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This Article is From Aug 07, 2019

सुषमा स्वराज बीजेपी की ही रहीं, कभी केंद्र में, तो कभी हाशिये पर

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 12, 2019 16:24 pm IST
    • Published On अगस्त 07, 2019 23:04 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 12, 2019 16:24 pm IST

राजनीति की दुनिया की रिश्तेदारियां लुभाती भी हैं और दुखाती भी हैं. उसकी कशिश को समझना मुश्किल है. पक्ष और विपक्ष का बंटवारा इतना गहरा होता है कि अक्सर इस तरफ के लोग उस तरफ के नेता में अपना अक्स खोजते हैं. लगता है कि वहां भी कोई उनके जैसा हो. यह कमी आप तब और महसूस करते हैं जब राजनीतिक विरोध दुश्मनी का रूप लेने के दौर में पहुंच जाए. सुषमा स्वराज को आज उस तरफ के लोग भी मिस कर रहे हैं. उनके निधन पर आ रही प्रतिक्रियाओं में यह बात अक्सर उभरकर आ रही है कि वे पुराने स्कूल की नेता थीं. नए स्कूल के साथ चलती हुई सुषमा स्वराज पुराने स्कूल वाली नेता क्यों किसी को लग रही थीं. वो अपने पीछे बहुत गहरा सवाल छोड़ गईं हैं. आखिर सुषमा स्वराज के राजनीतिक जीवन में ऐसी क्या बात थी कि उनका जाना सबको अखर रहा है. 67 साल की उम्र तो कुछ भी नहीं है. वक्ताओं से भरी बीजेपी में सुषमा स्वराज जैसी वक्ता कब श्रोता बनकर रह गईं, किसी को पता नहीं चला. राजनीति में जब तक हाशिये पर नहीं जाते, हाशिये से केंद्र में नहीं आते, आप नेता नहीं बनते हैं. सुषमा स्वराज भी अपवाद नहीं थीं. उसकी वजह थी उनकी लंबी राजनीतिक यात्रा.

नेता बना बनाया नहीं होता है, जो नेता होता है वो रोज़ बनता है. अलग-अलग चुनौतियों और सवालों के बीच बनता-बिगड़ता रहता है. आप कल्पना कीजिए सुषमा स्वराज 25 साल की उम्र से राजनीति में थीं. इसी उम्र में हरियाणा में कैबिनेट मंत्री बन गईं थीं. 42 साल के राजनीतिक जीवन में सुषमा स्वराज किन-किन ज़िलों में गई होंगी, गांवों में गईं होंगी, मोहल्लों मे गईं होंगी, वहां जिन्होंने उन्हें सुना होगा, वो आज सुषमा को कैसे याद करते होंगे, हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते. वो अनगिनत लोगों का प्यार समेटकर इस दुनिया से गईं हैं. यह बात सिर्फ सुषमा स्वराज के बारे में नहीं बल्कि हर उस नेता के बारे में है जो लंबे राजनीतिक जीवन में देश को इस छोर से उस छोर तक नापता रहता है. क्यों आज ट्विटर और फेसबुक पर लोग सुषमा स्वराज को मिस कर रहे थे. बहुत कम नेता होते हैं जो दूसरे दल के नेताओं को अपने जैसा नज़र आते हैं. बहुत कम नेता होते हैं जो अपने दल में रहते हुए दूसरे दल का नज़र आते हैं. सुषमा स्वराज हमेशा बीजेपी की होकर रहीं मगर लगीं सबको अपनी. यही राजनीति की असली कमाई होती है. इसलिए विरोधियों को लगता है कि सुषमा स्वराज उनके घर से भी गईं हैं. जिस सियासी चौखट से उनकी अंतिम विदाई हुई है वहां भी सुषमा स्वराज ने अपना-पराया का दर्द झेला होगा. बग़ैर इसके कोई सियासय में सफर पूरा नहीं करता है. कोई उनसे किनारे गया होगा किसी से वो किनारा कर गईं होंगी. लेकिन जब आप नेता होते हैं तो आपके लिए सब आते हैं. आपके विरोधी, आपके प्रतिद्वंदी. सुषमा स्वराज के लिए सब आ रहे थे.

