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This Article is From Oct 18, 2016

अखिलेश बनाम मुलायम : लोकतंत्र और उप्र में परिवार की जंग...

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 18, 2016 16:29 pm IST
    • Published On अक्टूबर 18, 2016 16:09 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 18, 2016 16:29 pm IST
उत्तर प्रदेश में परिवार-नियंत्रित राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के अलग नियम हैं. यदि पार्टी के किसी निर्णय या नियम का विरोध कोई गैर-पारिवारिक व्यक्ति करता है, तो उस पर तुरंत अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है, और यदि परिवार का कोई व्यक्ति ऐसा करे, तो इसे तुरंत 'आंतरिक लोकतंत्र की स्वस्थ परम्परा' का उदार उदाहरण कहा जाता है. एक तरह से यह अच्छा भी है, इससे परिवार के सदस्यों की हैसियत का पता बाहर के लोगों को भी लगता रहता है.

समाजवादी पार्टी ऐसे उदाहरण पिछले कुछ महीनों से लगातार पेश करती आ रही है. पार्टी के संस्थापक और परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने पहले तो वर्ष 2012 में अपने वरिष्ठ सहयोगियों को दरकिनार करके अपने बड़े बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री घोषित किया, जबकि परिवार के ही कुछ सदस्य ऐसा किए जाने से सहमत नहीं थे (यह अब पता चल रहा है). फिर पिछले साढ़े चार साल में मुलायम अपनी ही पसंद के बेटे के मुख्यमंत्री के तौर पर काम करने के तरीके की लगातार आलोचना करते रहे, फिर परिवार के दो वरिष्ठ सदस्य इस पर अलग राय देते रहे कि पार्टी में किसको लेना है और किसको नहीं, और हुआ वही, जो मुलायम ने चाहा, फिर एक वरिष्ठ सदस्य ने बगावती तेवर दिखाए, तो बेटे को निष्प्रभावी बना दिया गया.

यह सब पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं को निभाने के तौर पर ही होता रहा, और पहले की राय के विपरीत अब सारे सदस्य कह रहे हैं कि यदि पार्टी दोबारा चुनाव जीतती है तो अखिलेश ही मुख्यमंत्री होंगे. यही नहीं, अखिलेश के एक चाचा ने तो मुलायम को बाकायदा पत्र लिखकर ऐसी गुजारिश की है, और उस पत्र को सार्वजनिक भी कर दिया गया है.

क्या भारतीय जनता पार्टी या किसी अन्य गैर-परिवार-आधारित पार्टी में ऐसी कल्पना की जा सकती है कि कोई वरिष्ठ पदाधिकारी, पार्टी अध्यक्ष को पत्र लिखकर निवेदन करे कि अमुक नेता को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए, या पार्टी का अध्यक्ष बार-बार सार्वजनिक तौर पर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री की कड़वी आलोचना करता रहे, या पार्टी में प्रत्याशी चयन और टिकट वितरण के अधिकारों को लेकर सार्वजनिक तौर पर मांग और आरोप लगाए जाएं, या अंततः, कोई मुख्यमंत्री अपनी पार्टी से निष्कासित समर्थकों के लिए एक अलग पार्टी कार्यालय खुलवा दे...?

यह सब समाजवादी पार्टी में हुआ है और हो रहा है, और कभी कहा जाता है कि यह परिवार के सदस्यों के बीच की बात है, और कभी कहा जाता है कि यह तो आंतरिक लोकतंत्र है. मुलायम कहते हैं, सब कुछ ठीक है, अखिलेश कुछ और कहते हैं, और अपना आधिकारिक आवास खाली कर देते हैं. परिवार और पार्टी के बीच की रेखा इतनी धुंधली हो चुकी है कि दोनों में कोई अंतर ही नजर नहीं आता. षड्यंत्रों के तमाम सिद्धांत (कॉन्सपिरेसी थ्योरी) लखनऊ की हवाओं में तैर रहे हैं, जिनमें परिवार के सदस्य, बाहरी लोग, और उद्योगपतियों के हित साधने के कयास लगाए जा रहे हैं.

