारत और विभाजन की अधूरी कहानी

  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 22, 2019 15:34 pm IST
    • Published On दिसंबर 22, 2019 13:12 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 22, 2019 15:34 pm IST

दुनिया के बहुत कम क़ानून इतने भव्य हैं जितना कि मैग्ना कार्टा. यह 800 साल पुराना दस्तावेज़ ही उस विचार को स्थापित करने के लिए ज़िम्मेदार है जिसे हम आज "विधि-शासन" या फिर 'रूल ऑफ लॉ' के नाम से जानते हैं. अपने मौलिक रूप मे यह दस्तावेज़ केवल एक आश्वासन ही था. जैसा कि इतिहासकार जिल लेपोर का कहना है. इस नियम से ये आश्वासन था कि राजा जब चाहे तब, केवल अपनी इच्छानुसार लोगों को कटघरे में न डाल पाएं. बहुत समय बाद ही इस आश्वासन को जनाधिकार का रूप मिला. इतने भव्य नामकरण वैसे तो विधि विधान के इतिहास में कम ही मिलते है परंतु संभवतः साधारण नाम वाले क़ानून भी एक देश के जनव्यापक विचार-विमर्श में भीषण बदलाव ला सकते हैं. जैसे कि भारत का नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019. बाहरी रूप से इसका उद्देश्य पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मे प्रताड़ित धर्मानुसार अल्पसंख्यकों को भारत मे शरण देने से सम्बंधित है. इस गिनती मे वह इन देशों से भारत आए हुये उन हिन्दुओं, बौद्धों, सिखों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को भारत में शरण देने को तैयार है जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत ग़ैरक़ानूनी रूप से आए. इन देशों के ये समुदाय भारत की नागरिकता के लिए योग्य हैं. परंतु अहमदिया जैसे मुसलमान, जो कि पाकिस्तान में उत्पीड़ित अल्पसंख्यक है या फिर श्रीलंका मे पीड़ित हिंदू तमिल शरणार्थी इस अधिनियम के अंतर्गत भारत मे शरणार्थी या भारतीय नागरिकता के योग्य नही हैं.

भले ही सत्ताधारी राजनैतिक दल के प्रतिनिधि कितना ही अपनी भेदजनक मानवता का बिगुल बजा लें, इस अधिनियम को भारतीय नागरिकता क़ानून का धर्म के नाम पर बंटवारा किए बिना नहीं देखा जा सकता. यह क़ानून 1947 की समय हुए विभाजन के आधार पर बने बॉर्डर के पार पाकिस्तान से आ रहे पाकिस्तानी नागरिको को हिंदू और मुसलमान के आधार पर बांट कर भारतीय नागरिकता को स्थापित करने की मुहिम है. इस मायने मे यह भारतीय नागरिकता क़ानून के मौलिक स्वाभाव को बदल देता है. जिस दो-राष्ट्र के विमर्श को भारत ने अपनी आज़ादी के दौरान ठुकराया था, उस ही विमर्श को यह अधिनियम अपनाता है, वही विमर्श जिस से पाकिस्तान की रचना हुई थी.

तुरंत रूप से समझें तो यह अधिनियम उन 19 लाख लोगों के लिए अपनी नागरिकता सिद्ध करने का दूसरा अवसर है जो असम में हाल में हुए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर मे दाखिल नहीं हो पाये थे. परंतु यह अवसर केवल हिन्दुओं को पूर्णतः मिलता है क्योंकि रजिस्टर में न शामिल हुए मुसलमानों के लिए एक पेचीदा किस्म की नागरिकता की व्यवस्था हो रही है और इस बदली हुई नागरिकता का क़ानून पूर्वोत्तर भारत के स्थानांतरगमन से जुड़े हुए इतिहास के सामने बहुत ही विरोधाभासिक स्थिति उत्पन्न करता है. सत्ताधारी सरकार नागरिकता संशोधन अधिनियम की छाया में ही पूरे भारत में भारतीय नागरिक रजिस्टर को लागू करना चाहती है.

