अब यह सुनने में थोड़ा अटपटा लगेगा, लेकिन जंगल से सटे एक गांव के उस बुजुर्ग के मुंह से निकली यह सच्चाई हमें बताती है कि परतंत्र होने का मतलब ऐसा भी होता है. गर्मी के चलते तकरीबन सूख चुके एक कुएं के ठीक बाजू में एक पेड़ की छांव तले जब बातचीत के लिए गांव के कुछ लोग जमा हुए, तो एक व्यक्ति की नई सफेद बंडी, लंबा सफेद गमछा, जिसे लुंगी की तरह लपेटा गया था, में हल्दी से पुते शरीर और उनींदी आंखों को देखकर ही समझ में आ रहा था कि पिछली रात ही उनके घर में विवाह समारोह हुआ है. इससे बातचीत विवाह की तरफ मुड़ गई और होते-होते यहां तक पहुंची कि 50 साल पहले इस गांव मे शादी कैसे होती होगी, उसमें कितना खर्चा होता होगा, और उसकी व्यवस्था लोग कैसे करते होंगे, क्योंकि इस शादी के लिए तो उनके पिताजी को कर्ज़ लेना पड़ा था, वह भी साहूकार से.
यह चर्चा मध्य प्रदेश के सतना जिले के पिंडरा पंचायत के एक टोले किरायपोखरी में हो रही है. यह एक नदी के किनारे बसे 25-30 परिवारों का टोला है. नदी सूखी है, पहले कभी इस नदी में गर्मी में भी पानी हुआ करता था, लेकिन पुल नहीं था. पुल की वजह से गांव में बारातें पानी ज्यादा होने पर अक्सर नदी के उसी तरफ रुक जाया करती थीं, अब इस नदी पर पुल बन गया है, और पानी गायब है. यह मझगवां ब्लॉक में आता है और मझगवां चित्रकूट के पास है. वही चित्रकूट, जहां भगवान राम ने वनवास के दौरान लंबा समय जंगलों में कंद-मूल-फल खाकर बिताया. बाद में इन्हीं घने जंगलों में डाकुओं का खौफ भी रहा, लेकिन बात न राम की है, और न डाकुओं के खौफ की है.
बात तकरीबन 70 साल पार कर चुके उस बुद्धा मवासी की है, जो हमें बता रहा है कि जब उन्हें पिता के रूप में अपनी बेटी का विवाह करना था, तो सिर्फ दो दिन जंगल जाने से पूरा इंतजाम हो गया था. बात ज्यादा पुरानी नहीं, 40 साल पुरानी ही तो है. महज़ 16-17 पसेरी चिंरोजी जमा करके बेचने से उन्होंने बड़े आराम से शादी जैसा बड़ा काम कर लिया था. यकीनी तौर पर शादी और महंगाई उस वक्त ऐसे नहीं हुआ करती होगी, जैसी आज है, लेकिन इसके बावजूद गांव के सभी लोगों को पंगत तो खिलानी ही पड़ती थी. जंगल के नजदीक बसे इस आदिवासी के लिए जंगल इस तरह से एक भरोसा पैदा करता था.
ठीक उसी गांव में अब रज्जू मवासी ने 2019 में अपनी बेटी की शादी के लिए 10,000 रुपये का कर्ज़ लिया है, वह भी नदी के उस तरफ बड़े लोगों की बस्ती के साहूकार से. जब हम बैंक से कर्ज़ लेते हैं, तो हमें 100 रुपये पर 10 रुपये चुकाने होते हैं, इसका एक लिखित हिसाब-किसाब होता है, लेकिन साहूकारों का ब्याज़ किस तरह चलता है, इसके सैकड़ों किस्से हम किताबों में पढ़ते रहे हैं या सिनेमा में देखते रहे हैं. प्रेमचंद के जमाने के किस्से आज भी इस समाज में मौजूद हैं - यही इस समाज की त्रासदी है, इसका श्रेय आप प्रेमचंद सरीखे साहित्यकारों की दूरदृष्टि को न देकर अपने हिस्से का कलंक समझकर देखें, तो हो सकता है, समाज के लिए ज्यादा फायदेमंद हो, अलबत्ता इस गांव के लोग 10 रुपया सैकड़ा के ब्याज़ पर रकम उधार लेते हैं, यह ब्याज़ हर महीने जुड़ता चला जाता है, और इसके बदले मज़दूरी करनी होती है.
किराईपोखरी गांव के ही तिजोरिया मवासी ने हमें बताया कि पिछले साल उन्होंने भी ऐसे ही साहूकार से 10,000 रुपये उधार लिए थे. उनका बेटा उसी ज़मींदार के यहां मजदूरी करता था, यह एक तरह की बंधुआ मजदूरी होती है, और इसके बाद जब गेहूं की फसल निकालने के बाद उसने पांच महीने की मजदूरी मांगी तो उसे यह कहकर पांच महीने की मजदूरी नहीं दी गई, कि उसके पिताजी ने कर्ज लिया था, उसके बदले में वह रकम रख ली है, जबकि उसके पिताजी ने रकम लौटा दी थी.
सूखे, पाले और अन्य मौसमी मार, सरकारी योजनाओं के न पहुंचने और कानूनों का पालन न किए जाने की चुनौतियों के बीच ऐसे बदहाल भारत का राष्ट्रवाद सीमित दायरे में सिमट जाता है, यहां तक कि उसका जंगल, उसकी नदी, उसके खेत और उसके पशु-पक्षी तक अब उसके नहीं, जो उसे स्वावलंबी बनाते थे.
इसलिए ही जब हम मुजफ्फरपुर में मरते बच्चों को देखते हैं, कुपोषण के कहर को देखते हैं, तो उसे एक घटना मान लेते हैं, इस पर विचार नहीं करते कि एक सक्षम समाज को दूसरों पर कैसे निर्भर कर दिया गया, डेढ़ सौ बच्चों की मौतों को भी उसी तरह भुला दिया जाएगा, जिस तरह गोरखपुर, या उससे पहले के अन्य मामले, जो हमें सचुमच याद ही नहीं आते, लेकिन वह गंभीर चिंतन और पहल कब शुरू होगी, जब हम एक ऐसे भारत का सपना देखेंगे, जो बच्चों की मौतों से मुक्त हो.
(राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...)
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