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This Article is From Jul 18, 2018

क्या हमारी व्यवस्था भीड़ को हिंसा के लिए उकसा रही है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 24, 2018 00:25 am IST
    • Published On जुलाई 18, 2018 02:11 am IST
    • Last Updated On जुलाई 24, 2018 00:25 am IST
अब मुझे भी याद नहीं है कि साढ़े चार साल में हत्या के लिए बन जाने वाली भीड़ पर प्राइम टाइम के कितने एपिसोड किए होंगे. कोई ऐसा महीना नहीं गुजरता जब भीड़ की हत्या की घटना हमारे सामने नहीं होती. आज ही जब सुप्रीम कोर्ट भीड़ को लेकर व्यापक हस्तक्षेप करते हुए दिशानिर्देश तय कर रहा था उसी के आसपास झारखंड के पाकुड़ में स्वामी अग्निवेश को तीस-चालीस लोग घेरकर मारने लगे. उन्हें बुरी तरह मारा गया है. स्वामी अग्निवेश पाकुड़ के मुस्कान होटल में पत्रकारों को संबोधित कर बाहर निकले ही थे कि भीड़ ने उन्हें घेर लिया. स्वामी अग्निवेश गुस्साए लोगों से बात करने का प्रस्ताव करते रहे मगर भीड़ ने उन्हें मारना नहीं छोड़ा. मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश भी दे दिए मगर देश भर में घूम घूम कर अपनी बात कहने वाले स्वामी अग्निवेश की किसी बात से किसी को आपत्ति हो भी सकती है तो क्या यह तरीका है कि राजनीतिक दल के लोग कानून हाथ में ले लें और उन्हें मार-मारकर घायल कर दें. उन्हें गाली दें. ऐसा कब तक चलेगा. क्यों इतना आसान होता जा रहा है कि कुछ लोग किसी को भी घेरकर मारने लग जा रहे हैं.

पाकुड़ रांची से 365 किलोमीटर दूर है. झारखंड के बीजेपी प्रवक्ता पी शाहदेव ने कहा है कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है मगर स्वामी अग्निवेश को अपनी सुरक्षा का इंतज़ाम करना चाहिए था. अग्निवेश ने कहा कि उन्होंने प्रशासन को सूचना दे दी थी मगर कोई पुलिसकर्मी नहीं था, जब भीड़ ने उन्हें घेर लिया तब भी कोई पुलिसवाला नहीं था. भीड़ जय श्री राम के नारे लगा रहे थी. 16 जुलाई के प्राइम टाइम में आपने देखा था कि पश्चिम बंगाल में गाड़ियों को पलटती हुई भीड़ भी जय श्री राम के नारे लगा रही थी. राम एक हैं, उनके नाम पर काम अनेक हैं. क्या सियासी ताकत के सहारे सर उठाने वाली भीड़ पर पुलिस की कोई व्यवस्था काबू पा सकती है जो खुद भी सियासी गिरफ्त में हो. सुप्रीम कोर्ट ने जो दिशानिर्देश तय किए हैं उससे पुलिस की ऐसे मामले में जवाबदेही तो तय हो जाती है मगर जांच निष्पक्ष होगी इसका जवाब नहीं मिलता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भीड़ के सहारे राजनीति करने की प्रवृत्ति पर असर पड़ेगा, लेकिन राजनीति का दांव बहुत ज्यादा है. उसे इस भीड़ का ही सहारा है.