नागरिकता संशोधन अधिनियम के अंतर्गत 31 दिसंबर 2014, भारत आये हुये शरणार्थियों के लिये नागरिकता प्राप्त करने के लिये कट ऑफ की तारीख है. अगर किसी को भी बांग्लादेश से भारत आये हुये हिंदुओं के आवागमन का अंदाज़ा है तो वह समझ सकेंगे कि इस अधिनियम के प्रोत्साहन से बांग्लादेश से और भी हिंदू भारत आएंगे. वर्तमान मे बांग्लादेश और इससे पहले पूर्वी पाकिस्तान मे हिन्दुओं की जनसंख्या पिछले सात दशकों मे बहुत तेज़ी से गिरी है. मुख्यतः इसलिये क्योंकि वह भारत की तरफ आ गये.  1951 में बांग्लादेश में हिंदू जनसंख्या का 22 प्रतिशत था. 1981 में 12 प्रतिशत और 2011 में 9 प्रतिशत हो गए. इसमें बहुत कम संदेह है कि भारतीय नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत और भी बांग्लादेशी हिंदू भारत आयेंगे. भले ही अधिनियम मे यह कहीं भी लिखा नही है कि बांग्लादेशी हिंदुओं को नागरिकता खुले हाथ ही मिल जायेगी पर अंतर्गमन के दुनिया भर के इतिहास से समझ में आता है कि ऐसे अधिनियमो से अंतर्गमन को उत्साह प्राप्त होता है. 

यह अकल्पनीय नही है कि इस अधिनियम के चलते बांग्लादेश मे हिंदू विरोधी अतिवादियो को बांग्लादेशी हिन्दुओं की ज़मीन और संपत्ति पर अतिक्रमण करने का मौका मिल जायेगा ताकि ज़्यादा से ज़्यादा बांग्लादेशी हिन्दुओं को बांग्लादेश छोड़कर भारत जाना पड़े. पूर्वोत्तर भारत की इस अंचल से जुड़ी हुई ऐतिहसिक समस्या और भी बदतर हो जायेगी. यह सोच पाना कठिन है कि इसके चलते पूर्वोत्तर भारत मे शांति किस प्रकार से उत्पन्न होगी.

इन दूरगामी परिणामों की अपेक्षा, इस अधिनियम का नाम बहुत ही साधारण है. राजनैतिक बाज़ारीकरण के समय में इस साधारण नामधारक अधिनियम और उससे उत्पन्न बदलाव आकस्मिक नहीं है. इसकी विशेषता ही इसमें है कि यह अपने महत्वपूर्ण असर और परिणाम, अपने साधारण नाम के पीछे अंतरराष्ट्रीय निगाह और आलोचना से छिपा लेने मे सफल हो जाता है.

विभाजन की अधूरी कहानी
नागरिकता संशोधन अधिनियम बहुत लोगों की निगाह मे 1947 मे हुये भारत के विभाजन की अधूरी कहानी का हिस्सा है. इसकी कोशिश भारत के नागरिकता क़ानूनों को विभाजन के परिणामो के विमर्श में ढालना है. जैसा कि 1984 मे विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने अपने लेख- "असम की नागरिकता का संकट "में लिखा था. वह विमर्श यह था कि जैसे भी भारत नागरिको को या गैर नागरिको को परिभाषित करे, विभाजन के बाद बनी सीमाओं से हिंदू भारत आते ही रहेंगे. जसवंत सिंह से अलग, हिंदू बाहुल्यवादी इन विषमताओं पर विचार ही नही कर सके. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लगातार यही कहा है कि कोई हिंदू भारत में विदेशी नहीं हो सकता.

इतिहासकारों ने भारत के विभाजन को सिर्फ़ एकाकी घटना के रूप मे देखने के ख़तरे को कई बार उजागर किया है. इतिहासकार ज़ोया चटर्जी के अनुसार भारत का विभाजन एक अनियमित और लंबी प्रक्रिया है. वह किसी भी मायने मे अगस्त 1947 में नहीं निपटा बल्कि यह कहा जा सकता है कि 1947 में विभाजन की प्रक्रिया शुरू हुई और वो आज भी पूरी नहीं हो पाई है. यह राजनीतिक परिणाम भारत विभाजन विशेष नहीं है. बीसवीं शताब्दी यहूदी और इजरायली इतिहास के जानकार अरी दुबनोव का मानना है की विभाजन की अधूरी कहानी इन तीनों उदाहरणीय देशों मे आज भी समाहित है जहां पर ब्रिटिश शासन ने विभाजन किया-  आयरलैंड, भारत और फिलिस्तीन.

