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This Article is From Apr 15, 2015

रवीश कुमार : बिखरने से पहले एकजुट होने की भी फ़ितरत रही है जनता परिवार की

Ravish Kumar
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  • Updated:
    अप्रैल 16, 2015 13:30 pm IST
    • Published On अप्रैल 15, 2015 22:59 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 16, 2015 13:30 pm IST

राजनीति में परिवार शब्द ठीक नहीं है मगर यह उनके साथ भी जोड़ा जाता है जो दूसरे के परिवारवाद का विरोध करते हैं। कांग्रेस के परिवारवाद की राजनीति के विरोध में दो परिवार खड़े हुए थे। जनता परिवार और संघ परिवार।

लेकिन संसद और विधानसभाओं में मौजूद प्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि का अध्ययन कीजिये तो पता चलेगा कि पूरी भारतीय राजनीति ही परिवारों के कब्ज़े में हैं। नाम के लिए कहीं अध्यक्ष पद परिवार से फ्री है तो कहीं प्रधानमंत्री का पद। कहीं परिवारवाद का विरोध है तो कहीं सामने वाले का विरोध करते हुए बगल वाले परिवारवाद से समझौता भी।

आज दिल्ली में एक परिवार बना है। जनता परिवार। मुझे याद है राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हो रहे थे। सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के घर पर बैठक चल रही थी। मुलायम अपने उम्मीदवार पर अड़े थे। मीडिया के सैंकड़ों कैमरे सुरजीत के घर के बाहर इंतज़ार कर रहे थे। मुलायम बाहर आए और माइक को हटाते हुए कह कर चल दिये कि कोई मोर्चा वोर्चा नहीं है।

आज उन्हीं मुलायम सिंह यादव को शरद यादव और देवेगौड़ा के बीच दबे हुए सकुचाये हुए बैठे देखा तो लगा कि वक्त और उम्र कितना साध देता है। जिस नेताजी को किसी ने प्रधानमंत्री पद के लिए नेता नहीं माना। सोनिया गांधी ने समर्थन देने से मना कर दिया, उस नेता को आज पांच अन्य दलों के नेताओं ने अपना नेता मान लिया।

राजनीति में ऐसे मिलन होते रहे हैं। एक से एक धुर विरोधी गले मिलते रहे हैं। रामविलास पासवान यही कह कर राजनीति करते रहे कि गुजरात दंगों के बाद मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने का साहस अकेले उन्होंने किया है। वही रामविलास पासवान नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री हैं। जो मुलायम सिंह यादव सोनिया गांधी से बगावत पाले रहे वही दस साल तक उनकी पार्टी की सरकार बचाते रहे। इसलिए ऐसे मौकों पर आदर्श या पुराने वाक्यों बयानों का कोई मतलब नहीं रह जाता।

कांग्रेस विरोध के नाम पर इन परिवारों का उदय हुआ था। बीजेपी को भी कांग्रेस विरोध का लाभ मिला लेकिन संघ के कारण बीजेपी एक संगठित पार्टी के रूप में उभरती चली गई। वहीं जनता परिवार बिखरता चला गया। लेकिन ध्यान से देखेंगे कि यह परिवार मिटा नहीं। गुजरात में ही पूरी तरह मिट जाने का उदाहरण है। अब किसी को पता नहीं कि वहां चिमन भाई पटेल की सरकार देने वाला दल कहां गया।

लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, उड़ीसा और जम्मू कश्मीर में इसका किसी न किसी रूप में वजूद बचा हुआ है। कई राज्यों में समाजवादियों ने दो-दो बार सरकारें बनाईं हैं। उड़ीसा में तो बीजू जनता दल से निपटने के लिए बीजेपी को आज तक कोई फार्मूला नहीं सूझा। यूपी में 2007 में मायावती ने मुलायम सिंह यादव के गुंडाराज को मुद्दा बनाकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी। इसके बाद भी 2012 में अखिलेश यादव की साइकिल ने सबको पीछे कर दिया। नीतीश कुमार की दो-दो बार सरकार बनी। बीजेपी के अलग होने के बाद भी अपनी सरकार बचाने में सफल रहे।

जब लगा कि नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने जीतन राम मांझी को अपने प्रभाव में ले लिया है और जनता दल यूनाइटेड को तोड़ देना आसान है, उसके बाद भी जनता परिवार अपना वजूद बचाने में सफल रहा और नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बन गए।

कुल मिलाकर राजनीति के इस हिस्से में बिखरने और टूटने का अनुभव है तो सत्ता खोकर हासिल करने का भी अनुभव है। इन वर्षों में इन्हें राज करना आ गया है। अब वे कांग्रेस विरोध वाला विपक्षी खेमा नहीं रहा। भारतीय राजनीति का यह भी एक रूलिंग क्लास है। अगर इनका वजूद इतना ही कमज़ोर होता तो जम्मू कश्मीर में जनता परिवार का हिस्सा रही पीडीपी से बीजेपी को हाथ मिलाने के लिए मजबूर न होना पड़ता।

इसलिए जनता परिवार को इतिहास के आधार पर ही खारिज नहीं किया जा सकता। 1977 से 1990 के बीच जनता परिवार किसी न किसी तरीके से जुड़ता रहा और उसे कई बार प्रधानमंत्री बनाने का मौका भी मिला लेकिन इनकी सबसे बड़ी यही उपलब्धि रही कि इन्होंने गठबंधन को अस्थिरता से जोड़ दिया। जनता इसे हकीकत मानते हुए स्थिरता देने वाले दल के आधार पर ही गठबंधन को चुनती रही। लेकिन उनकी सरकारों की एकमात्र कामयाबी अस्थिरता ही नहीं रही होगी।

1990 के साल से जनता परिवार ने बिखरना शुरू किया। सबकी अपनी अपनी पार्टी हो गई और सब अपनी अपनी पार्टी के नेता। किसी को अंदाज़ा नहीं था कि नरेंद्र मोदी नाम का कोई शख्स उनके गढ़ में घुस आएगा।

राजनीति के इस समाजवादी धड़े की एक ऐतिहासिक प्रवृत्ति और है। ये हमेशा अपने मज़बूत विरोधी या दुश्मन के सामने एकजुट हुए हैं। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में ये कहीं से भी आ गए, किसी से भी मिल गए। लेकिन बाद में इनका अस्तित्व कांग्रेस या बीजेपी के होने या न होने पर निर्भर नहीं रहा। इंदिरा गांधी के बाद ये पहली बार हो रहा है कि जनता परिवार के पुराने भाइयों को गांव की याद आ रही है। जहां वे जाकर फिर से संयुक्त परिवार का मुखिया ढूंढ लाए हैं। ताकि इस बार एक नए विरोधी से लड़ा जाए। भाजपा विरोध के नाम पर एकजुट हुआ जाए। क्या होगा कौन जानता है, जो हो रहा है उसे तो देखा ही जा सकता है।

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