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This Article is From May 21, 2015

संजय किशोर की कश्मीर डायरी-7: गुलमर्ग की बर्फ़ और मसर्रत आलम के कारण चढ़ता पारा

Sanjay Kishore
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 21, 2015 14:27 pm IST
    • Published On मई 21, 2015 14:20 pm IST
    • Last Updated On मई 21, 2015 14:27 pm IST
कश्मीर से लौटकर : तनमर्ग से आगे चढ़ाई शुरु होती है। लेकिन दूसरे हिल स्टेशन की तरह रास्ता ज़्यादा खतरनाक नहीं है। जाड़ों के दिनों में रास्तों पर बर्फ़ जम जाती है। तब कुछ ही गाड़ियां ऊपर जा सकती हैं। इन गाड़ियों के टायरों पर तार बांधा जाता है, ताकि वे बर्फ़ पर फिसले नहीं।

रास्ते में दोनों तरफ़ देवदार के दरख्त थे। हर जगह बर्फ़ बिखरी हुई थी। आगे एक कार सड़क से गिरकर खाई में लटकी पड़ी थी। लोग बाल-बाल बचे होंगे। नंबर प्लेट देखा तो पता चला कि हरियाणा की कार थी। जरूर दिल्ली वाले अंदाज़ में चला रहा होगा। मन ही मन सोचा। दिल्ली में हरियाणा नंबर प्लेट की गाड़ियां बड़े ही खतरनाक ढंग से चलती नज़र आती हैं। हर शहर की गाड़ियों की चाल का एक अलग मिजाज होता है। यूपी नंबर प्लेट की गाड़ियों की चाल में थोड़ा देहातीपन दिखता है। दिल्ली नंबर प्लेट की गाड़ियों की चाल में थोड़ा बिंदासपन और थोड़ा अक्खरपन होता है। बहरहाल मेरा तो मानना रहा है कि हिल स्टेशन पर लोकल टैक्सी ही लेनी चाहिए। वे वहां के रास्तों पर गाड़ी चलाने के अभ्यस्त होते हैं।

श्रीनगर से गुलमर्ग सिर्फ़ 49 किलोमीटर दूर है। हम डेढ़ घंटे में गुलमर्ग पहुंच गए। पहले गुलमर्ग का नाम माता पार्वती के नाम पर था गौरीमार्ग। 16वीं शताब्दी में सुल्तान युसूफ़ शाह ने इसका नाम बदलकर गुलमर्ग कर दिया। मुगल सम्राट जहांगीर भी यहां शिकार करने आया करता था। इस जगह को विंटर स्पोर्ट्स के लिए डेवलप करने की कोशिश की जाती रही है। भारतीय पर्यटन मंत्रालय ने 1960 में रुडी मैट को बुलाया था। 1968 में यहां स्कीइंग और माउंटेनियरिंग इंस्टी्यूट खोली गई। 1998, 2004 और 2008 में यहां विंटर नेशनल गेम हो चुके हैं।

शहर में दाखिल होते ही कुछ लोग हमारी गाड़ी पर लटक गए। आबिद ने बताया कि ये स्लेज वाले हैं। इनसे भी मोल-भाव करना। आबिद ने पहले ही कह दिया था कि नीचे बर्फ़ है तो आपको ऊपर गोंडोला जाने की ज़रूरत नहीं। एशिया के सबसे लंबे और ऊंचे रोप-वे से ऊपर गोंडोला पहुंचा जा सकता है। पहले स्टेज के लिए 300 की और दूसरे स्टेज भी जाना हो तो टिकट 800 की होती है। गोंडोला से एलओसी भी नज़र आता है।

नीचे गुलमर्ग में ही बर्फ़ थी तो गोंडोला जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। गुलमर्ग बेहद खूबसूरत था। हमारी किस्मत अच्छी थी कि वहां अप्रैल में भी चारों तरफ बर्फ़ ही बर्फ़ थी, लेकिन हैरानी की बात थी की हवा में चुभने वाली ठंढक नहीं थी। अगर हम जैकेट नहीं भी लेते तो स्वेटर से काम चल सकता था। हां, बूट ज़रूरी थे।

लोग माउंटेन बाइकिंग, स्कीइंग और स्नोबोर्डिंग का मज़ा ले रहे थे। स्लेज वाले थे कि हमारा पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे। 1,000 से रेट शुरू किया। हम आगे-आगे और वे पीछे-पीछे। बर्फ़ पर बहुत ज़्यादा फिसलन थी। बूट के बावजूद पैर बार-बार फिसल रहा था। अचानक मेरा एक पूरा पैर बर्फ़ के अंदर चला जाता है। यहां आकर पता चलता है कि आपके शरीर का वज़न आप पर कितना भारी पड़ सकता है। बड़ी मुश्किल से पैर निकाला। बूट के अंदर तक बर्फ चली गई थी।



स्कीइंग कर नहीं सकते तो क्या, कई लोग स्कीइंग का पोज मारकर फ़ोटो खींचवा रहे थे। इसके लिए भी स्कीइंग वाले पैसे ले रहे थे। कुछ लोग बर्फ़ उड़ाकर फ़ोटो खिंचवा रहे थे। टूरिस्ट स्पॉट के लोग मोबाइल से फ़ोटो खींचने में एक्सपर्ट होते हैं। इस बीच स्लेज वाले पीछा छोड़ ही नहीं रहे थे। आखिर में 1600 रुपये में बात तय हुई। उन्होंने हमें कहा कि 5 जगह दिखाएंगे। पहली जगह थी अलपत्थर लेक। फिर सेंट मैरी चर्च। यहां गाइड की कहां ज़रूरत थी।

