अभिभावक दिवस पर दिल्ली के एक स्कूल का रियलिटी चेक...

अभिभावक दिवस पर दिल्ली के एक स्कूल का रियलिटी चेक...

राजकीय सर्वोदय विद्यालय, अली गंज, लोधी कॉलोनी, नई दिल्ली. स्कूल के मुख्य द्वार पर गेंदे के फूलों की लड़ियां लटक रही थीं. लाल और सफेद फूल की पत्तियों से फ़र्श पर वेलकम लिखा हुआ था. मां-बाप अच्छी तरह से सज संवर कर अपने बच्चों के साथ झटकते हुए चले आ रहे थे. सबको गुलाब का एक फूल दिया जा रहा था. अनजाने में मुझे भी मिल गया और कोई पहचान न ले, इसलिए तेज़ी से लेकर आगे बढ़ गया. मैं देखना चाहता था कि दिल्ली में जिस अभिभावक दिवस के प्रचार के लिए उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने रेडियो सुनना मुश्किल कर दिया है, उसका कोई लाभ भी है या नहीं. रेडियो पर तीन चार बार सुनने के बाद ही चैलेंज ले लिया कि देखकर आते हैं. तभी रास्ते में यह स्कूल दिख गया और मैंने अपना ऑपरेशन अनुभव शुरू कर दिया. हर नागरिक को ख़ासकर मिडिल क्लास को पास के सरकारी स्कूल और अस्पताल में जाकर ख़ुद अनुभव लेना चाहिए कि काम हो रहा है या नहीं. यह काम ख़ुद करना चाहिए न कि अख़बार और टीवी के भरोसे रहना चाहिए.

 
दरवाज़े से अंदर दाखिल होते ही सर्वोदय स्कूल का विशाल अहाता बेहद साफ सुथरा दिखा. कई दशक पुराने सर्वोदय स्कूल में हज़ार के करीब बच्चे पढ़ते हैं. नर्सरी से बारहवीं तक. आम दिनों में इतना साफ सुथरा शायद नहीं होता होगा, लेकिन एक दिन के लिए ही सही परिसर की सफाई ने मुझे प्रभावित किया. दीवारें बता रही थीं कि बाकी दिनों में यहां स्थिति ठीक ही रहती है. स्कूल अंदर से काफी सजा संवरा लग रहा था. थोड़ा रंगीन भी. छात्र छात्राएं वॉलेंटियर बने हुए थे. आने वाले हर अभिभावक से एक कागज़ पर नाम और फोन नंबर ले रहे थे. उनका दस्तख़त लिया जा रहा था और फिर उन्हें कक्षा के हिसाब से भेज दिया जा रहा था. माता-पिता के साथ बच्चे ऐसे दुबके हुए चले जा रहे थे, जैसे पहली बार स्कूल आए हों. जीवन में कभी बदमाशी न की हो, कभी तेज़ दौड़ न लागई हो. ख़ासकर कमज़ोर छात्र कुछ ज़्यादा ही शरीफ़ लग रहे थे. मां बाप के साथ रिज़ल्ट और वह भी टीचर के सामने! इतना ख़तरनाक कॉम्बिनेशन हो तो स्कूल से भाग जाने का ही मन करने लगे.
 
मैं पहचाने जाने को लेकर काफी सतर्क था. एक क्लासरूम के बाहर दरवाज़े की ओट में छिपकर सुनने लगा कि टीचर बच्चों के साधारण माता पिता से कैसे बात करते हैं. क्या उन्हें वह सम्मान मिलता है, जो पैसे वाले माता पिता को मिलता है. बातचीत सुन ही रहा था कि पहचान लिया गया. अब अंदर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. हिन्दी टीचर समझा रहे थे कि इस विषय में इतने नंबर आए हैं. इसमें कम आए हैं. ये मेरे विषय का नंबर है. थोड़ा प्रयास करेगा तो और भी अच्छा कर सकता है. बातचीत काफी साकारात्मक और संक्षिप्त लगी. इसमें मेरा एक सुझाव है. टीचर को यह पूछना चाहिए कि क्या वह उनके पढ़ाने से संतुष्ट है. जब वह क्लास में बोलते हैं तो बच्चा सुन-समझ पाता है. क्या उसे कविता समझ आती है या कहानी में मन लगता है. अच्छा लगा कि शिक्षक पूरे सम्मान के साथ अभिभावकों के साथ बात कर रहे थे. मां बाप भी सम्मान कर रहे थे.
 