पूर्वोत्तर भारत मे प्रतिरोध
जब-जब विभाजन की पूर्वी सीमा से लोगों के अंतर्गमन का मुद्दा उठा है, तब-तब असम और पूर्वोत्तर भारत ने उसके प्रति आपत्ति प्रस्तुत की है जो कि अंततः भारत की विचारधारा और राजनीतिक दलों से अलग है. ऐतिहसिक समझ रखने वाले किसी भी चिंतक के लिए यह आश्चर्यजनक तथ्य नहीं होना चाहिए. पूर्वी बंगाल से ब्रिटिश शासित असम की तरफ अंतर्गमन और उसका अवरोध- दोनों ही विभाजन से पहले से मौजूद हैं.

असम में औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक दोनों ही समय मे शासन द्वारा असम की ज़मीन को जन-रहित नज़रिये से देखने की खिलाफ प्रतिरोध रहा है. सीमांत जगहें खाली जगहें नहीं होती. गैर- बराबर राजनीतिक बल और विजय के बल पर कुछ लोगों की ज़मीन और जगह को सीमांत बना दिया जाता है. अपने पूर्वजों की जगह और आंचलिक इतिहास को पाने की कोशिश और राजनीतिक समुदायों की एतिहसिक उपस्थिति- दोनों ही असम और पूर्वोत्तर भारत मे पिछले पचास साल से जारी है. परंतु यहां के आंचलिक इतिहास का ज्ञान में किसी भी शासक वर्ग, अफ़सर वर्ग या सुरक्षा विशेषज्ञों की रूचि कभी भी नही रही.

औपनिवेशिक अनुभव का जन अनुभव 
ब्रिटिशकालीन समय में जिन लोगों ने असम की तरफ कूच किया, वह मुख्यतः अभिजात्य बंगाली हिंदू थे, जो सीमांत इलाक़ों मे पनप रहे अवसरो की ताक में यहां पहुंचे. चूंकि बंगाल में ब्रिटिश शासन का पुराना और लंबा इतिहास था, इसलिए बंगाली, ख़ासकर हिंदू बंगाली के पास अंग्रेज़ी भाषा सीखने के एवम् अन्य ब्रिटिश नौकरियाँ पाने के अवसर भी ज़्यादा थे. चूंकि सिल्हेट, जो अब बांग्लादेश में है, तब ब्रिटिश शासित असम का हिस्सा था इसलिए सिल्हेट वासियों के पास आँचलिक अफ़सरशाही मे शामिल होने के बहुत अवसर थे. सिल्हेट की इतिहासकार अनिन्दिता दासगुप्ता का कहना है सिल्हेट की जनता का असम की अफ़सरशाही में और साथ ही साथ वकालत एवम् शिक्षा जैसे नये अवसरो मे अत्याधिक मौजूदगी थी.

भले ही औपनिवेशिक शासन का संचालन पश्चिमी सत्ता केंद्रो से होता था, जैसा कि बर्मा की इतिहासकार मॅंडी सदन का कहना है, औपनिवेशिक शासन के कर्ता ज़्यादातर वहीं के आदमी हुआ करते थे. यह जानकारी असम और पूर्वोत्तर भारत की राजनीति को समझने के लिए बहुत ज़रूरी है. दक्षिणपूर्व एशिया के कई देशों में औपनिवेशिक शासन का रोज़मर्रा और साधारण अनुभव वहीं के आगंतुकों के हाथ में था, विदेशियों के नहीं. अगर बर्मा ब्रिटिश शासन के नुमाइंदे दक्षिण एशिया के लोग थे तो फ्रेंच इंडो-चीन, ख़ासकर के कांबोडिया और लाओस मे वियतनामी नुमाइंदे.

ब्रिटिश शासित असम मे हिंदू बंगालियो की मुख्यता के कारण असम के औपनिवेशिक अनुभव को एक प्रकार का जनसंख्या विशेष अनुभव मिला. असम और पूर्वोत्तर भारत मे अंतर्गमन की राजनीति जिसका हिस्सा नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रतिरोध भी है, वो बहुत समय से चले आ रहे प्रतिरोध का हिस्सा है. इस प्रतिरोध में सही मायने की आज़ादी की चाह है. भले ही बड़े अफ़सर और नेता बार-बार पूर्वोत्तर भारत को दक्षिण पूर्व एशिया का द्वार बताने की कवायद मे लगे रहते हैं, पूर्वोत्तर एवम् इसके पूर्वतर पड़ोसियों  के साझे इतिहास का उन्हे कतई ज्ञान नहीं है.

