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This Article is From Aug 09, 2016

क्रिकेट के भक्त देश से ओलिम्पिक में उम्मीद न ही करें...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 09, 2016 11:31 am IST
    • Published On अगस्त 09, 2016 11:31 am IST
    • Last Updated On अगस्त 09, 2016 11:31 am IST
ओलिम्पिक चल रहे हैं. हमेशा की तरह हम हर दिन किसी पदक की उम्मीद बांधते हैं और वह उम्मीद हर दिन हमेशा की तरह टूटती है. यह तकलीफ आज की नहीं है. वर्षों से ओलिम्पिक खेलों में ऐसा ही देखते आए हैं. कभी-कभार कोई खिलाड़ी किसी तरह कोई तमगा हासिल कर लेता है, उसे हम हीरो बना देते हैं. हीरो वह तमगा हासिल करने के बाद बनता है, कोई तमगा हासिल करे, ऐसा हीरो बनाने का सिस्टम देश में काम करते नहीं दिखता. दुनिया की कुल जनसंख्या में एक बड़ा योगदान देती हमारी जनता में क्या कोई ऐसे वीर-धीर, बलवीर खिलाड़ी-योद्धा हैं या नहीं...? हैं तो सामने क्यों नहीं आ पाते...? सामने आते हैं तो जीत क्यों नहीं पाते...? सामने नहीं आते, तो क्यों नहीं आ पाते...? गलती देश की है या खिलाड़ियों की...? पदक नहीं आते तो खिलाड़ी माफी देश से मांगें या देश खिलाड़ियों से मांगे कि वह उन्हें ठीक से तैयार ही नहीं कर पाया, ज़रूरी सुविधाएं और संसाधन नहीं दे पाया...!

ओलिम्पिक इतिहास में हमने इस बार इतिहास दर्ज करते हुए 119 लोगों का अब तक का सबसे बड़ा दल भेजा. हमारे पास बताने को संख्या के अलावा इससे बड़ी उपलब्धि क्या है...? क्रिकेट में हम महज 14 खिलाड़ियों को भेज पाते हैं, इसलिए वहां तो लिमिटेड कोटा ही है. तगड़ा कॉम्पिटिशन है. अलबत्ता खेल से सबसे बड़ा बाज़ार बने फटाफट किकेट (IPL) में सरेआम नीलामी के ज़रिये न केवल देश के खिलाड़ियों को मैदान में उतारा, विदेशी खिलाड़ियों तक को देश की सीमाओं के परे खेलने पर मजबूर कर दिया. इसमें न सरकार का रोल है न खिलाड़ियों का, क्योंकि बॉल के अलावा मैदान में रुपया भी नाचता है, इसलिए सूखे में भी सब संभव हो जाता है. लेकिन ओलिम्पिक के आंगन का तो पूरा आसमान ही खाली है. अपार संभावनाएं हैं.

ओलिम्पिक की बात करते हुए, क्रिकेट का यह विलाप आपको विचित्र लग सकता है, लेकिन सच तो यही है कि जब हॉकी जैसे आठ-आठ बार ओलिम्पिक में स्वर्ण पदक का तमगा दिलाकर देश का सिर फख्र से ऊंचा करने वाले खेल के खिलाड़ी उद्घाटन समारोह में नाप के कपड़े तक न होने की वजह से बाहर बैठे रह जाते हैं तो विलाप क्यों न हो...? विलाप क्यों न हो, जब खिलाड़ियों को बैठने के लिए नट-बोल्ट कस खुद कुर्सियां कसनी हों. जब हॉकी सरीखे खेल के खिलाड़ी टीवी स्क्रीन पर इन ख़बरों के साथ सामने आते हों तो भूल जाइये आप कि रियो से कोई सनसनाती गोल्ड हासिल करने की ब्रेकिंग न्यूज आएगी...! आएगी भी, तो माफ कीजिएगा, आपकी वजह से नहीं आएगी. वह एकाध कोई सुशील कुमार होगा, एकाध कोई अभिनव बिंद्रा होगा. हमने अपनी सारी तालियां अर्से से क्रिकेट के खुदाओं के नाम कर रखी हैं.

