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This Article is From Dec 18, 2014

रवीश कुमार की कलम से : 'ग' से गतिरोध, 'व' से विरोध, 'ब' से बतकुच्चन

Ravish Kumar, Vivek Rastogi
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  • Updated:
    दिसंबर 18, 2014 18:37 pm IST
    • Published On दिसंबर 18, 2014 12:21 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 18, 2014 18:37 pm IST

एक सदन चल रहा है और दूसरा नहीं, यह संख्या का अहंकार नहीं है तो क्या है। राज्यसभा में सदन के नेता के रूप में अरुण जेटली के इस जवाब में सीताराम येचुरी का जवाब आता है कि यह सदन नहीं चल रहा है और वह सदन चल रहा है, सिर्फ इस वजह से कि वहां बहुमत का आतंक है। आज सुबह राज्यसभा में दी गई इन दोनों दलीलों को बार-बार पढ़िए। संसदीय राजनीति या रणनीति के लिहाज़ से ब्रह्मास्त्र-से लगने के बाद भी ये दोनों ही वाक्य खोखले लगते हैं। ये खाली बर्तन में बजते ज़्यादा हैं, इनका मतलब कुछ खास नहीं है। दोनों ही वाक्य सदन को चलने देने का रास्ता नहीं सुझाते हैं, बल्कि अपने-अपने अहंकार को नीतिगत आवरण देते हैं। हकीकत यह है कि लोकसभा में भी विपक्ष के पास इतनी संख्या तो है ही कि वह चाहे तो सदन की कार्यवाही में बाधा डाल दे और राज्यसभा में सरकार के पास इतनी समझदारी तो है कि चाहे तो 30 सेकंड के एक बयान से सारा मामला निपटा दे। विरोध के नाम पर जो गतिरोध पैदा हो रहा है, वह बतकुच्चन से ज्यादा नहीं है।

सदन को न चलने देने में कांग्रेस और बीजेपी का बर्ताव इतना एक जैसा है कि आप तराजू लेकर तोलते रह जाएं, फिर भी दोनों को अलग-अलग पलड़ों पर नहीं रख पाएंगे। कांग्रेस, बीजेपी ही क्यों, तमाम दलों का बर्ताव एक जैसा है। नहीं चलने देना है, तो नहीं देना है। 15वीं लोकसभा के दौरान बीजेपी ने सत्र के सत्र का बहिष्कार किया था। वह जो दलील तब देती थी, अब कांग्रेस या विपक्ष की हो गई है और सरकार तब की कांग्रेस सरकार की तरह बात करने लगी है। देश का काम तब भी रुक रहा था, और देश का काम अब भी ठप हो रहा है। इस मामले में बीजेपी भी नैतिक रूप से उतनी ही कमज़ोर है, जितनी कांग्रेस। 15वीं लोकसभा का ऐतिहासिक रूप से खराब रिकार्ड सिर्फ कांग्रेस की नाकामी नहीं है, बल्कि बीजेपी की भी है। ये दोनों बड़े दल तब भी थे, और आज भी हैं। संख्या भले ही इधर से उधर हो गई है, लेकिन इन दोनों ने सदन को चलने देने में अपने-अपने वक्त पर कोई अनुकरणीय उदारहण पेश नहीं किया।

इसलिए हंगामे की राजनीति कर रही कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों को बीजेपी का नैतिक उपदेश उतना ही खोखला लगता है, जितना कांग्रेस का यह उपदेश कि सदन चलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की है। राज्यसभा में कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी दल भी एकजुट हैं। क्या धर्मांतरण और धार्मिक आज़ादी पर होने वाले हमले के बयानों पर प्रधानमंत्री का जवाब इतना गैरमामूली है कि वह इतने दिनों तक विपक्षी सदस्यों की मांग को अनदेखा कर रहे हैं। कांग्रेस के ज़माने से संसदीय राजनीति में ऐसी सामंती परंपरा बन गई है कि प्रधानमंत्री हमेशा नहीं बोलेंगे। इसकी क्या तुक है। सरकार जब सदन के प्रति जिम्मेदार होती है और प्रधानमंत्री सदन के बाहर बोलते ही हैं, निरंतर संवाद की मुद्रा में रहते ही हैं, तो सदन के भीतर रोज़ एक बयान देने में क्या जाता है। क्या सरकार अहंकार की नीति पर नहीं चल रही है। क्या इस मसले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी धर्मांतरण या धार्मिक कुंठाओं को ज़ाहिर करने वाले नेताओं या संगठनों का हौसला नहीं बढ़ाती है। जब प्रधानमंत्री अपने सांसदों से कह ही रहे हैं कि हम सिर्फ विकास के एजेंडे पर जीतकर आए हैं तो इस बात को वह सदन में भी कह सकते थे। शरद यादव बार-बार कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है कि इस मसले पर नहीं बोलेंगे।