वे 42 साल की सियासी स्मृतियां छोड़ गईं हैं. सुषमा स्वराज का भाषण सबको याद है. लेकिन ऐसा क्यों है कि सारे अच्छे भाषणों की याद 2014 के पहले की है, उसके बाद की नहीं है. क्या 2014 के बाद की सुषमा और 2014 के पहले की सुषमा में कोई अंतर था. विदेश मंत्री के तौर पर बेशक उन्होंने संसद में कुछ मौकों पर भाषण दिए लेकिन विदेश नीति की पहचान उनके नाम से कम हुई, शायद नहीं हुई. आदतन वो अकेला इंटरव्यू देने में यकीन नहीं करती थीं. बहुत कम उदाहरण मिलेंगे. प्रेस कांफ्रेंस करती थीं. 2013 तक वो मंच पर आगे-आगे रहती थीं, उन्हें प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर भी देखा गया मगर 2014 के बाद उन्होंने कभी मंच की अगली पंक्ति को क्रास नहीं किया. न ही ऐसा कुछ कहा जिससे अगली पंक्ति के नेता उलझन में फंसते. सुषमा हमेशा बीजेपी की रहीं. उन्होंने एक ऐसा मौका नहीं दिया जिससे कोई प्रधानमंत्री और उनके बीच की दूरी पर बहस कर सके. जब भी ऐसा लगा सुषमा स्वराज ने ट्वीट पर प्रधानमंत्री को किसी बात का श्रेय दे दिया. वे नेता थीं इसलिए अपने नेता को भी नेता समझती रहीं. कोई ऐतराज़ हो सकता है मगर कभी सार्वजनिक नहीं किया.

इस बार शपथ ग्रहण समारोह में उनका आना और वहां से चुपचाप नेपथ्य में चले जाना किसी ने नोटिस में नहीं लिया. सांसद का चुनाव नहीं लड़ा. विदिशा छोड़ वैदेही हो गईं. विदेश मंत्री का बंगला छोड़ तीन कमरे के फ्लैट में आ गईं. पांच साल विदेश मंत्री रहकर गईं मगर जब मंत्रालय छोड़ा तो शायद ही कहीं उनकी नीतियों और उपलब्धियों पर चर्चा हुई, कोई गंभीर लेख दिखा. सुषमा स्वराज खेमे में बंटे पत्रकारों से भी ख़ुद को बचाती रहीं और पत्रकार भी 2014 के बाद उनकी महानता और उपलब्धियों पर बात करने से बचते रहे. सुषमा का अकेलापन उनके साथ ही चला गया. मंगलवार दोपहर उनसे पत्रकार अनिता सलूजा मिली थीं. अनिता से सुषमा ने कहा कि वे दिल्ली छोड़कर नहीं जाना चाहतीं. अपनी बेटी बांसुरी स्वराज के करीब रहना चाहती है. बांसुरी को देखे बिना चैन नहीं आता है. अनिता ने लिखा है कि 7 अगस्त को उनका चेहरा चमक रहा था. पूरी बातचीत में एक बार भी पार्टी की शिकायत नहीं की. यही कहा कि सब चलता है. उतार चढ़ाव होते रहता है. उसके दो दिन पहले पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी को मिली थीं, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में. जब अमित शाह ने राज्यसभा में जम्मू कश्मीर पुनर्गठन बिल पेश किया तब उन्होंने ट्वीट किया था कि प्रधानमंत्री जी आपका हार्दिक अभिनंदन. मैं अपने जीवन में इस दिन को देखने की प्रतीक्षा कर रही थी.

