समय बदल चुका था, कोयला क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण के साथ ही निजी खान मालिकों और पहलवानों का दौर खत्म हो चुका था. मजदूर संगठनों की राजनीति परवान चढ़ गयी थी. देश की सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की तरफ से कोयला क्षेत्र में अपने मजदूर संगठनों को उतार दिया गया था. माफिया नए रंग के साथ आए थे लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की अपनी शान होती है. बहुत कम ही सही लेकिन स्थानीय विस्थापितों को रोजगार और मुआवजे भी मिले थे. जल जंगल जमीन की बात करने वालों तक कम ही सही लेकिन सरकारी लाभ पहुंच रहे थे.
कोल माइन्स नेसनलाइजेशन एक्ट 1973 के तहत एक मई 1973 को कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया था. राष्ट्रीयकरण और कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) की स्थापना के कारण ही इस क्षेत्र के हालात में बहुत हद तक सुधार देखा गया था. अब सरकार की तरफ से कोरोना संकट की आड़ में कोयला क्षेत्र में आउटसोर्सिंग का फैसला सबसे अधिक झारखंड जैसे राज्यों पर असर करेगा. जहां देश में कोयला उत्पादन का 26.08 प्रतिशत हिस्सा पाया जाता है.
क्रमबद्ध तरीके से सरकार कोयला क्षेत्र में आउटसोर्सिंग करने में काफी दिनों से लगी थी, लेकिन कोरोना संकट ने सरकार को इसके लिए एक मौका दे दिया है. पिछले एक दशक में कोल इंडिया को लेकर सरकार की नीति क्लियर नहीं रही है. 1 अप्रैल 2011 को कोल इंडिया लिमिटेड को “महारत्न ” का दर्जा प्रदान किया गया था. जिसका अर्थ है कि वो देश के विकास के लिए अच्छा कार्य कर रही थी. फिर 9 साल में ही ऐसी क्या हालत आ गयी कि सरकार को उसके ऊपर से भरोसा उठ गया? क्या सरकार BSNL की तरह ही कोल इंडिया को भी साइड करने की तैयारी में है? क्या आर्थिक सुधार के इस नई योजना में पीएसयू को खत्म करने की योजना की तरफ कदम बढ़ाया जा रहा है? क्या लोक कल्याणकारी सामाजवादी राष्ट्र के कॉन्सेप्ट से बाहर आकर अब सरकारी व्यवस्था बस लाभ कमाने भर का एक संस्थान बन कर रह जाएगा?
निजी निवेश और आउटसोर्सिंग उस उद्योग के लिए कुछ हद तक उचित माना भी जा सकता है जिसके उत्पादन से उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को परेशानी नहीं होगी. लेकिन खनिज उत्पादन भौगोलिक क्षेत्र को खोखला करता है. आस पास रहने वाली बड़ी आबादी कई तरह की समस्याओं का सामना करती है. सरकार की तरफ से निजी कंपनियों को प्रतियोगिता के साथ कमर्शियल माइनिंग की इजाज़त देना शोषण के एक साथ कई रास्ते खोल देंगे. सरकार ने नियत समय से पहले उत्पादन करने वाली निजी कंपनियों को प्रोत्साहन देने की बात कहकर एक साथ मानव और पर्यावरण के शोषण के रास्ते खोल दिए हैं.
निजी मालिक उत्पादन को बढ़ाने के लिए काम के घंटों को असीमित कर देंगे. पर्यावरण से जुड़े मुद्दों की अपने स्तर पर व्याख्या कर दी जाएगी. एक बड़ी कंपनी अपने उत्पादन लक्ष्य को बढ़ाने के लिए कई छोटी-छोटी कंपनियों को काम का ठेका दे देगी ये छोटी कंपनी पुराने खान मालिकों के गैंग्स ऑफ वासेपुर के पात्र शाहिद खान जैसे पहलवानों की तरह होंगे, उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ उत्पादन को बढ़ाना रह जाएगा. कोरोना संकट के दौर में सिर्फ झारखंड में 6 लाख मजदूर बाहर से वापस अपने राज्य लौट रहे हैं.
सरकार का यह फैसला उन मजदूरों की मजबूरी का फायदा उठाने जैसा होगा, मजबूरी में वो मजदूर 10-12 हजार के मासिक वेतन पर काम करने के लिए मजबूर हो जाएंगे. अभी भी कोल इंडिया में उत्पादन कार्य में लगे बहुत कम ही मजदूर अपनी पूरी नौकरी पूरा कर पाते है बीच में ही वो प्रदुषण की चपैट में आकर किसी बीमारी का शिकार हो जाते हैं. सरकार के इस कदम के बाद उनके लिए मुआवजे, आवास और उनके बच्चों की शिक्षा का भविष्य अंधकारमय हो सकता है.
सत्ता में रहने वाली हर सरकार ने खनिज क्षेत्र में सिर्फ दोहन करने का प्रयास अब तक किया है. पूर्व सांसद और कोयला मजदूरों के बीच 5 दशक तक काम करने वाले स्वर्गीय एके रॉय ने अपनी किताब न्यू दलित रेवोलुशन में लिखा भी है "खनिज क्षेत्र को सरकार सिर्फ एक आंतरिक उपनिवेश की तरह से देखती है. नदी क्षेत्र की व्यवस्था समुद्र क्षेत्र की व्यवस्था के साथ मिलकर खनिज क्षेत्र का सिर्फ दोहन करती है."
उत्खनन के क्षेत्र में निजी हस्तकक्षेप का अनुभव कई राज्यों में काफी कड़वा रहा है. झारखंड में पत्थर माफियाओं ने सैकडों पहाड़ों को खत्म कर दिया है. तीव्र आर्थिक विकास की चाहत, शासक वर्ग को अपने ही राष्ट्र में शोषक की भूमिका में ला कर खड़ा कर देती है. डिजिटल इंडिया के इस दौर में आंतरिक उपनिवेशवाद के दूसरे चरण की शुरुआत हो रही है.
(सचिन झा शेखर एनडीटीवी खबर डॉट कॉम में सब एडिटर हैं)
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