क्या विपक्ष ने प्रधानमंत्री के बयान को प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बना लिया है। ज़ाहिर है, विपक्ष की दलीलों में भी कमज़ोरियां हैं। कायदे से यह मामला गृह मंत्रालय के तहत आता है, इसलिए गृहमंत्री राजनाथ सिंह का बयान पर्याप्त माना जाना चाहिए, लेकिन विपक्ष का कहना है कि धर्मांतरण के बहाने देश में धार्मिक कटुता का माहौल पैदा किया जा रहा है और इस मामले में स्पष्टता सरकार के सबसे बड़े नेता प्रधानमंत्री के बयान से ही आएगी। प्रधानमंत्री बाहर जितना कह लें, लेकिन सदन के भीतर का बयान ही ज्यादा औपचारिक और नीतिगत माना जाएगा। क्या विपक्ष को चर्चा हो जाने तक प्रधानमंत्री के बयान की मांग से परहेज़ नहीं करना चाहिए। सत्यव्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि हमें बस आश्वासन चाहिए कि चर्चा के बाद प्रधानमंत्री बोलेंगे तो इस पर भी सरकार चुप है। अगर सरकार अभी चर्चा की मांग पर कोई आश्वासन नहीं दे रही है, तो इसका क्या भरोसा कि बहस के बाद प्रधानमंत्री जवाब ही देंगे, और अगर देंगे, तो पहले कहने में क्या हर्ज है। बीजेपी विपक्ष पर आरोप लगा रही है कि कई बिल अटके पड़े हैं। सत्यव्रत चतुर्वेदी कह रहे हैं कि हमने पांच बिल पास कराने में मदद की है। बीमा बिल में सरकार के साथ सहयोग ही किया है।

बीजेपी कांग्रेस के ज़माने में प्रधानमंत्री की चुप्पी के मुद्दे पर भी जीतकर आई है। जब इनका नेता बोलता है तो सदन में बोलने में क्या परेशानी है। क्या वह बयान देकर विपक्ष को निहत्था नहीं कर सकते हैं। ठीक है कि प्रधानमंत्री अपने स्तर पर जनता से निरंतर संवाद करते रहते हैं, लेकिन यही प्रक्रिया सदन के भीतर हो तो क्या हमें मनमोहन दशक से कुछ अलग और नया नहीं दिखेगा कि मौजूदा प्रदानमंत्री सिर्फ विपक्ष की मांग पर ही नहीं, खुद से भी कई मुद्दों पर बोलते हैं, नई परिपाटी बना रहे हैं। सत्ता और विपक्ष के बीच अहं की इस लड़ाई का फैसला सही गलत के पैमाने पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों ही गलत हैं। इस मामले में नई लकीर खींचने का मौका अगर किसी के पास है, तो वह सरकार है और सरकार के मुखिया को बयान देकर यह लकीर खींच देनी चाहिए। यह भी कहना चाहिए कि जितनी बार विपक्ष पूछेगा, अगर मैं सदन में रहूंगा तो मैं ही जवाब दूंगा। इसमें अहंकार की क्या बात है। प्रधानमंत्री की गरिमा बढ़ेगी या कम होगी। मेरी राय में तो बढ़ेगी।

विपक्ष में रहते हुए बीजेपी भी यही किया करती थी। कांग्रेस और बीजेपी खूब मैच खेलते थे। बीजेपी कहती थी कि चर्चा करो, लेकिन इस नियम के तहत करो। यूपीए सरकार कहती थी कि चर्चा करेंगे, लेकिन उस नियम के तहत नहीं, इस नियम में करेंगे। नतीजा, हफ्तों सदन नहीं चलता था। नुकसान किसका हुआ। कांग्रेस, बीजेपी या देश का। ज़ीरो ऑवर के चलने में राज्यसभा और लोकसभा दोनों का रिकार्ड खराब है। यह इसलिए भी हो रहा है कि हमने राजनीति को दलों में समेट दिया है। हम कभी संसदीय राजनीति को कांग्रेस, बीजेपी के खांचे से बाहर नहीं देख पाते हैं। चुनाव के दौरान हमारा ज़ोर सरकार पर इतना होता है कि हम भूल जाते हैं कि चुनाव आयोग सरकार के लिए लोकसभा के गठन के लिए चुनाव कराता है। एक अच्छा सांसद चुनने के लिए कराता है, लेकिन राजनीतिक दल चालाकी से इसे एक नेता या एक दल की सरकार के अभियान में बदल देते हैं।

वक्त आ गया है कि हम संसदीय राजनीति और चुनावी राजनीति के फर्क को समझें। हम संसदीय दांव-पेंचों को भी नए सिरे से परिभाषित करें। विपक्ष का हंगामा अगर हंगामा है तो सरकार का न सुनना क्या है। फिर संवाद कहां है। इस दांव-पेंच से इस वक्त चुनावी संभावनाएं तो प्रभावित नहीं हो रही हैं, बल्कि जनता को तमाम मुद्दों पर विस्तार से बहस सुनने के मौके से वंचित होना पड़ रहा है। यह लोकतंत्र का बड़ा नुकसान है कि हम भी एक आसान राय बना लेते हैं। यह सही या वह गलत की राय। हम किसी विधेयक की बारीकियों और अपने जीवन पर पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों को लेकर कभी बहस नहीं करते। हम सबको साफ-साफ या आर-पार चाहिए। शायद इसी का नतीजा है राज्यसभा में गतिरोध।

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