इंडिया स्पेंड के विश्लेषण के अनुसार पिछले 18 महीने में 66 बार भीड़ हमलावर हुई है और 33 लोगों की जान गई है. इस भीड़ का विस्तार अब तो भारत के कई राज्यों तक हो गया है. गौरक्षा मामले में भीड़ द्वारा हत्या के खिलाफ तहसीन पूनावाला और तुषार गांधी ने याचिका दायर की थी. वकील इंदिरा जयसिंह केस लड़ रही थीं. इसी की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा है कि भीड़ द्वारा हत्या के लिए सज़ा तय हो और संसद कानून बनाए. कोर्ट ने मॉब लिंचिंग रोकने के लिए दिशानिर्देश भी तय कर दिए हैं. चार हफ्ते के भीतर केंद्र और राज्य सरकारों को लागू करना है. राज्य सरकार हर ज़िले में पुलिस अधीक्षक या उससे ऊपर के अधिकारी को नोडल अफसर बनाए. इस नोडल अफसर की मदद के लिए हर ज़िले में एक डीएसपी की तैनाती की जाए, जिनका काम होगा भीड़ द्वारा हत्या की स्थिति का आंकलन और नियंत्रण होगा. हर जिले में टास्क फोर्स बने जो भीड़ के बारे में ख़ुफिया जानकारी जुटाती रहे. राज्य सरकार ऐसे ज़िलों, सब डिवीजनों और गांवों की पहचान करे जहां पिछले पांच साल में भीड़ की हिंसा का अतीत रहा है. ऐसे ज़िलों के नोडल अफसरों के लिए राज्य सरकार दिशानिर्देश जारी करे. उन इलाकों में एसएचओ स्तर का पुलिस अधिकारी विशेष रूप से सतर्क रहे. नोडल अफसर खुफिया अफसरों के साथ नियमित बैठक करे और नज़र रखे. नोडल अफसर किसी समुदाय या जाति के खिलाफ नफरत के माहौल को भी दूर करने का प्रयास करे. सभी नोडल अफसरों के साथ राज्य के गृह सचिव और पुलिस प्रमुख समीक्षा बैठक करते रहें. हर पुलिस अधिकारी का कर्तव्य है कि वह इस तरह की भीड़ को तितर-बितर करने का प्रयास करे. केंद्र सरकार भी राज्य सरकारों के साथ मिलकर कदम उठाए. डीजीपी ज़िला एसपी को निर्देश जारी करें कि संवेदनशील इलाके में गंभीर रूप से पेट्रोलिंग हो.

हर्ष मंदर कारवाने मोहब्बत का जत्था लेकर देश के 12 राज्यों में गए जहां लोग भीड़ की हिंसा के शिकार हुए थे. ऐसा नहीं है कि हमारे पास कानून नहीं है बल्कि उसी कानून को लागू करने के लिए कोर्ट ने एक व्यवस्था दी है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केंद्र और राज्य सरकार रेडियो, टेलीविज़न और मीडिया के अन्य मंचों के ज़रिए इस बात का व्यापक प्रचार-प्रसार करें. गृह विभाग और पुलिस विभाग की वेबसाइट पर इसका प्रचार किया जाए कि हत्यारी भीड़ में शामिल होने पर बेहद सख्त सज़ा मिलेगी. अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि यह केंद्र और राज्य सरकार का कर्तव्य होगा कि वह सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे भड़काऊ बयान, मैसेज, वीडियो पर नज़र रखे. उन्हें फैलने से रोके, जिनसे भीड़ के भड़कने की आशंका रहती है. एक महीने के भीतर राज्य सरकारें हत्यारी भीड़ के शिकार पीड़ितों के मुआवज़े के लिए नीतियां बनाएगी. शारीरिक और मनोवैज्ञानिक ज़ख्म की प्रकृति, ज़ख्म के कारण रोज़गार के नुकसान वगैरह के आधार पर मूल्यांकन तय हो.  हत्यारी भीड़ से संबंधित केस की सुनवाई के लिए अलग से फास्ट ट्रैक कोर्ट बने और छह महीने में सुनवाई पूरी हो.

अखलाक से लेकर पहलू ख़ान को इंसाफ नहीं मिला. अलवर में पहलू खान की हत्या के 5 आरोपियों की तुलना भगत सिंह से की गई. अख़लाक के सारे आरोपी बाहर हैं. गौरक्षा के मामले में पुलिस ने जिस भीड़ को गिरफ्तार भी किया उनमें से ज़्यादातर ज़मानत पर बाहर हैं. जयंत सिन्हा की तस्वीर तो आपने देखी ही थी कि कैसे आरोपियों को घर बुलाकर माला पहनाई और मिठाई खिलाई. क्या आपने जयंत सिन्हा की तस्वीर मारे गए परिवार के साथ देखी जो न जाने किस हालात में इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे होंगे. कभी गौरक्षा, कभी बच्चा चोरी तो कभी कुछ और भी, भीड़ बनती गई और लोग मारे जाते रहे. मई 2017 में झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाह के कारण विकास गणेश और गौतम को मार दिया गया. उसी के आसपास भीड़ ने नईम, सज्जू, शिराज और हलीम को मार दिया.

