'स्वच्छ भारत' के साथ-साथ 'स्वस्थ-भारत' बनाया जाना भी ज़रूरी...

'स्वच्छ भारत' के साथ-साथ 'स्वस्थ-भारत' बनाया जाना भी ज़रूरी...

मुद्दे पर आने से पहले आपको तीन उदाहरणों से रूबरू करना चाहता हूं. कुछ साल पहले तक मध्य प्रदेश में मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम हुआ करता था, जो पूरे प्रदेश में बसों का संचालन करता था. लगातार माली हालत का हवाला देते हुए इस निगम को बंद कर यात्री परिवहन का पूरा नियंत्रण गैर-सरकारी क्षेत्र को दे दिया गया. इस बात को सालों बीत जाने के बाद अब पूरे मध्य प्रदेश में तरह-तरह की गैर-सरकारी बसें फर्राटे से दौड़ रही हैं, कमा रही हैं, उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है. अलबत्ता अब जब चाहे प्राइवेट बस संगठन अपनी मांगों के लिए सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकते हैं, क्योंकि अब सड़क परिवहन की निर्भरता पूरी तरह निजी क्षेत्र के पास ही है. ज़ाहिर है, इतनी सारी परि‍वहन कंपनि‍यां घाटे में नहीं चल रही होंगी...!

दूसरा उदाहरण एक होटल का है. मध्य प्रदेश के ही एक हिल स्टेशन पचमढ़ी में विशेष क्षेत्र प्राधिकरण का एक होटल संचालित किया जाता है, जिसमें तकरीबन 100 लोग आराम से ठहर सकते हैं. इसकी बनावट ऐसी है कि थोड़ी सी आंतरिक साज-सज्जा इसे बेहतर बना सकती है. यकीन कीजिए, आप महज 750 रुपये खर्च करके यहां सुकून का दिन बि‍ता सकते हैं. इस बड़े होटल को अब गैर-सरकारी क्षेत्र को दो करोड़ रुपये में बेचने की कवायद चल रही है. प्राधिकरण का मानना है कि इससे हम अभी पचास लाख रुपये सालाना कमाते हैं, हमें तो दो करोड़ मिल ही रहे हैं. ज़ाहिर तौर पर जो कंपनी उसे खरीद रही है, वह इसे दो करोड़ में खरीदकर 10 करोड़ कमाने की योजना बना रही होगी. अलबत्ता होगा यही कि जो कमरा पचमढ़ी के मुसाफिरों को कम दाम में मिल जाता है, वही चौगुना हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं...!

तीसरा एक और उदाहरण मध्य प्रदेश से ही है. पिछले साल यहां सरकार ने मध्य प्रदेश के 27 सरकारी अस्पतालों को एक गैर-सरकारी संस्था को पीपीपी पर देने का प्रस्ताव दे दिया था. इसकी कवायद हो भी चुकी थी, लेकिन विरोध के चलते यह मामला अटका हुआ है. एक सरकारी संस्था में गैर-सरकारी संस्था की क्या रुचि हो सकती है...?

इन उदाहरणों में सबसे गंभीर मामला यह निकलकर आता है कि जमे-जमाए सार्वजनि‍क सेवा तंत्र को अब निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है. स्कूल शिक्षा का हाल हम देख ही चुके हैं. अब स्वास्थ्य क्षेत्र भी तेजी से इसी ओर जाता दिख रहा है. पंद्रह साल बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से पेश की गई नई स्वास्थ्य नीति भी इस पर कहीं नियंत्रण करती नहीं दिख रही है. भारत जैसे देश में, जहां 70 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही हो, उस समाज के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं होना निहायत ज़रूरी हैं, लेकिन हो यह रहा है कि स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं की सहज अनुपलब्धता के चलते बीमार लोगों को इस पर बहुत खर्च करना पड़ रहा है. इसके कारण हर साल एक बड़ी आबादी गरीबी की ओर जा रही है, और विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह संख्‍या लगभग चार से पांच प्रतिशत है.

बीमारियों के कारण लोग कर्ज़ में जा रहे हैं, इसको इसी बात से समझा जा सकता है कि टीबी जैसी भयंकर बीमारी का पूरी तरह निःशुल्क इलाज होने के बावजूद प्राइवेट अस्पताल बड़े पैमाने पर फल-फूल रहे हैं. इसे पिछले दिनों सरकार द्वारा दिल में लगाए जाने वाले स्टेंट की कीमतों के रेगुलेशन से भी समझा जा सकता है. मामला केवल एक स्टेंट भर का नहीं है. नई स्‍वास्‍थ्‍य नीति‍ में इसे माना भी गया है, लेकि‍न स्‍वास्‍थ्‍य पर लोगों का खर्च कम करने का रास्‍ता केवल और केवल सार्वजनि‍क स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की मजबूती से होकर आता है. हमारा पूरा जोर स्‍वास्‍थ्‍य बीमा आधारि‍त देखभाल पर अधि‍क दि‍खता है, और बीमा नि‍जी स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के लि‍ए भी संजीवनी की तरह का काम करता है. दरअसल, स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की निगरानी और नियंत्रण अब भी बेहद लचीला है. कई स्वास्थ्य मानक तो ऐसे भी हैं, जिनकी कोई रिपोर्टिंग प्राइवेट अस्पताल सरकारी अस्पताल को अनिवार्यत: नहीं करते हैं. ऐसे में मनमानी का खेल तो खेला ही जा रहा है. ऐसा केवल इस कारण भी है कि सरकारी सेवा तंत्र अपना भरोसा लोगों से खोता जा रहा है या जानबूझकर खोते जाने दिए जा रहा है.

पिछले दिनों एक कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव ने अपने भाषण में किसी भी बेहतर सेवा के लिए चार प्रमुख चीजों को जिम्मेदार ठहराया था. ये थीं - क्लैरिटी ऑफ विज़न, क्लैरिटी ऑफ डिजाइन, क्लैरिटी ऑफ इन्सेन्टिव और क्लैरिटी ऑफ इम्प्लिमेंटेशन, लेकिन क्या क्लैरिटी ऑफ इंटेन्शन सबसे ज़रूरी नहीं है.

सवाल यहीं आकर खड़ा हो जाता है. सवाल यह भी है कि किसी भी विचारधारा की सरकारें गद्दी पर आसीन हों, क्या अंतरराष्ट्रीय राजनीति और बाज़ार की ताकतें उसमें अपनी भूमिका निभाती हैं. नई स्‍वास्‍थ्‍य नीति‍ में तमाम लोगों के साथ हेल्‍थ केयर इंडस्ट्री से भी भागीदारी की बात की गई है. उद्योग से हम सेवा करने की उम्‍मीद नहीं करते हैं. वह तो लाभ कमाने के लक्ष्‍य से ही आगे बढ़ता है.

अभी आप देखिए कि स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट में पिछले सालों में लगातार कमी होती रही है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि इस नीति में जोर इस बात पर है कि कोशिश यह होनी चाहिए कि हम बीमार ही नहीं पड़ें. यह बात सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर भी लागू होती है. यह काम हवा में नहीं हो सकता. सरकार को अब भी जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवा बचाने के लिए खर्च करना होगा, वहीं भारत की आबादी को बेहतर रोज़गार, पोषण, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी. तभी सही मायनों में एक स्वच्छ भारत के साथ स्वस्थ भारत बनाया जा सकेगा.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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