राष्ट्रीय बनाम आंचलिक मुद्दे
आधुनिक असम के इतिहासकार बोधीसत्व कार 1937 में नेहरू और असम के बुद्धिजीवी ज्ञाननाथ बोरा के बीच विवाद का एक हास्यापद परंतु खुलासा करने वाला एक किस्सा बताते हैं. उनके मुताबिक नेहरू बतौर कांग्रेस प्रेसीडेंट असम के दौरे पर थे और उस समय भारतीय स्वतंत्रता एवं ग़रीबी दूर करने की मुहिम कांग्रेस की मुख्य चिंता थी. नेहरू ने असम की जनता से अनुरोध किया की वह इन "राष्ट्रीय समस्याओं" को अपनी "आँचलिक समस्याओं" से उपर समझे. पर असम पहुंच कर उन्हे लगा कि वहां लोग बंगाल में हो रहे अंतर्गमन जैसी आंचलिक समस्याओं पर ज़्यादा चर्चा कर रहे थे, राष्ट्रीय समस्याओं पर नहीं, भारतीय स्वतंत्रता पर भी नहीं. जो लोग नेहरू को सुनने पहुंचे भी, उनकी समस्या सिल्हेट को अलग करना एवं लाइन व्यवस्था के अंतर्गत ऐसी जगहो को सुरक्षित करना था जहां नये लोग आकर ना बस सकें.

बोरा ने नेहरू को असम की समस्याऐं न समझ पाने पर उनकी आलोचना की. बोरा के अनुसार अगर असम की समस्याऐं केवल आंचलिक थी, प्रमुख नहीं, तो उनको प्रमुख बनाने का एक ही रास्ता था- असम को आज़ाद और स्वायत्त देश बना देना, ना कि एक प्रदेश रहने देना. जब 1980 मे ULFA का आगमन होने लगा, तब एक और बुद्धिजीवी जिनको ULFA के प्रति संवेदना थी, पराग कुमार दास, उन्होने बोरा के इस विमर्श को असम के भारत से अलगाव केंद्रीय विमर्श बनाया.

हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक ताकतों के लिए असम में विभाजन की अधूरी विरासत की बीच राजनीतिक गठबंधन तैयार करना बहुत बड़ी चुनौती रही है. पिछले कुछ चुनावों मे भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया परन्तु आंचलिक दलों के साथ साझेदारी में हमेशा मतभेद रहे हैं जहां भाजपा नेता असम से बांग्लादेशियों को बाहर करने की बात करते हैं जो उनकी परिभाषा में केवल मुसलमानो की तरफ संकेत करता है, वहीं उनके आंचलिक समर्थक 'खिलोंजिया' हितो की सुरक्षा करने का मत रखते है. असम मे खिलोंजिया का अर्थ 'मौलिक निवासी' है. 2016 के प्रदेश चुनावों में भाजपा ने अपने क्षेत्रीय समर्थको की भाषा से "खिलोंजिया" चुनकर असम मे खिलोंजिया सरकार बनाने का वादा कर डाला.

असामी भाषा के प्रयोग मे 'खिलोंजिया सरकार' प्रादेशिक सरकार से फ़र्क है क्योंकि प्रादेशिक सरकार में आप्रवासी शक्ति (पूर्वी बंगाली) का प्रभाव है. चाहे वह पूर्वी बंगाली हिंदू हो या मुस्लिम. भाजपा के परंपरागत मतदाता- बराक घाटी मे बंगाली भाषी समुदायों के लिये खिलोंजिया सरकार किसी भी प्रकार का आश्वासन नहीं है. भले ही विभाजन से उत्पन्न हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता का अधिकार देने का मुद्दा बराक घाटी में सराहनीय था, बाकी क्षेत्रों मे 'असम  समझौते' का पूर्ण रूप से सम्मान करने का आश्वासन, खिलोंजिया हितो की बात करने समान था.

पूर्वोत्तर भारत में मतभेद का प्रबंधन
नागरिकता संशोधन अधिनियम का वह अंग जो गैर मुसलमान नागरिकों के लिए नागरिकता की दावेदारी को स्पष्ट करता है, उसमें एक आश्चर्यजनक प्रावधान है कि नागरिकता पाने के नियम असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के उन आदिवासी इलाक़ो मे लागू नही होंगे जो संविधान के छठे अनुच्छेद मे शामिल हैं और उन इलाक़ो मे भी जहां 'इनर लाइन' का प्रावधान लागू है, बंगाल पूर्वी सीमांत प्रबंधन 1873 के अंतर्गत.

