बिहार का चुनाव - पोस्टरों के द्वारा, पोस्टरों का, पोस्टरों के लिए !

बिहार का चुनाव - पोस्टरों के द्वारा, पोस्टरों का, पोस्टरों के लिए !

प्रतीकात्‍मक फोटो

पटना सिटी के मारूफगंज सर्राफ़ा बाज़ार में बीजेपी का बिल्ला लगाए एक पुराने कार्यकर्ता से बात ही कर रहा था कि सामने की दुकान से कई व्यापारी निकल आए। इन लोगों ने हमारी बात बीच में रोक दी और उस इलाक़े में ज़माने से जीत रहे बीजेपी के वरिष्ठ नेता नंदकिशोर यादव की आलोचना करने लगे। वहां से किसी तरह निकला तो हाथ में माइक देखकर कई लोगों ने रोका कि वे नंदकिशोर यादव के बारे में बोलना चाहते हैं। ये देखिए इलाक़े की क्या हालत है। उन्होंने कहां कोई काम किया है।

सिवान से सटे बिन्‍दुसार गांव में शाहनवाज़ ने बताया कि गांव के नौजवानों की बैठक बुलाई है। उसके बाद ही तय करेंगे कि किसे वोट करना है। कारण पूछने पर शाहनवाज़ ने कहा कि अरे सर, हम लोगों पर राजद के वोटर होने का टैग लग गया है। इस वजह से हमारे गांव की बिजली एक नंबर की नहीं हुई है। एक नंबर मतलब शहर से डायरेक्ट लाइन, जिससे बीस घंटे बिजली मिलती है। ऐसा लड़कों ने बताया। कहने लगा कि बीजेपी के सांसद कह रहे हैं कि वोट देने पर लाइन चेंज करा देंगे।

सिवान से निकला ही था कि व्हाट्स एप पर किसी मित्र ने बताया कि अररिया के सिकटी विधानसभा में मुंबई और दिल्ली से आए 200 लड़कों के दल ने पिछड़ेपन को लेकर मतदान के बहिष्कार का ऐलान कर रखा है। आरा में लड़के यह मुद्दा उठाना चाहते हैं कि रेलवे में भर्तियां क्यों नहीं निकल रही हैं। पटना में कुछ लड़कों ने कहा कि उच्च शिक्षा की हालत अच्छी नहीं है। गांवों में भी शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर शिकायतें सुनने को मिलीं।  

क्या इन आवाज़ों को आप जातिवादी खांचे में फ़िट कर सकते हैं? चैनलों ने ऐसी आवाज़ों को भले जगह दी, लेकिन कृत्रिम सेट पर जमा किए गए सौ-दो सौ लोगों के हल्ला हंगामे में खो गई। प्रवक्ता जो मन में आ रहा है बोल रहे हैं। लोग अपना सवाल लेकर ऐसे कुर्ता फाड़ रहे है, जैसे चीख़ देने से मुद्दे का उठ जाना हो गया। राजनीतिक दलों ने अपनी सारी ऊर्जा गाय और बकरी में खर्च कर दी। बिहार का चुनाव नतीजा आने के बाद भले ही राष्ट्रीय संदर्भ में देखा और सराहा जाएगा, लेकिन बिहार ने एक शानदार मौक़ा गंवा दिया। ऐसा नहीं है कि अखबारों ने जनता के मुद्दे नहीं छापे बल्कि पार्टियों ने चतुराई दिखाने के अलावा कुछ नहीं किया। वे मुद्दे छपकर कबाड़ में बदल गए।

शिक्षा चिकित्सा या कुपोषण जैसे मसलों पर कौन बहस के लिए तैयार था? हर चुनाव को कौन बनेगा मुख्यमंत्री, क़िस्सा कुर्सी का या सत्ता का राजतिलक टाइप के कार्यक्रमों तक सीमित कर दिया जा रहा है। बुनियादी मुद्दों की बात कोई नहीं कर रहा। चुनाव आते ही एनजीओ या तटस्थ नागरिक संगठन सक्रिय हो जाते हैं, लेकिन सुनता कौन है। आप कुपोषण की बात करते रहिए उधर पब्लिक गोमांस जैसे भावुक मुद्दों में व्यस्त है। मीडिया उठाता तो है, लेकिन स्वास्थ्य चिकित्सा के मुद्दे मुख्य राजनीतिक विमर्श नहीं बन पाते। केंद्र सरकार की शिक्षा नीति से लेकर राज्य सरकार की शिक्षा नीति में क्या फ़र्क है इसे ही लेकर नेता गंभीर नहीं हैं। कुछ पत्रकार और कुछ लोग आवाज़ उठाने की जगह खोजते रहते हैं। मीडिया, कारपोरेट, राजनीतिक दल का एक कांप्लेक्स बन चुका है। पहले भी था, लेकिन ये मज़बूत हुआ है। चुनाव और चुनाव का कवरेज नौटंकी का पार्ट बनकर रह गया है।

ऐसा लग रहा है कि किसी को बाकी क्षेत्रों केउम्मीदवार से मतलब ही नहीं। दोनों दलों के जीते उम्मीदवारों के काम की समीक्षा नहीं हुई। लोग दोनों पक्षों के विधायकों से नाराज हैं। स्थानीय विधायकों का विधायी कार्यों में क्या योगदान रहा है, इसकी तो कभी चर्चा नहीं होती। इस बार मैंने अपनी रिपोर्टिंग बदल दी। जब बुनियादी मुद्दों को छोड़ भावुकता मुद्दों पर ही चुनाव लड़ा जाना है तो मैं समाज के भीतर सहजीवन के क़िस्सों को खोजने लगा। उस बिहार को खोजने लगा जो इन रणनीतिकारों की समझ से बाहर है। करोड़ो रुपये का हेलीकॉप्‍टर उड़ाकर नेता शैतान, नरपिशाच और गोमांस बोलने जा रहे थे ।

