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This Article is From Jan 24, 2020

पश्चिमी मीडिया के कवर पर क्यों बदली मोदी और भारत की छवि?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 24, 2020 23:54 pm IST
    • Published On जनवरी 24, 2020 23:54 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 24, 2020 23:54 pm IST

इंटरनेट के ज़माने की राजनीति से अच्छी तो बैलगाड़ी के ज़माने की राजनीति थी. झूठ की रफ्तार भी कम थी और नेताओं की अर्थहीन बातें सेकेंड-सेकेंड आपके इनबाक्स में नहीं पहुंचती थीं. भारत का नौजवान सुबह आंख खोलता है कि आज उसकी नौकरी और कस्बे के घटिया कालेजों पर बात होगी लेकिन बातचीत का सारा समय हलवा बनाम पोहा में चला जाता है. प्रधानमंत्री मोदी ने कपड़े से पहचानने की भाषा स्थापित की तो उनकी पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय खाने से पहचानने का आइडिया ले आए हैं. विजयवर्गीय ने कहा है कि उनके घर में एक नया कमरा बन रहा है. जिसमें काम कर रहे छह-सात मज़दूरों के खाने का तरीका बहुत अजीब है. वे पोहा खा रहे हैं. पोहा खाते देख शक होता है और पता करने लगते हैं कि कहीं बांग्लादेशी तो नहीं है.

इंदौर में हर दिन दो से तीन टन पोहा की खपत होती है. यहां के लोगों का पसंदीदा नाश्ता पोहा ही है. शौक का नाश्ता तो है ही, गरीबों का भी खाना है. 20 रुपये में पेट भरने लायक पोहा मिल जाता है. यह भी हो सकता है कि वे मज़दूर अपनी गरीबी छिपाने के लिए भोजन में भी पोहा से पेट भरते हों. जिस देख कर कैलाश विजयवर्गीय को लगता है कि बांग्लादेशी तो नहीं. अप्रैल 2019 में इंडिया टुडे आज तक को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे खिचड़ी और पोहे के बिना नहीं रह सकते. उन्हें बनाना भी पसंद है. 2014 में रेडिफ डाट काम के लिए शीला भट्ट ने इंटरव्यू किया था. उसके बारे में लिखा है कि अमित शाह उस वक्त नाश्ते में पोहा खा रहे थे. मेरी सलाह है कि जब प्रधानंमत्री और गृहमंत्री नाश्ते में पोहा खा रहे हों तब कैलाश विजयवर्गीय को न बुलाएं वरना कैलाश जी को अजीब लगेगा और वे कुछ भी शक कर सकते हैं. 2018 की ब्रिटेन की यात्रा के दौरान उनके मेन्यू में पोहा भी था. पोहा ही नहीं अब तो दोहा पर भी संकट है. कौन कौन सा दोहा गा रहा है और कौन कितना पोहा खा रहा है इससे तय हो रहा है पाकिस्तानी है या बांग्लादेशी.

पहले विरोधियों को पाकिस्तानी बताने का खेल चला, अब गरीबों को बांग्लादेशी बताने का खेल शुरू हुआ है. बेंगलुरु में बांग्लादेशी का झूठ फैला कर अपने ही देश के गरीब लोगों की झुग्गी उजाड़ दी गई. जबकि ज्यादातर लोग कर्नाटक के ही गरीब लोग थे. यह वही हिन्दू मुस्लिम टापिक है, जिसका नेशनल सिलेबस अभी भी खत्म नहीं हो रहा है. इस सिलेबस ने दुनिया भर में भारत की छवि खराब करनी शुरू कर दी है. छह साल से चल रहा यह दुनिया का सबसे लंबा कोर्स है. यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं के कवर बदलने लगे हैं. 177 साल पुरानी इकॉनामिस्ट पत्रिका ने लोकतंत्र का एक सूचकांक बनाया है. इस सूचकांक पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 51 वें नंबर पर खड़ा है. एक साल में 10 अंक नीचे आ गया है.