देवेंद्र ठाकुर अली गंज में ही बाल काटने का काम करते हैं. उनका बच्चा 11वीं में पहुंच गया, लेकिन कभी उसके स्कूल नहीं आए. पहली बार फरवरी के अभिभावक दिवस पर आना हुआ. तब पता चला कि बच्चा तो पढ़ाई में कुछ ख़ास नहीं करता है. यह पूछने पर कि क्या मोहन (बेटे का नाम बदल दिया है) आपके काम में भी हिस्सा बंटाता है, तो देवेंद्र जी ने कहा कि नहीं, मैंने सिर्फ पढ़ने के लिए कहा है. इस बार देवेंद्र दूसरी बार आए हैं. इससे पहले मोहन रिज़ल्ट के बारे में कुछ बताता ही नहीं था और न उन्हें मालूम था. देवेंद्र जी को लगता था कि स्कूल जा रहा है, तो पढ़ ही रहा होगा. लेकिन अब उन्हें पता चल रहा है कि हर विषय में पढ़ाई अच्छी नहीं है.

हिन्दी शिक्षक से पर्याप्त सम्मान मिलने के बाद भी देवेंद्र साहस नहीं जुटा सके या उन्हें अभी पता नहीं है कि पढ़ाई को लेकर टीचर से क्या पूछना चाहिए, इसलिए सारा समय सुनते ही रहे. सर ही हिलाते रहे. हो सकता है यह अभियान सफल रहा तो एक दिन माता पिता यह भी कहेंगे कि सर आप जो पढ़ाते हैं, कहता है कि समझ नहीं आता, ट्यूशन दिलवा दो, तो हम कहां से ट्यूशन दिलवाएं. अपने पिता के सामने कुछ विषयों में औसत प्रदर्शन देखकर मोहन चुप ही रहा. उम्मीद करता हूं कि एक दिन अभिभावक दिवस पर छात्र भी अपने शिक्षक से कहेगा कि सर फलां विषय नहीं समझ पाता हूं. पता नहीं है कि अलजेबरा क्यों पढ़ते हैं. अलजेबरा पढ़ने से जलेबी बनती है या रोटी पकती है. ऐसे सवाल पूछने बेहद ज़रूरी हैं.
 
अब मैं बहुत से शिक्षकों से घिर चुका था. फिर भी अभिवादनों के आदान प्रदान के बाद उनसे दूर छिटक गया. मुझे अभिवावकों से बात करनी थी. बढ़िया फिटिंग वाली सफ़ारी सूट में रामफल जी मिल गए. आजकल लोग वैसे भी सफ़ारी सूट कम पहनते हैं. एक समय में उत्तर भारत के दहेज लोभी इंजीनियर और डॉक्टर दुल्हों के लिए सफ़ारी सूट सपना हुआ करता था. सफारी में रामफल जी का अंदाज़ बता रहा था कि यह उनकी मेहनत की कमाई की है. वैसे भी इस उम्र में ससुराल से बनियान भी नहीं मिलता.

रामफल जी का बेटा पहले नरेला के सरकारी स्कूल में पढ़ता था. नरेला के स्कूल से वे संतुष्ट नहीं थे. सर्वोदय स्कूल में उसका पहला साल है. रामफल जी से चलते-चलते पूछ लिया कि ये स्कीम फर्ज़ी तो नहीं है. कुछ लाभ भी है इसका? रामफल सतर्क हो गए, कहा - बिल्कुल बढ़िया है. मैं तो पहले भी शनिवार के रोज़ स्कूल जाता था, लेकिन सभी माता पिता नहीं आते थे. तब भी क्या रिज़ल्ट आया, क्या नहीं, ये बताता नहीं था. मैं तो कहता हूं कि हर तीन महीने में होना चाहिए. बढ़िया है. देवेंद्र ठाकुर ने भी कहा कि अब पता चला कि सरकारी स्कूल में भी कुछ हो सकता है. मैं तो अब नज़र रखने लगा हूं कि मोहन पढ़ रहा है या नहीं.

छात्रों ने बताया कि पहले भी हर साल स्कूल के आख़िरी कार्यदिवस पर अभिभावकों को बुलाया जाता था, मगर कुछ आते थे और कुछ नहीं. लेकिन अब सबको आना पड़ता है. अब हम अपना रिज़ल्ट छिपा नहीं पाते हैं, बताना पड़ता है. मैं कुछ आंकड़े खोज रहा था कि फरवरी के अभिभावक दिवस पर हिन्दी में कितने नंबर थे. अक्टूबर के अभिभावक दिवस के मौके उसमें सुधार हुआ या नहीं. इस तरह के सवाल पूछे जाने चाहिए, लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि आप नागरिक भी ख़ुद जाकर जांच करें कि सरकारी स्कूलों में क्या होता है. उनकी इमारत कैसी है, क्लासरूम कैसे हैं. बाहर आते समय एक छात्र ने मुझसे भी पूछ लिया कि सर बताया नहीं मेरा स्कूल कैसा है. तुम्हारा स्कूल बहुत अच्छा है. यह भी ज़रूरी है कि हम सरकारी स्कूल के छात्रों में आत्मविश्वास भरें कि सरकार का है तो भी अच्छा है. सरकार का है तो अच्छा होना ही चाहिए. मैंने तो एक स्कूल देखा, काश चार पांच स्कूलों का दौरा कर पाता.

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