यह प्रावधान भले ही निंदनीय ना हो पर बहुत समझदार भी नहीं है. जिन प्रदेशों में इनर लाइन का प्रावधान लागू है, वहाँ मौलिक निवासी और आप्रवासी का भेद वहां के राजनीतिक व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. जैसे की अरुणाचल प्रदेश,मिज़ोरम और नागालैंड और कुछ हद तक अनुच्छेद छह में शामिल इलाक़ो में भी. सरकारी नौकरी और व्यवसाय, ज़मीन बेचने और खरीदने का अधिकार और चुनाव लड़ने का अधिकार, यह सारी सुविधायें केवल अनुसूचित जनजातियों के सदस्यो के लिए हैं जो वहां के मौलिक निवासी माने जाते हैं. यह प्रावधान कि नागरिकता संशोधन अधिनियम इन इलाक़ो मे लागू नहीं होगा, इसका तात्पर्य बिल्कुल भी साफ़ नही है. यह सोचना कठिन है की जो लोग इस अधिनियम के अंतर्गत नागरिकता की दावेदारी करेंगे, वो इन इलाक़ों में अनुसूचित जनजाति होने का दावा भी करेंगे.

इस प्रावधान का एक ही उद्देश्य समझ में आता है. वह यह की यह पूर्वोत्तर के उन नेताओं के लिए सफल है जो अपने मतदाताओं से ये दावा कर सके कि उन्होंने अपने आदर्शो से कोई समझौता नहीं किया है पर वास्तविकता में यह केवल अपने आप को शर्मसार होने से बचाने के लिए किये जाने वाले प्रयोग है. सरकार की अपेक्षा यह है कि अगर कुछ ऐसे नेताओ को समझा-बुझा के कुछ समय के लिए प्रतिरोध से रोका जा सके तो पूरे पूर्वोत्तर भारत मे नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रतिरोध का प्रबंधन किया जा सकता है. केवल वही इलाक़े जहां इनर लाइन के प्रावधान की सुरक्षा नही है और ना ही अनुच्छेद छह की. ख़ासकर कि असम और मणिपुर और कुछ हद तक त्रिपुरा, वहां पर नागरिकता संशोधन अधिनियम का प्रतिरोध प्रबल होगा. 

अनुच्छेद छह और 'इनर लाइन' के प्रावधानों का साफ़ तौर पर जिस प्रकार से इस अधिनियम ने फ़ायदा उठाया है, उसका असर पूर्वोत्तर की भावी राजनीति पर होगा. वैसे ही अनुच्छेद छह जो कि औपनिवेशिक काल में दुर्गम पहाड़ी इलाक़े के लिए बनाया गया था, का विस्तार पिछले कुछ सालो मे अशांति का स्त्रोत बन चुका है.  जैसे की बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट मे अनुच्छेद छ: के विस्तार के कारण बोडो समुदाय को विशेषाधिकार मिलने से गैर-बोडो समुदाय मे बहुत रोष है क्योंकि उनकी संख्या बोडो से  ज़्यादा है.  इस कारण कई बार संजाति विशेष हिंसा भड़क चुकी है. नागरिकता संशोधन अधिनियम के प्रावधानों से ये स्थिति और भी गंभीर हो सकती थी. साथ ही अनुच्छेद छ: और इनर लाइन के विस्तार की मांग और भी तीव्र हो जायेगी.  क्योंकि इस अधिनियम के पारित होने के बाद से भावी बांग्लादेशी हिंदुओं को रोकने के लिए केवल एक यही तरीका रह जाएगा. 

अनुच्छेद छह का आश्वासन: न घर का, न घाट का
इन सब प्रावधानों के अलावा, दिल्ली सरकार के पास असम में होने वाले भावी प्रतिरोध के प्रबंधन के लिए एक और पैंतरा था. असम समझौता 1985 के अनुच्छेद छह के अनुसार असम की पारंपरिक, सामाजिक और भाषाई पहचान और विरासत बनाए रखने के लिए सांविधानिक, विधेयक एवं शासकीय आश्वासन क्रियान्वित रहेंगे प्रादेशिक विधानसभा और लोकसभा में राजनीतिक आरक्षण और सांविधानिक आश्वासनों के तहत यह आशा थी कि इन कारणों से असम की जन-चेतना नागरिकता संशोधन अधिनियम के साथ होगी. असम की जनता को लालच दिया जा रहा था  अगर वो अधिनियम ( CAB) के समर्थन मे रहे तो. 