इकॉनामिस्ट के कवर की चर्चा हो रही है. टाइम के कवर पर डिवाइडर इन चीफ के बाद इकॉनामिस्ट में प्रधानमंत्री मोदी के भारत को कंटीली तारों के ऊपर खिले कमल से पेश किया है. इनटालरेंट इंडिया लिखा है. कवर स्टोरी में लिखा है कि प्रधानमंत्री मोदी को लगता है कि भारत के मतदाता का एक हिस्सा उनकी इस बात से सहमत है कि जो मुसलमान हैं वो गद्दार हैं. मोदी इसी आधार पर मतदाताओं का निर्माण कर रहे हैं. आज़ादी से लेकर अब तक भारत ने हमेशा से लोकतंत्र के खतरों की बात को गलत साबित किया है. लेकिन जिस तरह से सोच समझ कर इसके सेकुलर ढांचे पर हमला हो रहा है वो पूरे राजनीतिक तंत्र को खतरे में डाल देने वाला है. वोटर को याद रखना चाहिए कि बीजेपी ने ऐसे प्रयोग किए हैं जिससे बाकी माइनारिटी को नुकसान पहुंचा है, चाहे वो अनुसूचित जाति के हों या गैर हिन्दी भाषी हों. प्रधानमंत्री मोदी गांधी की अहिंसा की छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं. 23 मई 2015 के इकॉनामिस्ट कवर पर पिछली बार जब प्रधानमंत्री छपे थे तो एक अकेला इस शहर में जैसा मुखड़ा मिला था. जैसे कोई मसीहा आया हो वो सब ठीक करने वाला है. अब उसी मसीहा के भारत की बात पत्रिका के कवर पर कंटीली तार के ज़रिए हो रही है.

क्या कश्मीर की नीति और नागरिकता संशोधन कानून ने भारत के लोकतंत्र की छवि को धक्का पहुंचाया है? आखिर ऐसा क्यों हुआ कि जिन पत्रिकाओं के कवर प्रधानमंत्री 2014 में संभावना पुरुष के रूप में छप रहे थे उन्हीं पत्रिकाओं के कवर पर बंटावार प्रमुख के रूप में छपने लगे हैं. इकॉनामिस्ट में अक्टूबर के अंक में छपा था कि नरेंद्र मोदी भारत की अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं. अमेरिका ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों के अखबारों में भी भारत के लोकतंत्र के बचे रहने को लेकर सवाल उठने लगे हैं. सरकार भले ही इन मीडिया को विदेशी समझ कर नज़रअंदाज़ कर रही हो, ज्यादातर मंत्री चुप हों लेकिन विदेशी मीडिया के बदलते सुर को सिर्फ अनसुना कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता.

अभी तक यही कहा जाता था कि आलोचना से प्रधानमंत्री को फायदा होता है लेकिन ये वो आलोचनाएं हैं जिससे भारत की छवि को नुकसान हो रहा है. भारत के लोकतंत्र की छवि दांव पर लगी है. विदेशों में भारत के नाम को उपलब्धि के रूप में पेश करने वाली सरकार और उसके समर्थक इन आलोचनाओं को आसानी से खारिज कर रहे हैं. बीजेपी के विदेश मामलों के प्रभारी विजय चौथाई वाले ने ट्वीट किया है कि - हमने सोचा था कि अंग्रेज 1947 में चले गए मगर इकॉनामिस्ट के संपादक आज भी औपनिवेशिक दौर में रह रहे हैं. उन्हें गुस्सा है कि 60 करोड़ उनकी बात क्यों नहीं मान रहे हैं कि वे मोदी को वोट न दें. पत्रिका इतनी घमंडी है कि सुप्रीम कोर्ट को भी राय के नाम पर धमकी दे रहे हैं. इनके हिसाब से कथित तौर पर अवैध प्रवासियों को निशाना बनाया जा रहा है तो फिर इंग्लैंड में क्या हो रहा है.

इकॉनामिस्ट ब्रिटेन की पत्रिका है इसलिए विजय चौथाई वाले अंग्रेज़ी राज की बात कर रहे हैं. पत्रिका को घमंडी बता रहे हैं. लेकिन इस पत्रिका ने जब तारीफ में लेख छापे थे तब घमंडी क्यों नहीं कहा था. क्या इस पैमाने से किसी पत्रिका के कवर को समझा जा सकता है. बीजेपी के विजय चौथाईवाला को मालूम होना चाहिए कि ब्रिटेन की इस पत्रिका ने 2016 के बाद 12 बार ब्रिटेन को अपने कवर पर छापा है और सबमें उसकी आलोचना की है. अगर वो औपनिवेशिक राज की पत्रिका होती, भारत के विरोध में होती तो फिर अपने देश की तारीफ ही करती जैसे गोदी मीडिया के भारतीय चैनल और अखबार करते हैं. 

