पुलिस व्यवस्था में जवान सबसे नीचले पायदान पर हैं. यह धारणा की बात है. दरअसल इसे उलट कर देखिए तो पुलिस की व्यवस्था जवान से शुरू होती है. यह बात अगर हम समझ लेते तो केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजू को अपना ट्वीट डिलिट नहीं करना पड़ता. कम से कम एक मंत्री एक सिपाही करण के पक्ष में खड़े हो सकते थे. क्योंकि एक सिपाही एक वकील के सामने कमज़ोर है. वकील के पास आवाज़ है, प्रतिष्ठा है, पैसा है, प्रतिभा के प्रदर्शन का खुला अवसर है. सिपाही के पास 100 तरह की बंदिशे हैं. नौकरी की शर्तें उसे बोलने नहीं देतीं. इसलिए ज़रूरी था कि किरण रिजीजू अपने ट्वीट को डिलिट नहीं करते और कांस्टेबल करण के साथ खड़े होते.
किरण रिजीजू ने आईपीएस असलम खान के ट्वीट को री ट्वीट करते हुए ट्वीट किया था जिसमें असलम ने उस वीडियो को भी ट्वीट किया था जिसमें एक वकील कांस्टेबल करण को मार रहा है. आप सरल हिन्दी में सोच कर देखिए. इसके लिए आपको नान रेजिडेंट इंडियन होने की ज़रूरत भी नहीं है. एनआरआई तो इस दृश्य को भी ऐसे देखेंगे जैसे भारत के बागों में बहार आई है. गृह राज्य मंत्री ने जो बात कही है वो तो ठीक बात थी. वो बात तो आम तौर भी कही जाती है फिर उसे डिलिट क्यों किया? वे उस गृह मंत्रालय में डिप्टी हैं जहां सबसे पहले सरदार पटेल बैठे थे. उनके इस ट्वीट से कौन नाराज़ होने वाला था जो डिलिट कर दिया गया? अच्छी बात है कि किरण रिजीजू ने दोबारा ट्वीट किया उसमें उस वीडियो को फिर से जोड़ा.
दूसरा ट्वीट करते हैं कि कानून अपने हाथ में न लें बल्कि कानून को अपना काम करने दें. यह ट्वीट किसके बारे में है. क्या रिजीजू यह कह रहे हैं कि कानून को अपना काम नहीं करने दिया जा रहा है? और वो कौन है जो कानून को अपना काम नहीं करने दे रहा है? यह बात इनके ट्वीट से स्पष्ट नहीं होती है. फिर किरण रिजीजू तीसरा ट्वीट करते हैं कि यह किसी समूह को सपोर्ट करने का सवाल नहीं है, बस कानून अपने हाथ में न लें.
किरण रिजीजू किसी निराकार को कह रहे हैं या किसी साकार को उपरोक्त पंक्तियों से स्पष्ट नहीं होता है. क्या वे किसी वकील को कह रहे हैं तो फिर साफ साफ लिख सकते थे. जब लगा कि वकीलों के समर्थन में ट्वीट कर दिया तो फिर ट्वीट करते हैं.
जब तक मंत्री जी अपने ट्वीट को डिलिट करने और दोबारा से ट्वीट करने में व्यस्त थे, दिल्ली पुलिस के जवानों के परिवार पुलिस मुख्यालय के बाहर पहुंचने लगे थे. उनके साथ अपनी अपनी ड्यूटी खत्म कर जवान भी आने लगे थे. जिस वीडियो ने इन जवानों को प्रदर्शन के लिए एकजुट किया है उस वीडियो को देखकर वकील को भी लगेगा कि जिस वकील ने कांस्टेबल करण पर हाथ उठाया उसने वकीलों का केस कमज़ोर कर दिया.
इस तस्वीर में कांस्टेबल करण एक अनुशासित सिपाही की तरह बर्ताव करता है. वह मार खाने के बाद भी गुस्सा नहीं करता है. करण अपने मुकदमे के सिलसिले में साकेत कोर्ट पहुंचा था. लेकिन उसे ये वकील जी मारने लगे. कोहनी से भी मारा और करण के हेल्मेट को उसकी बाइक पर दे मारा. इस पूरे प्रकरण में करण ने शांति और साहस का प्रदर्शन किया. गुस्सा नहीं किया. जेंटलमैन पुलिस का बर्ताव रहा और वकील एकतरफा हमलावार दिखते चले गए. इसे देखना एक तरह की हताशा से गुज़रना था जो शायद ही कोई नॉन रेज़िडेंट इंडियन समझ सकेगा. हताशा यह है कि क्या इस पुलिस का इकबाल इतना गिर गया है जो भी चाहेगा उसकी वर्दी उछाल लेगा. हताशा इस बात से भी थी कि जवान की कोई हैसियत नहीं होती, ऐसा समझने वाले लोगों का हौसला कितना बढ़ जाएगा.