बिहार का चुनाव उसकी पहचान पर हमले का मौक़ा बन जाता है। यहां के संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाला तबक़ा भी भीतर से हमलावर हो जाता है जबकि शिक्षा और चिकित्सा की हालत उसी ने बुरी की है। किसी की सरकार बने, पटना के बाहर बने नर्सिंग होम में मरीज़ों से जो लूट हो रही है वो कौन बंद करेगा? क्या वो तबक़ा इसे लूटराज कहने के लिए तैयार है? क्या जो लुट रहा है वो समझ पा रहा है कि जाति में फंसे तो इन लुटेरों को और भी छूट मिलेगी, क्योंकि इस लूट में हर जाति के लोग शामिल हैं।

जब से चुनाव प्रबंधन का खेल बन गया है, नक़ली मुद्दे गढ़े जाने लगे हैं। कॉपीराइटर किसी एक बड़े मुद्दे की तलाश में रहते हैं और नेता उसे ही गीता-क़ुरान मानकर चुनाव भर जपते रहते हैं। आरक्षण-आरक्षण या गोमांस-गोमांस। बड़े-बड़े होर्डिंग पर एक नेता और एक नारा होता है। इससे चुनाव की विविधता समाप्त हो गई है। अच्छा है कि लोग अपने स्तर पर इस विविधता को बचाए हुए हैं। हम मीडिया वाले ही चुनाव में जनता की आवाज़ के प्रसारक नहीं रहे। नेता उन आवाज़ों को जगह नहीं देते। दो सौ रुपया किलो दाल है और मंचों पर दाल मुद्दा नहीं है। लोग शराब से परेशान है और शराब मुद्दा नहीं है। जनता का बड़ा हिस्सा भी इसी तरह से प्रशिक्षित कर दिया है कि कौन जीतेगा। कौन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनेगा?

सुबह-सुबह पटना के मौर्या होटल से निकल रहा था। दो लड़के मिले। सेल्फी खिंचाई और खुद को किसी अख़बार के मार्केटिंग का बताया। दोनों होटल में ठहरे एक जाति विशेष के नेता से मिलने जा रहे थे। ये नेता अभी-अभी उभरे हैं। मैंने पूछा कि आप मार्केटिंग के हैं तो इनसे क्यों मिलने जा रहे हैं। एक ने जवाब देते हुए कहा कि आपने फ़लां दिन के फ़लां अंग्रेजी अख़बार में वो न्यूज़ आइटम नहीं देखा था? मैं चुप रहा। लड़के ने कहा कि वो आइडिया हमने ही नेता जी को दिया था। उनके बोलने के बाद ही छपा है। आज हम लोग एक और मुद्दा देने जा रहे हैं। देखिए, अगर उसे लेते हैं तो खबर बन सकती है।

अब सोचिए नेता को मुद्दा कौन दे रहा है? मुद्दा, मुद्दा नहीं एक आइडिया भर है। मैं दिल्ली चुनाव में वहां की मज़दूर बस्तियों की दुर्दशा दिखाता रहा। लोगों की हालत बहुत खराब है, लेकिन किसी भी दल ने अपने मेनिफेस्टो में उसे जगह नहीं दी। ईमानदारी से बात नहीं की और एक ब्लू प्रिंट जनता के सामने पेश नहीं किया। हर चुनाव में अवैध कालोनी को नियमित करने का ड्रामा होता है। केंद्र में जिसकी सरकार होती है वो एक आदेश जारी कर देता है। बाद में सब ज़ीरो। फिर भी वहां जाकर अपनी तरफ से मुद्दा उठाने के लिए जनता से शाबाशी जरूर मिली, लेकिन अक्सर सोचता हूं कि वे मुद्दे राजनीतिक विमर्श क्यों नहीं बन पाए? जब बनते ही नहीं हैं तो क्यों किया जाए और कब तक किया जाए? सब लगता है कि व्यक्तिगत शौक़ के लिए कर रहे हैं। जगाने के नाम पर किसे जगा रहे हैं? किसे क्या नहीं मालूम है और नहीं मालूम है तो उसने जानने का क्या प्रयास किया?

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करोड़ों रुपये खर्च कर राजनीतिक दल व्यक्तिगत हमले वाले मैटर अखबारों में छपवाते हैं। जातिगत नेताओं के विज्ञापन हर दिन अखबारों के पहले पन्ने पर छपे। हमें सोचना चाहिए कि राजनीतिक दलों ने ऐसा विज्ञापन क्यों नहीं छापा कि हेल्थ को लेकर क्या-क्या काम करने वाले हैं? क्या-क्या किया है। दूसरी तरफ मैंने लोगों को भी देखा कि वे इन मुद्दों को छोड़ अलग-अलग कारणों से दलों से दिल लगाए बैठे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि बिहार ने मौक़ा गंवा दिया? वो विधायक से नाराज हैं लेकिन वोट देंगे क्योंकि उसकी पसंद की पार्टी जीतनी चाहिए। तो जीत का मज़ा लीजिए। इस जीत में जो हार छिपी है वो चुनाव के बाद मोहभंग में नज़र आएगी।