बच्चा चोरी और गौरक्षा के नाम पर उड़ने वाली अफवाहों और भीड़ के बनने की प्रवृत्ति में खास अंतर नहीं है. त्रिपुरा में भीड़ ने सुकांता चक्रवर्ती को मार दिया. असम में भीड़ ने नीलोत्पल और अभिजीत दास को मार दिया. महाराष्ट्र के धुले में पांच लोगों को भीड़ ने घेरकर मार दिया. जून 2017 में पश्चिम बंगाल के इस्लामपुर में समीरुद्दीन नसीरूल और नारिस को 15 लोगों की भीड़ ने घेरकर मार दिया. भीड़ ने ही फैसला कर लिया कि क्या आरोप है और क्या सज़ा होगी. 9 जून को तमिलनाडु के पशुपालन विभाग के कर्मचारी 50 गायें खरीदकर अपने राज्य लौट रहे थे. सारे कागज़ात थे. ज़िलाधिकारी को सूचना थी, मगर भीड़ ने घेरकर ट्रक में आग लगा दी. बाला बुरुमगन, करुपैय्या और एन अरविंद की जमकर पिटाई कर दी गई. आपको याद है श्रीनगर में भीड़ ने तो डीएसपी अय्यूब पंडित को मस्जिद से निकालकर मार दिया.

भीड़ के कई प्रकार हैं. एक भीड़ वो भी है जो सुषमा स्वराज जैसी वरिष्ठ नेता को भी आनलाइन दुनिया में घेर लेती है और दूसरे लोगों के बारे में लगातार सांप्रदायिक किस्म की बातें फैलाती रहती है. चार साल से पत्रकारों के खिलाफ उस आनलाइन भीड़ को रोकने और दर्ज शिकायतों को अंजाम तक पहुंचाने में भी पुलिस नाकाम ही साबित हुई है. क्योंकि सबको पता है कि उस आनलाइन भीड़ में शामिल लोगों का संबंध किस राजनीतिक दल और विचारधारा से है. जो भी है, सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद पुलिस की जवाबदेही क्या है, उसे लेकर समझ तो बनेगी, जब सरकार ही प्रचार करेगी और अधिकारी कदम उठाने को बाध्य होंगे तो कुछ तो असर होगा. कम से कम भीड़ की हिंसा से लड़ने वालों के पास एक नैतिक और कानूनी आदेश तो है जिसके सहारे में वे इस प्रवृत्ति के खिलाफ कोर्ट तक जा सकेंगे और अपनी आवाज़ उठा सकें.

भीड़ कोई एक प्रकार की नहीं होती है.  चेन्नई में 11 साल की लड़की के बलात्कार के 18 आरोपी जब महिला कोर्ट में लाए गए तो वकील ही उनकी पिटाई करने लगे. पुलिस ने किसी तरह वकीलों को रोका. बलात्कार के पक्ष में कोई नहीं है लेकिन क्या किसी को यह छूट है कि वह भीड़ लेकर किसी पर टूट पड़े. अदालत के परिसर के भीतर वकीलों का यह व्यवहार इंसाफ के लिहाज़ से क्या सही है? फिर कोर्ट की क्या ज़रूरत है, कानून की क्या ज़रूरत है. जब भीड़ को ही तय करना है तो फिर वकीलों की क्या ज़रूरत है? घटना के वक्त पुलिस भी बड़ी संख्या में मौजूद थी. क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पुलिस को अलग से नैतिक बल का टानिक मिल जाएगा तो ऐसी भीड़ को काबू कर लेगी. जम्मू के कठुआ मामले में जब पुलिस चार्जशीट दायर करने कोर्ट जा रही थी तब वकीलों की भीड़ ने भी पुलिस को रोकने का प्रयास किया. बलात्कार और हत्या की शिकार लड़की के लिए सामने आई महिला वकील को भी कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. फरवरी 2016 में दिल्ली के पटियाला कोर्ट में वकीलों का दल पत्रकारों पर टूट पड़ा. उस वक्त कन्हैया को ले जाया जा रहा था. उसे अदालत के भीतर वकीलों की गुस्साई भीड़ से बचाने के लिए पुलिस का इंतज़ाम करना पड़ा. ऐसी नौबत ही क्यों आई. क्या सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के अनुसार यह मामला अपने अंजाम पर पहुंचेगा. पटियाला कोर्ट मामले में चार्जशीट हो चुकी है. ऐसे कितने उदाहरण हैं जब बलात्कार, आतंकवाद के मामले में देशभक्ति के नाम पर वकीलों की भीड़ बन जाती है और वे केस लड़ने से इनकार कर देते हैं. यूपी के रिहाई मंच के मोहम्मद शोएब से पूछिए जब वे आतंक के आरोप में पकड़े गए 14 लड़कों के खिलाफ केस लड़ने गए तो यूपी की कितनी अदालतों में वकीलों ने ही उन्हें पीटा, मार-मारकर ज़ख्मी कर दिया. मोहम्मद शोएब ने जोखिम नहीं लिया होता तो 14 लड़के बरी नहीं हुए होते. खुद सुप्रीम कोर्ट ने न जाने कितने लड़के 20-20 साल आतंक के आरोप में सज़ा काटने के बाद बरी हुए हैं. तो क्या वकीलों की भीड़ सज़ा, सुनवाई से पहले तय करेगी?