सभी को पता है कि जवानों का संगठन नहीं होता है. उनके लिए कोई ट्वीट नहीं करता है. यह सवाल एक जवान के आत्मसम्मान का है. आज की घटना बताती है कि देश भर के जवानों के लिए यूनियन का होना कितना ज़रूरी है. यह ज़रूर है कि आईपीएस संघ ने ट्वीट किया और कहा कि पुलिस और वकील के बीच जो घटना हुई है वह दुर्भाग्यपूर्ण है. पब्लिक में जो तथ्य है उसे लेकर संतुलित नज़रिया हुआ है. जिन पुलिस वालों के साथ अपमान हुआ है पूरा देश उनके साथ है. जिसके द्वारा भी कानून तोड़ने की कोशिश की गई है हम उसकी आलोचना करते हैं. ज़ाहिर है यह काफी नहीं था. पुलिस के जवानों के भीतर यह बात घर कर गई कि दिल्ली पुलिस के आयुक्त अमूल्य पटनायक न तो अपनी पुलिस के लिए ट्वीट करते हैं और न घायल पुलिस वाले को देखने जाते हैं.
फिर दिल्ली में जो हुआ वो न्यूज़ चैनलों के दौर में तो कभी नहीं हुआ था. जब लगा कि एक जवान के लिए समाज आगे नहीं आ रहा है तो जवानों के परिवार और जवान सामने आ गए. दिन बीतने के साथ जवानों का प्रदर्शन बड़ा होता चला गया. बैनर पोस्टर तरह तरह की बातें करने लगे. इंसाफ मांगने लगे. पत्नियों के हाथ में लगे ये बैनर आने वाले समय में दिल्ली ही नहीं देश भर के सिपाहियों को बेहतर सम्मान दिलाने वाले हैं. किरण बेदी का भी पोस्टर लग गया. कि आपकी कमी खल रही है. किरण बेदी का वकीलों के साथ टकराव हुआ था. जिससे वो हीरो बनी थीं. आज वो लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. कैसे ट्वीट कर सकती थीं. उनका ट्वीट नहीं आया जो कि समझा जा सकता है. मगर कमिश्नर अमूल्य पटनायक के होते जवान अगर रिटायर हो चुके पुलिस अफसर को याद करें तो अच्छा नहीं है. पुलिस की छवि जैसी भी हो, यह आधार नहीं होना चाहिए. फिर तो पत्रकारों की भी छवि अच्छी नहीं है. नेताओं की छवि अच्छी नहीं है. उस आधार पर इस घटना को नहीं देखा जा सकता. पुलिस को लाचार देखना भी दुखद था मगर इस तरह संगठित होकर अपने सम्मान के लिए लड़ते देखना सुखद रहा. कोई वर्दी में रो रहा हो तो उसकी तकलीफ समझनी चाहिए. वह पुलिस है लेकिन एक इंसान भी है. इसलिए रो रहा है.
इस प्रदर्शन का असर ही था कि कांस्टेबल करण के साथ हुई मारपीट के 24 घंटे के बाद दिल्ली पुलिस ने केस दर्ज किया. मारपीट करने वाले वकीलों के खिलाफ. जवानों ने सामने आकर अपनी तरफ से दस मांगें रखीं. यहां तक कह दिया कि जजों की सुरक्षा में लगी पुलिस को हटा लिया जाए. यह कोई सामान्य बात नहीं थी. यह हालात ही क्यों पैदा हुए कि किसी को यह बात कहनी पड़े. यह बात एक तरह से एलान कर रही है कि स्टेट का इकबाल समाप्त हो चुका है. स्टेट और नागरिक के बीच भरोसे के संबंध की दरार गहरी हो गई है. इसे भरने की ज़रूरत है. दिल्ली पुलिस के जवानों की मांग सही है कि उन्हें एसोसिएशन बनाने का अधिकार मिलना चाहिए. दिल्ली ही नहीं पूरे देश भर की पुलिस को एसोसिएशन बनाने का अधिकार मिलना चाहिए. जब आईपीएस का एसोसिएशन है तो जवान का भी होना चाहिए.
दिल्ली पुलिस मुख्यालय के भीतर बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया. लेफ्टिनेंट गर्वनर के यहां भी बैठक हुई. पहले कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने संबोधित किया. प्रदर्शन में जुटे पुलिस और उनके परिवार वालों ने अनुशासन का पालन किया और शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन किया. पहले अमूल्य पटनायक को सुनें और फिर शाम को ज्वाइंट सीपी ने आकर बताया कि मीटिंग का क्या नतीजा निकला. वे घायल पुलिस का बेहतरीन इलाज होगा. उन्होंने यह भी कहा कि पुलिसकर्मी की शिकायत पर वकीलों के खिलाफ कार्रवाई होगी. एफआईआर दर्ज हुई है. कानून के मुताबिक.