राजनीति में एक महिला का स्वतंत्र वजूद बनाए रखना आसान नहीं होता है. छवियों के हिसाब से देखें तो सुषमा हमेशा ही आदर्श भारतीय नारी की तरह नज़र आईं. उन्होंने भारतीयता को हमेशा परंपराओं से परिभाषित किया जो आरएसएस की कल्पनाओं के करीब था, आईं थीं जबकि समाजवादी धारा से. सुषमा स्वराज साड़ी के ऊपर जैकेट पहना करती थीं, यह उनका सिग्नेचर था. ज़ाहिर है सिर्फ हम और आप तय नहीं करते कि नेता को कैसे देखेंगे, नेता भी तय करते हैं कि उन्हें कैसे देखा जाए. सुषमा स्वराज की साड़ी का रंग देखकर बताया जा सकता था कि आज दिन कौन सा है या दिन देखकर बताया जा सकता था कि सुषमा जी किस साड़ी में नज़र आएंगी. अक्सर सोमवार को सफेद या दूधिया रंग की साड़ी पहनती थीं. मंगलवार को लाल गुलाबी या संतरी  मंगलवार को निधन हुआ उस दिन भी गुलाबी साड़ी पहने थीं. बुधवार को हरे रंग की साड़ी पहनती थीं. 2015 में जब पाकिस्तान गईं थीं तो आलोचना हुई थी कि उन्होंने नवाज़ शरीफ के साथ गहरे हरे रंग की साड़ी क्यों पहनी थी तब सुषमा ने कहा था कि हरे रंग की साड़ी इसलिए पहनी थी क्योंकि उस दिन बुधवार था. गुरुवार को पीली साड़ी पहना करती थीं इसलिए जब कुलभूषण यादव का परिवार उनसे मिलने आया तो इस तस्वीर में वे पीली साड़ी में दिख रही हैं. शुक्रवार को ग्रे रंग के शेड्स की साड़ी पहना करती थीं. शनिवार को काली साड़ी पहना करती थीं, रविवार को जो रंग पसंद आ जाए, उस रंग की साड़ी पहनती थीं. अनिता सलूजा ने यह सब लिखा है. एक नेता अपनी शख्सियत को लेकर कितनी तैयारी करता है. कितना सतर्क होता है. नेता हवा में नहीं बनता है, हवाओं से टकराकर बनता है. 1996 में लोकसभा में दिया उनका भाषण आज दिन भर टीवी पर गूंजता रहा. सुषमा जब बोलती थीं तो उनकी बात पहुंचती थी.

सुषमा स्वराज को ट्विटर पर उनकी सक्रियता के कारण भी याद किया जा रहा था. जहांगीर का घंटा था उनका ट्विटर हैंडल. जिसे जब परेशानी हुई,विदेश मंत्री को पुकारने लगा. ट्विटर पर सबसे अधिक फॉलो की जाने वाली दुनिया की अकेली नेता थीं. मगर सुषमा स्वराज किसी को फॉलो नहीं करती थीं. आप उनके ट्विटर हैंडल पर जाकर देख सकते हैं, वहां ज़ीरो दिखेगा. न पार्टी अध्यक्ष को फॉलो किया न ही प्रधानमंत्री को. वैसे प्रधानमंत्री 2200 लोगों को फॉलो करते हैं. आप इसे विरोध के चश्मे से देख सकते हैं लेकिन ऐसे भी देखिए कि नेता कितने स्वायत्त इकाई होते हैं. सबके साथ होते हुए भी अलग और अकेला दिखने का जूनून होता है. कई बार वे अकेले होते भी हैं. एक ही मार्च में नेता सबके साथ चलता है उसी मार्च में वह अकेला भी चलता है.

किसी ने ट्वीट किया कि पासपोर्ट चोरी हो गया है, क्या करें, विदेश मंत्री आ जाती थीं कि दूतावास को बता दिया है, वे मदद करेंगे. किसी के माता-पिता टर्की में फंस गए थे, उनके कागज़ात खो गए थे. विदेश मंत्री ने ट्वीट कर जवाब दिया कि काम हो गया है आज रात लौट आएगा. वे विदेश मंत्री सिर्फ राजनयिक संबंधों के लिए नहीं थीं, बल्कि विदेश गए भारतीयों की भी विदेश मंत्री थीं. उनकी दिक्कतों के वक्त वे गृहमंत्री की तरह काम करने लगती थीं.एक ने ट्विट किया था कि मेरा भाई जार्जिया में पचास दिनों से आईसीयू में है, भारत लाना चाहते हैं, आपकी मदद चाहिए. तो सुषमा स्वराज मदद करती हैं. इसलिए शायद सुषमा स्वराज को आज मिस किया जा रहा है. यमन में फंसे भारतीय और 26 देशों के नागरिकों को वहां से निकालने में उन्होंने भूमिका निभाई थी. इराक में फंसे 140 भारतीयों को लेकर वो सवालों से टकराती रहीं. मगर उन्होंने अपना प्रयास नही छोड़ा. बगैर सबूत के मृत घोषित करने से इनकार करती रहीं और उनका पता लगाती रहीं.

सुषमा स्वराज को नए स्कूल और पुराने स्कूल के खांचे में बांटकर देखा जा रहा है. क्या बांटने वाले अपनी सुविधा से इस विभाजन का इस्तेमाल कर रहे हैं या सुषमा वाकई नए स्कूल में अजनबी हो गई थीं. पिछले साल जून में जब तन्वी सेठ नाम की महिला ने शिकायत की कि लखनऊ में पासपोर्ट अधिकारी ने उनका आवेदन मंज़ूर नहीं किया क्योंकि उसने एक मुस्लिम से शादी की थी तब सुषमा स्वराज ने उस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कह दी. एक दिन बाद तन्वी का पासपोर्ट बन गया था.  