इकॉनामिस्ट के तमाम कवर ऐसे मिलेंगे और रिपोर्ट भी जिसमें ब्रिटेन की संसद से लेकर सरकार की बार-बार आलोचना की गई है. संसद को अराजकता का कारण भी बताया गया है. भारत की संसद को अराजकता का कारण बताने वाली कोई पत्रिका कवर पर छाप दे तो संपादक जेल में होगा और चार महीने तक बेल की सुनवाई ही नहीं होगी. कहीं विजय चौथाई वाला ने इकॉनामिस्ट को हिन्दू अखबार और चैनलों की तरह तो नहीं समझ लिया है.

दुनिया के कितने मुल्कों में स्टेडियम किराये पर लेकर कितनी रैलियां की गईं. उनका यही तो मकसद था कि भारत की जनता को दिखाया जाए कि विदेशों में भारत का नाम हो रहा है. अब वहां की पत्रिकाएं आलोचना कर रही हैं तो उन्हें 1947 के पहले के अंग्रेज़ों से जोड़ा जा रहा है. ऐसा नहीं था कि कभी इन पत्रिकाओं ने प्रधानमंत्री मोदी को हीरो की तरह नहीं छापा, तब उनकी सरकार और समर्थक इन पत्रिकाओं के लेख को हार की तरह गले लगाया करते थे.

9 मई 2019 की टाइम पत्रिका के कवर पर प्रधानमंत्री डिवाइडर इन चीफ़ कहे जाएंगे किसी ने सोचा नहीं होगा. इस स्टोरी को लिखने वाले पत्रकार आतिश तासीर की ओवरसीज़ इंडियन कार्ड वापस ले लिया गया. जबकि चार साल पहले 7 मई 2015 में इसी पत्रिका के कवर पर प्रधानमंत्री मोदी का ज़िक्र एक अनिवार्य नेता के रूप में होता है. कवर पर प्रधानमंत्री की ही बात लिखी है कि दुनिया के लिए ज़रूरी है कि भारत एक ग्लोबल पावर के रूप में उभरे. ये एक्सक्लूसिव इंटरव्यू था. चार साल बाद इसी पत्रिका के कवर पर प्रधानमंत्री के चेहरे पर उस राजनीति की लकीरें गहरी नज़र आने लगती हैं. डिवाइडर इन चीफ लिखा हुआ है.

हम लोग भूल जाते हैं. कितना याद रखेंगे. टाइम पत्रिका के तीन पत्रकारों ने 7 मई 2015 को प्रधानमंत्री मोदी का इंटरव्यू लिया था. नैंसी गिब्ल, ज़ोहेर अब्दुल करीम, निखिल कुमार को प्रधानमंत्री मोदी ने दो घंटे का इंटरव्यू दिया था. इस इंटरव्यू के साथ उसी टाइम के अंक में पत्रकार निखिल कुमार का एक लेख भी छपा था जो इस इंटरव्यू और प्रधानमंत्री के बारे में था. इसका शीर्षक था कि नरेंद्र मोदी भारत को कैसे बदलना चाहते हैं. कैसे मोदी ने एक साल के कार्यकाल के भीतर अपने आप को ग्लोबल पॉलिटिकल स्टार के रूप में स्थापित कर लिया है. वे तीन घंटे ही सोते हैं. योगा करते हैं. एक साल में 19 देशों का दौरा कर चुके हैं. इस इंटरव्यू के बारे में पत्रकार निखिल कुमार ने लिखा था कि यह एक रेयर यानी दुर्लभ इंटरव्यू है. इस इंटरव्यू में प्रधानमंत्री अपनी गरीबी पर बात करते हुए भावुक हो गए थे. अपनी आंखें पोंछी थीं. तब कहा था कि पिछले दस साल की सरकार के कार्यकाल की तुलना मेरे दस महीने के कार्यकाल से कर सकते हैं.

