अरविंद केजरीवाल को शायद नौ माह भी नहीं देगी दिल्ली की जनता

नई दिल्ली:

तो अपने आपको जनता का मुख्यमंत्री बताने वाले अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन ही गए। 70 सीटों में से 67 सीटें जीतने का मतलब है कि फिलहाल तो जनता ने उन्हें अपना मुख्यमंत्री मान ही लिया है, लेकिन केजरीवाल की चुनौती भी यहीं से शुरू होती है।

अब उन पर जनता की उम्मीदों का भयंकर दवाब होगा और हर दिन यह सवाल भी मुंह बाए खड़ा रहेगा कि वह जनता की इन उम्मीदों को कैसे पूरा करेंगे? कैसे उन सपनों को हकीकत में बदलेंगे जो उन्होंने जनता को दिखाये हैं? वह भी तब जब उन्होंने दिल्ली की जनता से एक नहीं 70 वायदे किए हैं।
 
10 फरवरी को जब चुनावी नतीजे 'आप' (आम आदमी पार्टी) के पक्ष में आ रहे थे तब आम आदमी पार्टी के दफ्तर में यह नारा बहुत गूंज रहा था- 'पानी के बिल माफ ,बिजली के बिल हाफ और कांग्रेस, बीजेपी साफ'। इसी दौरान केजरीवाल ने कहा था, इस तरह की जीत देखकर मुझे अंदर से बहुत डर भी लग रहा है।

केजरीवाल ने खुलकर तो नहीं कहा, लेकिन उन्हें भी शायद इस बात का एहसास है कि सत्ता की राह आसान नहीं है। शायद यही कारण है कि कैसे इस वादाखिलाफी का ठीकरा केन्द्र के मत्थे फोड़ा जाए इसकी भूमिका शपथ लेने से पहले ही लिखी जाने लगी थी।

टीम केजरीवाल भलीभांति इस बात को जानती है कि दिल्ली की सवा करोड़ जनता से किए वायदों में से ज्यादातर को पांच साल में भी पूरा नहीं किया जा सकता। तभी तो प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक से हुई मुलाकात में दिल्ली को राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग छेड़ दी गई है, जबकि ये बात उन्हें भी पता है कि इस मांग को पूरा करना केन्द्र के लिए तो खासा मुश्किल है ही, कुछ हद तक दिल्ली के हित में भी नहीं है। अगर राज्य का दर्जा दिया गया तो दिल्ली को केन्द्र की ओर से मिलने वाले बजट का बड़ा हिस्सा उसे नहीं मिलेगा।

बात सिर्फ बजटभर की नहीं है और भी कई विभागों को लेकर दिक्कत आनी शुरू हो जाएगी। मसलन अगर लाल किले का हिस्सा केन्द्र के जिम्मे आएगा तो दरियागंज और चांदनी चौक जैसे व्यावसायिक केन्द्र के हिस्से आ जायेंगे तो फिर दिल्ली को होने वाले राजस्व के नुकसान की भरपाई कौन करेगा? वैसे भी दुनिया में कहीं भी देश की राजधानी को राज्य का दर्जा नहीं दिया गया है।  

अपने 49 दिनों की सरकार ‘आप’ ने जन लोकपाल बिल के नाम कुर्बान कर दी। तब आम लोगों ने खुलकर नाराजगी दिखाते हुए कहा था कि हमनें मुफ़्त बिजली-पानी और सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों को लेकर केजरीवाल को चुना था बाकी मुद्दे कोई खास मायने नहीं रखते हैं। लिहाजा इस बार हर जगह चुनावी सभाओं के दौरान केजरीवाल ने कहा कि कुछ भी हो जाए पांच साल कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। अब अगर पांच साल अपने पद पर बने रहेंगे तो उन्हें जनता से किए वायदे तो पूरे करने ही होंगे। सिवाय ‘आप’ के नेताओं को छोड़कर ज्यादातर लोगों से पूछें तो हर कोई यही कहेगा ये लगभग असंभव है। अगर चंद वायदों को छोड़ दें तो ज्यादातर वायदे वे तब तक पूरे नहीं कर सकते जब तक केन्द्र सरकार की हरी झंड़ी नहीं मिले। अब ये केन्द्र सरकार पर निर्भर करता है कि वे दिल्ली की चुनी हुई सरकार के वायदे पूरे करने और केजरीवाल को दिल्ली के साथ-साथ आस-पास के राज्यों में अपना जनाधार बढ़ाने में किस हद तक सहयोग करें!
 
ध्यान रहें, जब आम आदमी पार्टी चुनावों के दौरान जनता के बीच गई थी तो यह बात उन्होंने कहीं नहीं कही थी कि वे अपने वायदे तब तक पूरे नहीं कर सकते जब तक केन्द्र सरकार सहयोग न दें, हालांकि जब वह अपना घोषणापत्र जारी कर रहे थे तो पत्रकारों ने यह सवाल जरूर पूछा था कि आप कैसे इन वायदों को पूरा करेंगे तब ‘टीम केजरीवाल’ का कहना था कि हम केन्द्र से सहयोग मागेंगे और अगर जनता की परेशानियों की चिंता होगी तो वह जरूर मदद करेंगे।

वैसे केन्द्र के सामने दिल्ली जैसे कई राज्य हैं और उसे बिना किसी भेदभाव के सबकी मदद करनी है। हरियाणा ने पहले ही साफ कर दिया है कि हमारे राज्य के पानी पर ही दिल्ली निर्भर न रहे यानी कोई दूसरा विकल्प भी खोजे। यही बात बिजली के लिए हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्य भी कह सकते हैं।
 
अगर 49 दिनों में आप सरकार ने दिल्ली के लोगों को बिजली की दरों में जो रियायत दी थी उसके लिए बिजली कंपनियों को 200 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गयी थी। अगर इस बार दिल्ली की नई सरकार अपने चुनावी घोषणापत्र  के मुताबिक, लोगों को बिजली और पानी पर सब्सिडी देती है तो एक साल में इस पर करीब 1900 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

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बिजली-पानी के अलावा फ्री वाईफाई, 500 स्कूल, 20 कॉलेज, 15 हजार कैमरे, हर बस में एक गार्ड, चार हजार डॉक्टरों की भर्ती, 15 हजार पैरामेडिक्स, दो लाख पब्लिक टॉयलेट्स, नया पावर स्टेशन, 8 लाख नई नौकरी जैसे कई वायदे भी उसे पूरे करने हैं। इस पर कितना खर्च होगा फिलहाल अनुमान लगा पाना भी मुश्किल है। ऊपर से 'आप' ने यह भी कह रखा है कि वह दिल्ली में वैट की दर देश में सबसे कम करेंगी जबकि दिल्ली की आमदनी का सबसे बड़ा जरिया यही है। तो आखिर पैसा आएगा कहां से? वैसे भी दिल्ली का कुल बजट करीब 37 हजार करोड़ का ही है, जो सामान्य खर्च चलाने के लिए ही पर्याप्त है।
 
वैसे, अगर जितने वायदे केजरीवाल ने किए उसके आधे भी ईमानदारी से पूरे करें तो शायद दिल्ली की जनता उन्हें एक बार और मौका दे सकती है और शायद देश के कुछ और राज्यों में उनका खाता खुल जाए और दूसरी पार्टियों को सुधरने का मौका। लेकिन यदि घोषणापत्र के वायदे ‘कागजी’ साबित हुए तो टीम केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि जो जनता मोदी को सिर-आंखों पर बिठाने के बाद महज नौ माह में ही धूल चटा सकती है वह शायद केजरीवाल को इतना वक्त भी न दे।