मज़े की बात यह है कि इन महान खिलाड़ियों के खेल पर तालियां पीटते हुए, दीवाना होते हुए, इनकी हर सांख्यिकी को याद रखते हुए और गाहे-बगाहे क्रिकेट भक्ति में अपने ज़रूरी काम छोड़ते हुए भक्त खुद क्रिकेट खेलते भी हैं तो टेनिस की बॉल से. टेनिस की बॉल शरीर पर लगने से दर्द नहीं देती, पर टेनिस की बॉल से कितने खिलाड़ी असली कठोर लेदर की बॉल झेलने लायक बनते हैं. हां, यह दर्द ज़रूर देती है. जब इसकी दीवानगी में पड़कर कोई बच्चा जिमनास्टिक्स का मास्टर नहीं बन पाता, कोई बच्चा हॉकी की स्टिक को ध्यानचंद की तरह नहीं पकड़ पाता, कोई बच्चा किसी नदी में कमाल के करतब दिखाते हुए भी ओलिम्पिक के तरणताल का फेल्प्स क्यों नहीं हो पाता... तब बहुत दर्द होता है.

हो सकता है, यह पड़ताल बिल्कुल भी सहीं न हो. मैं खेलों के बारे में एक सामान्य पत्रकार जितनी ही रुचि और दखल रखता हूं. आप इससे ठीक उलट क्रिकेट को भगवान साबित करते हुए भी कोई पड़ताल को सामने रख सकते हैं, लेकिन कृपया मुझे ठीक-ठीक बताइये कि हर चार साल में हम ओलिम्पिक में मुंह लटकाकर भला क्यों चले आते हैं...? क्या खिलाड़ियों को खिलाड़ी बनाने वाली हमारी ट्रेनिंग ठीक-ठाक है. क्या खिलाड़ियों को प्रश्रय देने वाली हमारी नीतियां ठीक-ठाक हैं. हम कैसे इन खेलों से कोई पदक लाने की उम्मीद करें, जबकि खेल एवं युवा मंत्रालय खेलों के लिए ओलिम्पिक जैसे सालों में भी महज़ 900 करोड़ रुपये आवंटित कर रहा हो, इससे ठीक उलट अकेले भारत में बोर्ड ऑफ क्रिकेट कंट्रोल की वार्षिक रिपोर्ट में यह राशि 3,139 करोड़ नज़र आती हो.

अच्छा लगेगा, कोई आकर इन सारी बातों को झूठ साबित कर दे. सरकार इसे गलत करार दे दे. बता दे - नहीं, हमने दूसरे खेलों के प्रोत्साहन में किसी भी बोर्ड से अधिक राशि खर्च की है. ज्यादा नहीं, चलो बराबर ही खर्च किया है. खेलप्रेमी जनता बता दे कि मेडल नहीं जीतने के बाद भी उसने खिलाड़ियों का जीभर स्वागत किया है. चलो जीते न सही, वहां तक पहुंचे तो. खेल हार-जीत है, मजा तो उसके हर पल हारने या जीतने के रोमांच में है. कोई यह जिम्मेदारी ले ले, हिन्दुस्तान के चप्पे-चप्पे पर बिखरी प्रतिभा को वह खोजेगा, प्रोत्साहित करेगा और बिना किसी बाधा के अगले-अगले-अगले ओलिम्पिक में उसे अपने सही मुकाम तक पहुंचा देगा, ताकि हमें शर्मिन्दगी से महज़ खिलाड़ियों की संख्या न दिखानी पड़े, हम गर्व से वह तमगे दिखाएंगे, जो हमने हासिल किए हैं, किसी तुक्के से नहीं, हाड़तोड़ मेहनत से.

और हां, क्रिकेट से कोई बैर नहीं, और क्रिकेट अन्य खेलों का दुश्मन भी नहीं. बैर उसकी भक्ति से है. क्यों न हम खेलों में ऑस्ट्रेलिया हो जाते हैं, क्रिकेट में भी जीतते हैं और ओलिम्पिक में भी सिर ऊंचा करके आते हैं.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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