अगर टाइम मैगज़ीन का कोई महत्व नहीं होता, कोई एजेंडा होता तो प्रधानमंत्री 2015 में दो घंटे का इंटरव्यू नहीं देते. यही नहीं इंटरव्यू छपने के अगले दिन विदेश मंत्रालय अपनी वेबसाइट पर पूरे इंटरव्यू का हिन्दी अनुवाद छापता है. अब जब टाइम में आलोचना छप रही है तो उसके पत्रकार से ओवरसीज़ इंडियन का कार्ड ही ले लिया जाता है. जब तारीफ छपती है तो विदेश मंत्रालय उसका हिन्दी अनुवाद करता है.

2015 में प्रधानमंत्री मोदी टाइम पत्रिका से कहते हैं कि कैसे उनके दस महीने के कार्यकाल में ही ग्लोबल एजेंसियां उत्साहित हैं. वे कहते हैं कि पिछले दस महीनों में भारत ने ब्रिक्स में अपनी स्थिति फिर से हासिल की है. अंतर्राष्ट्रीय रूप से चाहे IMF हो, विश्व बैंक हो, मूडी हो या दूसरी क्रेडिट एजेंसियां हों सब की सब एक ही आवाज़ में कह रही हैं कि भारत का आर्थिक भविष्य शानदार है. यह तेज़ गति से बढ़ रहा है और दुनिया के इकॉनामिक सिस्टम में स्थिरता और विकास का कारण बन गया है. भारत दुनिया की तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है.

सोचिए तब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि भारत के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था में विकास हो रहा है. इन पत्रिकाओं और एजेंसियों की रिपोर्ट को महत्व दे रहे हैं. उन्हें अपनी बेवसाइट पर छाप रहे हैं, ट्वीट कर रहे हैं. जिस मूडी का नाम प्रधानमंत्री ले रहे हैं उस रेटिंग एजेंसी ने अप्रैल 2015 में भारत की रेटिंग स्थिर यानी स्टेबल से बढ़ाकर सकारात्मक यानी पोज़िटिव कर दी थी. इसे नरेंद्र मोदी की वेबसाइट पर छापा गया था. 2017 में जब मूडी ने भारत की बी ए ए 2 की रेटिंग अच्छी की थी तब उस खबर को प्रधानमंत्री कार्यालय ने ट्वीट किया था. इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय इन एजेंसियों को गंभीरता से लेता है. अपनी उपलब्धि मानता है.

अब उसी मूडी ने नवंबर 2019 में भारत की रेटिंग को स्टेबल यानि स्थिर से निगेटिव यानी नकारात्मक कर दिया. मूडी ने 2019-20 के लिए भारत के जीडीपी की विकास दर को 6.2 प्रतिशत से घटाकर 5.6 प्रतिशत कर दिया है. चार साल बाद IMF की प्रमुख गीता गोपीनाथ कहती हैं कि भारत के कारण ही दुनिया की अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो गई है.

पिछले साल डिस्कवरी चैनल ने प्रधानमंत्री को अपने मैन वर्सेज़ वाइल्ड कार्यक्रम में शामिल किया था. 12 अगस्त 2019 को यह कार्यक्रम प्रसारित हुआ था जिसमें प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी बोलने समझने वाले एंकर बेयर ग्रील्स से हिन्दी में बात की थी. बेयर ग्रील्स ने ट्वीट किया था कि अमेरिका के सुपर बोल्स फुटबाल मैच के टीवी प्रसारण से भी ज्यादा देखा गया था. यह एक रिकार्ड था. 2012 में इसी टाइम पत्रिका ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की काफी तारीफ की थी और कवर पर छापा था.
इसके कवर पर लिखा है कि मोदी मिन्स बिजनेस लेकिन क्या वे भारत का नेतृत्व कर सकते हैं. लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि सरदार बल्लभ भाई पटेल और महात्मा गांधी के बाद तीसरे गुजराती हैं जिनकी कवर स्टोरी टाइम मैगज़ीन ने छापी है. सोचिए 7 साल बाद इसी पत्रिका के कवर पर प्रधानमंत्री मोदी बंटवारा प्रमुख की उपाधि पाते हैं.