बस ट्विटर पर आईटी सेल की मानसिकता वाले विदेश मंत्री के पीछे पड़ गए. उनके बारे में अभद्र भाषा का इस्तेमाल होने लगा. कहा जाने लगा कि सुषमा स्वराज सेकुलर बनने की कोशिश कर रही हैं. मुस्लिम तुष्टिकरण कर रही हैं. उनकी किडनी का मज़ाक उड़ाया गया. सुषमा स्वराज भी भिड़ गईं और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वाले ट्विटर हैंडल को लाइक करने लगीं और ट्विटर पर वोटिंग लांच कर दिया कि क्या इस तरह की भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए. ट्विटर पर सभी सुषमा स्वराज के साथ खड़े हो गए लेकिन जब महिला पत्रकार आए दिन ट्रोल होते रहीं, तब सुषमा स्वराज के तेवर की कमी खली. यह सुषमा की सीमा थी, नेता बगैर सीमाओं के नेता नहीं होता है.

शायद ही कोई ऐसा मिलेगा जो सुषमा स्वराज के बारे में तल्ख बातें करता हो. न बीजेपी में और न ही बीजेपी के बाहर. लेकिन एक नेता का मूल्यांकन सिर्फ उसकी खूबियों से नहीं होना चाहिए. उसकी कमियों और सीमाओं से भी होना चाहिए. जो अच्छा नेता होता है वो यह देखता है कि कोई उसकी सीमाओं को ठीक ठीक पकड़ पाता है या नहीं. भले ही वो आपसे इनकार करेगा लेकिन मन ही मन मुस्कुराता भी है कि किसी ने उसे पकड़ लिया. हरियाणा में कैबिनेट मंत्री बनीं तो दिल्ली की मुख्यमंत्री. बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के कारण विवाद में आईं तो सोनिया गांधी को चुनौती देने बेल्लारी पहुंच गईं. कह दिया कि सोनिया अगर प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सर मुंडा लेंगी. सुषमा स्वराज प्याज़ के कारण दिल्ली का चुनाव हार गईं लेकिन इसके बाद भी उनकी धाक ऐसी रही कि जब किडनी बदलने का वक्त आया तो कई लोग अपनी तरफ से पेशकश करने लगे. ललित मोदी के भागने के समय भी उनका नाम विवादों में आया. दिल्ली में हरियाली तीज के वक्त झूला झूलते हुए सुषमा स्वराज की तस्वीर अगले दिन अखबारों में छपा करती थी.

करवा चौथ करती हुईं सुषमा किसे याद नहीं. स्वराज कौशल से उनकी शादी के भी दिलचस्प किस्से हैं. अलग विचारधारा के बाद भी दोनों ने शादी की, वो भी आपातकाल में. घर वाले शादी से खुश नहीं थे. वो नेता अच्छी थीं, ढेर सारी स्मृतियां छोड़ गईं हैं और यह सवाल भी कि सुषमा स्वराज में सारी प्रतिभा थी मगर वो प्रधानमंत्री नहीं बन सकीं, लेकिन क्या किसी नेता की उपलब्धियों की सूची का यही आखिरी अफसोस है. मेरी राय में उसे और सवालों के साये में देखा जाना चाहिए. 42 साल का राजनीतिक जीवन रहा है, मैंने जो बताया वो उसका एक अंश भी नहीं है. न नेता बनना आसान है और न ही नेता को जानना आसान. सुषमा स्वराज याद आती रहेंगी, उनकी बेटी बांसुरी ने मुखाग्नि दी.

इस बीच जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन और अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने के भारत के फ़ैसले के जवाब में पाकिस्तान ने आज कई इकतरफ़ा फ़ैसले लिए हैं. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की अध्यक्षता में हुई नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल की बैठक में भारत से राजनयिक संबंधों का स्तर घटाने का फ़ैसला लिया गया. इसके तहत पाकिस्तान भारत में अपने उच्चायुक्त को वापस बुला रहा है और उसने पाकिस्तान में भारतीय उच्चायुक्त को वापस भेजने का फ़ैसला किया है.  द्विपक्षीय व्यापार को भी रोकने का फ़ैसला किया गया है. पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर भारत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपील करेगा.

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