सच तो यह है कि परिवार या पार्टी में जो निर्णायक भूमिका निभाने वाले सदस्य हैं, वे सिर्फ इतना चाहते हैं कि 2017 के चुनाव के बाद उनके पास सत्ता बनी रहे, चाहे उस समय मुखिया कोई भी हो, या जीतने वाले दल के नाम के साथ 'अ' या 'ब' लगा हो. सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव जीतना होगा और एक निर्धारित संख्या में विधायक चाहिए होंगे, और पिछले दो महीनों की उठापटक के बाद ऐसा लगता है कि पार्टी के अन्दर प्रभावी मत यह है कि ऐसा संभव करने की क्षमता केवल अखिलेश में है. ऐसे में सारे तथाकथित मतभेदों के बाद भी समाजवादी पार्टी के पास अखिलेश यादव का कोई विकल्प लगता नहीं है.

यह एक संकेत है कि अंततः होगा भी यही, और अखिलेश के समर्थकों पर अभी तक जो भी कार्रवाई हुई है (कुछ को पार्टी से निष्कासित किया गया, कुछ का टिकट काटा गया), उस पर भी पुनर्विचार हो सकता है. यही नहीं, इसका अर्थ यह भी है कि चुनाव प्रचार भी अखिलेश के हिसाब से होगा, और मुलायम उन सभी लोगों को शांत बैठने और चुनाव जीत लेने तक इंतज़ार करने की सलाह देंगे, जो अखिलेश, उनके समर्थकों और उनके निर्णयों से असहमत हैं. आश्चर्य नहीं होगा कि आने वाले दिनों में अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर प्रदर्शन तेज किए जाएं.

अगस्त महीने के अंतिम दिनों में जब समाजवादी पार्टी में परस्पर विरोधी बयानबाजी शुरू हुई थी, कुछ विश्लेषकों का मत यह था कि यह कोई ख़ास मामला नहीं है और सिर्फ अखिलेश को आम सहमति से मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने की कवायद है. लेकिन बाद में बगावती तेवरों के प्रदर्शन के बाद इस पर कुछ संशय होने लगा था. और अब, जैसा कि उत्तर प्रदेश में अख़बारों की सुर्खियां अपने-अपने अंदाज़ में कह रहीं हैं कि 'अखिलेश ही होंगे सपा के मुख्यमंत्री पद का चेहरा', तो समझ में आता है कि इस पूरे घटनाक्रम से क्या हासिल हुआ –

1. परिवार / पार्टी में मजबूत लोगों के समर्थकों की संख्या और शक्ति प्रदर्शन की क्षमता का आकलन
2. दबी-छिपी महत्वाकांक्षाओं और लालसाओं की जानकारी
3. परिवार / पार्टी के पूरी तरह लोकतांत्रिक होने का प्रदर्शन
4. सरकार के पिछले साढ़े चार साल के काम पर से ध्यान हटाना
5. सरकार की कमियों के कारणों का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश


जिस बड़े बहुमत के साथ समाजवादी पार्टी ने सरकार बनाई थी, उसके बाद अपनी किसी भी विफलता के लिए विपक्ष को दोष देना संभव नहीं था, और विपक्षी दलों में वह एकता नहीं थी कि वे एक होकर सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ कोई आवाज उठा सकें या आन्दोलन कर सकें. ऐसे में पार्टी के अन्दर ही एक तथाकथित विपक्ष का सृजन करके ऐसी स्थिति बनाई गई, जिसकी तुलना सामान्य स्थितियों में विधानमंडल में 'अविश्वास प्रस्ताव' से की जा सकती है. बस, फर्क इतना है कि यहां न तो पार्टी के नेता को इस्तीफा देना है, न नेता को बदलना है.

पार्टी / परिवार में आंतरिक लोकतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं के निर्वहन का इससे बड़ा उदाहारण और क्या हो सकता है...?

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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