जब तब टाइम पत्रिका का कवर अच्छा था तो अब क्यों अच्छा नहीं है. इससे पहले कि आप यह समझें कि टाइम पत्रिका प्रधानमंत्री मोदी को लेकर पर्सनल हो गई है तो आपको 2012 का ही उसके कवर को देखना चाहिए. 2012 के कवर पर जब तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडर अचीवर बताया गया था यानी उम्मीद से कम हासिल करने वाला कहा गया तब बीजेपी उत्साहित हो गई. बीजेपी के नेता तरुण विजय ने मोदी के कवर और मनमोहन सिंह के कवर की तुलना करते हुए कहा था कि टाइम मैगज़ीन के कवर पर छपने वाले दो भारतीयों के बीच कितना अंतर है. गुजरात के मुख्यमंत्री की कहानी सुरक्षा बिजनेस, प्रगति और विकास की है वहीं मनमोहन सिंह की कहानी नाकामी, भ्रष्टाचार, रुपये की गिरावट की है.

विदेशी पत्रिका में छपी है इसलिए भी यह बड़ी नहीं हो जाती है लेकिन विदेशी पत्रिका में छपी है इसलिए भी इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है. देखा जाना चाहिए कि किन बातों को लेकर लोकतंत्र पर खतरे की बात की गई है. क्या उन बातों को करते हुए तथ्यों को ठीक से पेश किया गया है. क्या वो बातें सही हैं?

9 दिसबंर 2019 को blood and soil in narendra modi's india शीर्षक से न्यूयार्कर पत्रिका में गुजरात दंगों से लेकर कश्मीर को लेकर सरकार के फैसले की पृष्ठभूमि में, बैकग्राउंड में प्रधानमंत्री की राजनीतिक वैचारिक यात्रा का विस्तार से वर्णन किया जाता है. इसे लिखने वाले पत्रकार डेक्स्टर फिलकिन्स ने पाकिस्तान, यमन, इराक, अफगानिस्तान और सीरिया और लेबनन की राजनीतिक घटनाओं को कवर किया है. भारत के मीडिया ने गुजरात दंगों का सवाल हमेशा के लिए दफन भी कर दिया लेकिन न्यूयार्कर तभी इन सवालों से संदर्भ बनाते हुए प्रधानमंत्री को समझने की कोशिश करने लगता है.

भारत के प्रेस की हालत भारत में ही सब जानते हैं. दुनिया को भी पता है. पत्रकार की जगह फिल्म स्टार इंटरव्यू ले रहे हैं. आम जनता भी मीडिया को गोदी मीडिया कहने लगी है. हाल ही में एमेज़ान के प्रमुख जेफ़ बिज़ॉस भारत आए थे. एक अरब डालर के निवेश का बैंड बाजा लेकर. एमेज़ान के प्रमुख जेफ़ बिज़ॉस ने भारत की तारीफ में ट्वीट किया था कि यह भारत की सदी है. इससे भी बीजेपी के विजय चौथाइवाले नाराज़ हो गए. बीजेपी के विदेश मामलों के प्रमुख विजय चौथाइवाले ट्वीट करते हैं कि कृपया आप वाशिंगटन डीसी में अपने कर्मचारियों से ये बात कहिए. वरना आप जो ये लुभाने का जो काम कर रहे हैं पैसे और वक्त की बर्बादी है.

जब बीजेपी के विजय चौथाईवाले ने एमेज़ान के प्रमुख सुना दिया तो वाशिंगटन पोस्ट के वरिष्ठ संपादक ने अगले दिन ट्वीट का जवाब दिया. लोपेज़ ने अपने ट्विट में कहा कि जेफ बिज़ॉस वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकारों को नहीं कहते कि क्या लिखना है. स्वतंत्र पत्रकारिता का मतलब सरकारों की ख़ुशामद करना नहीं है. भारत की लोकतंत्र की परंपराओं के तहत ही हमारे संवाददाता और कॉलम लिखने वाले काम करते हैं.