इतना सुनते ही पुलिस और पुलिस के परिवार वाले यूनियन यूनियन के नारे लगाने लगे. वो जानना चाहते थे कि यूनियन के मामले पर क्या फैसला हुआ. इस माग पर ठोस आश्वासन नहीं मिला. यूनियन नहीं मिला. ज्वाइंट सीपी देवेश श्रीवास्तव ने उन्हें बताया कि उनके क्या अधिकार हैं. उनके क्या फोरम है.
जवानों की एक और मांग थी कि तीस हज़ारी की घटना के बाद जिन 16 पुलिसवालों को सस्पेंड किया गया है उनका निलंबन वापस लो. इस पर ज्वाइंट सीपी देवेश श्रीवास्तव जब बताने लगे तो नारों की आवाज़ इतनी ऊंची होने लगी कि उनकी बात गुम होने लगी. जवान निलंबन वापसी पर अड़े रहे. देवेश श्रीवास्तव की बाकी बातें शोर में सुनाई नहीं दे सकीं.
इस बीच केंद्र ने दिल्ली हाई कोर्ट ने स्पष्टीकरण मांगा कि यह कहने की क्या आवश्यकता थी कि वकीलों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं होगी. रविवार को चीफ जस्टिस डी एन पटेल और जस्टिस सी हरिशंकर की बेंच ने दो वरिष्ठ पुलिस अफसरों का तबादला कर दिया था. स्पेशल कमिश्नर संजय सिंह का तबादला कर दिया. एडिशनल डीसीपी हरिंदर सिंह का तबादला कर दिया. दो असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर को निलंबित कर दिया गया. किसी वकील के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई. वकीलों को सबसे अच्छा इलाज देने के निर्देश दिए गए. क्या इससे जवानों का मन छोटा हुआ कि उनके इलाज के लिए कुछ नहीं कहा गया. वकीलों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई. शाम होते ही दिल्ली पुलिस के जवान इंडिया गेट पर जमा हो गए. इसमें पुलिस परिवार के बुजुर्ग भी मार्च कर रहे थे. यहां पर सीआरपीएफ को तैनात किया गया था. शाम हो गई लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं निकला था.
इस घटना से जवान ही बेचैन नहीं थे. वही सड़क पर नहीं थे. दिल्ली के पुलिस के आईपीएस अफसरों की भी बेचैनियां बढ़ती जा रही थीं. उनके ट्वीट बता रहे थे कि वे अपने नेतृत्व से खफा थे. जो सेवा में हैं वो भी अपने जवानों के लिए बोलने लगे. ज़ाहिर है वो उस संतुलन की राजनीति को देख रहे थे जो एकतरफा होती जा रही थी.
आईपीएस मधुर वर्मा ने लिखा है कि मुझे माफ करें, हम पुलिस हैं. हमारा कोई अस्तित्व नहीं है. हमारा परिवार नहीं है. हमारा कोई मानवाधिकार नहीं है. इसी को रीट्विट कर असमल खान ने ट्वीट किया कि हम पंचिंग बैग हैं. मैं जानने के लिए उत्सुक हूं कि कौन से सीनियर अफसर हैं जो घायल पुलिस वाले से अस्पताल में मिले हैं. पुलिस का मनोबल धीरे धीरे गिरता जा रहा है. आईपीएस संयुक्ता ने ट्वीट किया है कि यह बहुत बेचैन करने वाला है. हमने निष्पक्षता रखनी चाहिए लेकिन जो गुंडा है उसे गुंडा कहना चाहिए इस बार. आईपीएस डी रूपा ने ट्वीट किया कि पूरे सिस्टम का मज़ाक बना दिया है. मेरी कामना है कि जो लोग नेतृत्व में हैं वो सख्त कार्रवाई करें वरना पुलिस फोर्स का मनोबल टूट जाएगा और गुंडों को बल देगा कि वो कानून को हाथ में लेते रहें. अंडमान निकोबार के पुलिस प्रमुख काले कोट में गुंडे आ गए हैं, जो दिल्ली के ताने बाने को ध्वस्त कर रहे हैं. इनके बीच कानून का भय कायम करने की ज़रूरत नहीं है. दिल्ली पुलिस को ज़रूरत है कि पुराने वकीलों और पुलिस के झगड़े के केस में स्टैंड लें. अरुणाचल प्रदेश के आईजी डॉ सागर प्रती हुड्डा ने ट्वीट किया कि कोई कानून से ऊपर नहीं है. जिसने गुंडागर्दी की है उसे सज़ा मिलनी चाहिए. आईपीएस हुड्डा ने लिखा कि तीस हज़ारी की घटना ने पूरे समाज की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया है. समय आ गया है कि वकीलों को भी कानून पढ़ना चाहिए. पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार ने ट्वीट किया कि मैं सहमत हूं. कोई नेता नहीं. कोई भाईचारा नहीं है. अगर टीम के एक सदस्य पर गुंडे कब्ज़ा कर लेते हैं और कोई नेतृत्व सामने नहीं आता है. पुलिस नेतृत्व छिपा हुआ है. शर्मनाक है. पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने ट्वीट किया कि एक देश में जहां हर हफ्ते पुलिस के सिपाही को मारा जाता है, कहा जा सकता है कि अराजकता आ गई है.