भीड़ के कई पहलू हैं. अगर भीड़ तय कर दे कि किसी को वकील नहीं मिलेगा और वो भी अदालत के परिसर में वकील हिंसा पर उतारू हो जाएं तो यह भी न्याय की बुनियादी अवधारणा के खिलाफ है. भारत में पिछले साढ़े चार साल में भीड़ की हिंसा के कई मामले हुए मगर किसी भी मामले में अभी तक सज़ा मुकम्मल नहीं हुई है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि मोबोक्रेसी बर्दाश्त नहीं की जाएगी. कई बार पीड़ित बेहद गरीब होते हैं इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस बात का भी ध्यान रखा है. अपने दिशानिर्देश में कहा है कि पीड़ित के वकील का खर्चा सरकार देगी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद कानून बनाए. इस मामले के याचिकाकार्ता तसहीन पूनावाला ने कहा है कि उन्होंने भीड़ पर काबू पाने के लिए कानून की एक रूपरेखा अपने स्तर पर भी बनाई है जिसका नाम माशूका है. उन्होंने कहा है कि वे जल्द ही इसका प्रारूप कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को सौंप देंगे. इस प्रारूप को शशि थरूर ने संसद में प्राइवेट बिल के रूप में पेश किया है.

काश सुप्रीम कोर्ट का दिशानिर्देश न्यूज़ चैनलों के बारे में भी होता जहां आए दिन किसी न किसी बहाने हिन्दू-मुस्लिम टापिक पर डिबेट होता रहता है. चैनलों पर ऐसी बातें लिखी जाती हैं जिनके तेवर सांप्रदायिक होते हैं. एक समुदाय को दूसरे समुदाय से भिड़ाया जाता है. भीड़ का निर्माण चैनलों के ज़रिए भी हो रहा है. जनता परेशान है कि उसके मुद्दों की बात कब होगी, नेता और चैनल मिलकर तय कर रहे हैं कि जनता किस मुद्दे पर टीवी देखेगी. लोग अपने स्तर पर और अपने लिए नारे गढ़ रहे हैं. ताकि वे ट्वीट कर सकें और व्हाट्सऐप पर वायरल कर सकें.

जाम ने कर दिया सत्यानाश, जनता मांगे अंडरपास... करावल नगर परिवहन संघर्ष समिति ने जब इस स्लोगन को ट्वीट किया तो मुझे लगा कि आप दर्शकों को बताना चाहिए. इस समिति का अपना एक लोगो भी है. जनता अपने मसलों को लेकर जितनी अकेली हो गई है उतनी ही क्रिएटिव भी हो गई है. इनके बैनरों पर लिखे नारों को देखिए. जाम से मुक्ति एक ही आस, कब बनेगा अंडरपास... जाम में एक पीढ़ी बर्बाद हो चुकी है, हालात की मजबूरी है, अंडरपास ज़रूरी है... बसें लगाओ, जाम हटाओ. जनता क्या क्या मांग रही है. किसान फसल का दाम मांग रहे हैं, दिल्ली के करावल नगर वाले अंडरपास मांग रहे हैं. दुनिया में सबको पता है कि जाम का एक ही समाधान है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट ज्यादा हो, करावल नगर के लोग मांग कर रहे हैं कि जाम हटाने के लिए ज़रूरी है कि बसें भी चलें. जब चैनल हिन्दू मुस्लिम डिबेट के ज़रिए दर्शकों को दंगाई बनाने में लगे हैं, तब जनता अपनी समस्या को पहुंचाने के लिए खुद ही रिपोर्टर बनने लगी है.

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