वाशिंगटन पोस्ट ने ही 1972 में वाटर गेट स्कैंडल उजागर किया था और उस वक्त अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था. पत्रकारिता के क्लास में पेंटागन पेपर्स पढ़ाया जाता है. इस अखबार के पुराने मालिक को लेकर एक बहुत अच्छी फिल्म आई थी. द पोस्ट. यह फिल्म ज़रूर देखें. आप समझ पाएंगे कि एक अखबार को अखबार बनाने में मालिक की क्या भूमिका होती है और उसे ढोंगा बनाने में भी मालिक की क्या भूमिका होती है. अब वाशिंगटन पोस्ट के मालिक एमेज़ान के मालिक हैं. अगर भारत की मीडिया में जान बची होती, उसकी साख बची होती तो भारत के ही प्रधानमंत्री अपने कार्यकर्ताओं से यह न कह रहे होते कि हमें माध्यमों की ज़रूरत नहीं है.

माध्यम की ज़रूरत नहीं है, यह कोई साधारण बयान तो नहीं है. बेशक बीजेपी के कार्यकर्ताओं की भूमिका रही है लेकिन 2014 में मोदी के उभार और उसके बाद उनकी तरह तरह की छवियों के निर्माण में टीवी चैनलों की भी कार्यकर्ताओं से ज्यादा भूमिका रही है. उन अनगिनत कैमरों की भूमिका थी जो उनकी रैलियों को तूफान में बदल रहे थे. अब वही प्रधानमंत्री चैनलों अखबारों को माध्यम के नाम से रिजेक्ट कर रहे हैं. दावोस में जहां पर आर्थिक जगत के प्राणियों का जमावड़ा हुआ है वहां पर भी क्यों ये बात उठ रही है. जार्ज सोरोस ने भी भारत में बढ़ती संकीर्णता की आलोचना की है. दुनिया में जितने बड़े निवेशक हैं उनमें से एक जार्ज सोरोस हैं.

सोरोस का जन्म हंगरी में हुआ था. 1930 में. नात्ज़ी कब्ज़े के दौरान सोरोस के परिवार ने यहूदी पहचान को छिपा लिया था. पहचान से संबंधित जितने भी दस्तावेज़ थे, उन्हें छिपा लिया और अमेरिका चले आए. 90 साल के इस निवेशक सोरोस भारत पर आने से पहले कहते हैं कि अमेरिका, रूस, चीन में सत्ता डिक्टेटर या तानाशाही विचार वाले नेताओं के हाथ में हैं. दुनिया भर में ऐसी सरकारें बनने लगी हैं. सोरोस खुल कर राष्ट्रपति ट्रम्प की आलोचना करते हैं. उन्हें धोखेबाज़ बताते हैं. उसके बाद भारत के प्रधानमंत्री मोदी का ज़िक्र करते हैं. कहते हैं कि नरेंद्र मोदी भारत को एक हिन्दू राष्ट्रवादी देश बनाना चाहते हैं. एक मुस्लिम बहुल अर्ध स्वायत्त कश्मीर पर मोदी ने दंडात्मक कार्रवाई की है. करोड़ों मुसलमानों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी दी है.

प्रकाश के रे की एक बात सही है. हिन्दी मीडिया में विदेश नीति को लेकर गंभीर समीक्षा नहीं होती. स्टेडियम में होने वाले कार्यक्रम को ही विदेश नीति की तरह पेश कर दिया जाता है. लेकिन इन रिपोर्ट को खारिज करने से पहले भारत के मीडिया की हालत को ध्यान में रखना चाहिए. संकट एक और है. भारत के मीडिया की साख का. 181 देशों में 140 वां स्थान है. पश्चिम मीडिया को नकारते हुए या नकारने वाले अपने मीडिया को झंडे की तरह शान से उठाकर लहरा भी नहीं सकते. जब अपना ही मीडिया इस लायक हो कि गीतकार और कलाकार इंटरव्यू करें और पत्रकार जब इंटरव्यू करें तो सोने जागने का सवाल करें तो फिर दुनिया से क्या शिकायत. दिल्ली हाई कोर्ट ने जे एन यू के छात्रों को पुरानी फीस पर रजिस्ट्रेशन कराने की अनुमति दे दी है. कोर्ट ने कहा है कि लेट फीस नहीं लगेगी.जस्टिस राजीव शकधर ने कहा है कि सरकार की जिम्मेदारी है वह लोगों की शिक्षा का खर्च उठाए. इस जवाबदेही से सरकार बच नहीं सकती है.

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