1985 में हुए असम समझौते के बाद अनुच्छेद छह  को क्रियान्वित करने के लिए लिया गया सबसे पहला कदम था गुवाहाटी में श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र की स्थापना. भले ही कला और साहित्य के क्षेत्र मे ऐसे संस्थान की स्थापना को लेकर मतभेद रहे हों, जहां तक केंद्रीय सरकार का सवाल था, वो सिर्फ़ पैसे का सवाल था. उत्तर उदारीकरण भारत मे काफ़ी सरलता से समझने वाली बात है यह. 

नागरिकता संशोधन अधिनियम को पारित करने की तैयारी मे केंद्रीय सरकार ने एक अनुच्छेद छह पर एक उच्च-स्तरीय कमेटी का गठन किया. कमेटी से अपेक्षा थी कि वह दिए हुए आश्वासनो को क्रियान्वित करेगी. पर यह परिभाषित कर पाना कि आसामी कौन है सरल बात तो नहीं है. पर उसके अभाव मे यह भी कैसे तय कर पाएँगे की आरक्षण के लिए कौन प्रमाणित है और कौन नहीं? जब असम समझौता तय हुआ था, उस समय किसी को भी शायद "असामी" शब्द कठिन या अजीब नहीं लगा होगा. पर असम विशेष की जनसांख्यिक राजनीति के सामने यह तय कर पाना ही बहुत कठिन हो चुका है. इतनी बड़ी चुनौती की आशा असम की किसी भी सरकार को नही थी. संभवत: यह उच्च-स्तरीय कमेटी भी आसामी को परिभाषित करने का बीड़ा नहीं उठायेगी और असम विधानसभा के भूतपूर्व स्पीकर प्रणब गोगोई द्वारा तैयार  की गयी रिपोर्ट के सुझाव को अपनायेगी. यह रिपोर्ट भी "मौलिक निवासी" जैसे जटिल विमर्श को किसी वर्ष से पहले आए लोगों के अंग्रेजों के रूप में परिभाषित करेगी- ज़्यादातर 1951 ही सबसे पसंदीदा वर्ष है क्योंकि इस ही साल सबसे पहला राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार हुआ था.

पर वैसे भी यह उच्च-स्तरीय कमेटी समयनुसार न मिल पायी है और न ही अपने सुझाव दे पाई है क्योंकि केंद्रीय सरकार को CAB पारित कराने की जल्दबाज़ी थी. जब असम मे CAB के पारित होने के खिलाफ क्रोधित प्रदर्शन होने लगे, तब असम मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कहा कि प्रदर्शनकारियो को CAB की जानकारी नही है. इसमें असम की पहचान का कोई हनन नही होगा. सोनोवाल के अनुसार अनुच्छेद छह के लिए गठित उच्च-स्तरीय कमेटी सारी शंकाओं का समाधान करेगी. परंतु सत्ताधारी पार्टी का राजनीतिक गुणाभाग सफल नहीं हो पाया. 

अगर हम समकालीन दुनिया मे कोई ऐसी समानता ढूढ़ें जो भारत में जन विमर्श में CAB को लेकर तीव्र बदलाव जैसी हो तो हंगरी के संसद द्वारा 2011 मे पारित मौलिक क़ानून की याद आती है. इस क़ानून ने पुराने संविधान को रद्द कर डाला. इसकी शुरुआत एक राष्ट्रीय घोषणा से शुरू होती है जिसमे वर्ष 2011 मे पारित क़ानून का श्रेय संत स्टीफ़ेन को दिए जाने की बात है जिन्होने, इस घोषणा के अनुसार हंगरी राष्ट्र को दृढ़ नींव पर बनाया और हंगरी को हज़ार साल पहले बने ईसाई-युरोप का हिस्सा बनाया. शायद नागरिकता संशोधन अधिनियम मे भी एक ऐसा ही राष्ट्रीय घोषणापत्र शामिल कर लेना चाहिए ताकि संविधान के साथ हो रही मोल-तोल के नाम पर जो नया गणतंत्र बन रहा है वो साफ़ साफ़ दिखाई पढ़ जाए.

संजीब बरुआ : आगामी किताब  In the Name of the Nation: India and its Northeast (Stanford University Press, 2020) के लेखक हैं . वह बार्ड कॉलेज, न्यू यॉर्क में राजनितिक विज्ञान के प्रोफसर हैं और India against Itself (1999) जैसी पूर्वोत्तर भारत पर कई किताबों के लेखक भी . लेखक एवं प्रकाशक की अनुमति सहित प्रस्तुत.

अनुवादक: भूमिका जोशी

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