स्लेज पर बैठना भी आसान नहीं होता। कई बार बैलेंस बिगड़ जाता है और आप गिर सकते हैं। स्लेज़ को सवारी करना अमानवीय लगता है। उम्रदराज लोग आपकी स्लेज खींच रहे होते हैं। लेकिन यही तो उनकी रोजी-रोटी है। इसके सिवाय यहां उनके लिए कोई काम भी नहीं है। स्लेज वाले बार-बार हमें गोंडोला जाने की जिद कर रहे थे। कम-से-कम 10 बार कहा होगा। बीच-बीच में वे आपस में अपनी भाषा में बात करते। बाद में उन्हें लगा कि हम किसी कीमत पर गोंडोला जाने वाले नहीं। उनकी मेहनत देखकर उन्हें कुछ बख़्शीश ज़रूर दिए। बर्फ़ देखने की पुरानी ख़्वाहिश गुलमर्ग में पूरी हो गई।

लौटते समय हमने देखा कि हरियाणा नंबर की उस कार को अब भी हटाने की कोशिश की जा रही है। इस बीच घर से भाइयों के फ़ोन आने लगे। वे जानना चाह रहे थे कि हम सही सलामत हैं कि नहीं। दरअसल उसी दिन हुर्रियत के अ‌लगाववादी नेता मसर्रत आलम को दोबारा गिरफ़्तार कर लिया गया था। उस पर पाकिस्तानी झंडा लहराने का आरोप था। टेलीवीजन चैनलों पर खबरें देखकर घरवाले परेशान हो रहे थे। मैं मन ही मन सोच रहा था कि क्या ये लोग सचमुच कश्मीर का भला चाहते हैं। कितने सारे सैलानियों ने इस खबर के बाद अपनी यात्रा रद्द कर दी होगी। मेरे जैसे दर्जनों पर्यटक जो हिम्मत कर के यहां आ जाते हैं, ऐसी ख़बरों से घबरा जाते हैं। ज्यादा परेशान दूर बैठे सैलानियों के परिवार वाले होते हैं। बहरहाल आबिद ने हमें भरोसा दिलाया।

रास्ते में जगह-जगह कपड़ों की दुकानें थी। लेकिन खरीददार नज़र नहीं आ रहे थे। आबिद ने कहा था कि वो लौटते समय हमें शॉल की शॉपिंग कराएगा। उसने एक जगह गाड़ी रोकी। हमें देखते ही दुकानवाले ने जेनरेटर स्टार्ट किया। बिजली नहीं थी। काफ़ी देखने के बाद एक शॉल पसंद आया। लेकिन कीमत बहुत ज़्यादा थी जबकि आबिद ने कहा था कि वो हमें सही जगह ले जाएगा। हमने शॉल नहीं खरीदा।

करीब 3 बजे हम वापस श्रीनगर लौटे। आबिद ने हमें एक बार फिर कहा कि हमें सुबह वाले होटल में रुकना चाहिए। लेकिन हमने पैराडाइज जाकर रूम देखने की जिद की। पैराडाइज डल झील के करीब था। हमें कमरा पसंद आया और जगह भी सुरक्षित लगी। रेट भी सीज़न से आधी थी। हमने सामान कमरे में रखा। आबिद का मुंह उतर चुका था। उसने कहा कि सुबह वाले होटल में इससे भी आधी कीमत पर रूम मिल जाता। हमने उससे लंच के लिए ड्रॉप करने को कहा। उसने हमें कृष्णा भोजनालय के पास छोड़ा। छोड़ने के बाद उसने 5-6 हजार रुपये मांगे। अभी तक के हिसाब से इतने रुपये तो बनते नहीं थे।

मेरी आंखें चौड़ी हो गईं, "6 हजार?"... "चलो फ़िलहाल हाउस बोट के पैसे दे दो।" मैंने उसे हाउस बोट के पैसे दे दिए। जिस दोस्त के मार्फ़त मैंने आबिद से बात की थी उसने कहा था कि वो ज़्यादा पैसे नहीं लेगा। श्रीनगर पहुंच कर भी जब मैंने आबिद से पूछा था तो उसने कहा कि आप अपने दोस्त से ही पूछ लेना। जो सही लगे दे देना। लेकिन अब आबिद के रवैये से चिंता शुरू हो गई थी। मेरा मानना है कि पैसे वगैरह पहले तय कर लेने चाहिए।

लंच के बाद रेस्टोरेंट के बंद होने का समय नजदीक आ रहा था। लिहाज़ा उस समय ज़्यादा बहस के लिए वक्त नहीं था। कृष्णा भोजनालय खुलने और बंद करने के समय को लेकर बहुत सख़्त है। हमारे पहुंचते-पहुंचते बंद होने में 10 मिनट बचे होंगे, लेकिन हमारा ऑडर ले लिया। तब तक वेटरों के खाने का भी समय हो गया था। उन्हें अपना मनपसंद खाना खाने की छूट थी। लेकिन ज़्यादातर वेटर राजमा-चावल खा रहे थे। राजमा चावल की लोकप्रियता मुझे कभी समझ नहीं आई। इस रेस्टोरेंट का खीर भी बहुत मशहूर है, लेकिन कुछ खास नहीं लगा। (जारी है)

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