क्या आईपीएस मोनिका भारद्वाज को मोलेस्ट किया गया? मोनिका भारद्वाज ने अपनी तरफ से कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई है लेकिन एक आडियो वायरल हुआ है जिसमें उनका अंगरक्षक कह रहा है कि उसने मैडम को बचाने की कोशिश की लेकिन मैडम को वकीलों के झुंड ने घेर लिया था. गालियां दे रहे थे. जब वह मैडम को बचाने पहुंचा तो उसकी सर्विस रिवाल्वर छिनने की कोशिश की गई. अगर ऐसा हुआ तो क्या डीसीपी को एफआईआर दर्ज नहीं करानी चाहिए, अगर आईपीएस अफसर नहीं बोलेंगी तो कौन बोलेगा. इस बात की जांच होनी चाहिए कि क्या मोनिका भारद्वाज को शिकायत दर्ज कराने से रोका गया है?
न दिन गुज़र रहा था न शाम गुज़र पा रही थी. जवानों का हुजूम बढ़ता ही जा रहा था. सब कुछ ठहरा हुआ था. दिल्ली पुलिस के जवान एक तरफ ड्यूटी भी कर रहे थे. ड्यूटी के बाद प्रदर्शन आ रहे थे. जवानों के आंदोलन को दूसरे राज्यों के संगठनों का समर्थन मिलने लगा. हरियाणा बिहार और तमिलनाडु के आईपीएस संघ ने सपोर्ट किया था. आखिरी बार 1967 में दिल्ली पुलिस ने इतना लंबा प्रदर्शन किया था. अपने लिए घर और काम के आठ घंटे की मांग को लेकर.
हालात सामान्य नहीं है. लेफ्टिनेंट गर्वनर ने कहा है कि भरोसा बनाए रखें और पुलिस के सीनियर अफसर घायलों से मिले. यह आदेश बताता है कि पुलिस नेतृत्व से भारी चूक हुई है. घायल पुलिस वालों से मिलना एक सामान्य बात है. आखिर पुलिस के अफसर क्यों नहीं गए. क्या पता इससे बात इतनी नहीं बढ़ती. लेफ्टिनेंट गवर्नर ने शांति और सदभाव बनाए रखने की अपील की है. आज प्रदर्शन पुलिस ही नहीं कर रही थी, वकील भी कर रहे थे. उधर इस पूरे मामले में दूसरा पक्ष वकीलों का है जो दिल्ली की निचली अदालतों में आज भी हड़ताल पर रहे. उनकी मांग है कि हिंसा के लिए दोषी पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होने तक वो अपनी हड़ताल नहीं तोड़ेंगे.
उधर बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने शनिवार को हुई घटना का जायज़ा लेने के बाद एक बयान जारी किया जिसमें वकीलों से अपनी हड़ताल वापस लेने का आग्रह किया गया. इस बात पर भी नाराज़गी जताई गई वकीलों के वेश में कुछ उत्पाती लोग वकालत की छवि ख़राब कर रहे हैं. बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन मनन कुमार मिश्रा ने कहा कि वकीलों की बार एसोसिएशनों की ढिलाई की वजह से ऐसे वकीलों को बढ़ावा मिल रहा है. उन्होंने बार एसोसिएशनों को हिंसा करने वाले वकीलों की पहचान करके उनके नाम बार काउंसिल को देने का निर्देश दिया. हालांकि मनन कुमार मिश्रा ने इस पूरे प्रकरण में दिल्ली पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए और कहा कि पुलिस मुख्यालय पर जो धरना प्रदर्शन किया गया वो महज़ ड्रामा है जिसकी आड़ में दोषियों को छुपाने की कोशिश की जा रही है.