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This Article is From May 19, 2021

कोरोना संकट में मोदी सरकार की गंभीरता पर सवाल

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 19, 2021 00:13 am IST
    • Published On मई 19, 2021 00:13 am IST
    • Last Updated On मई 19, 2021 00:13 am IST

भारत सरकार के दो मंत्रालय की कहानी बताता हूं. एक स्वास्थ्य मंत्री हैं डॉ हर्षवर्धन और एक शिक्षा मंत्री हैं रमेश पोखरियाल निशंक. रमेश पोखरियाल डॉक्टर नहीं हैं लेकिन अलग से वो दवा बंटवा रहे हैं जिसे डॉ हर्षवर्धन तो नहीं बंटवा रहे मगर उसके लांच में गए थे. कोरोना के इलाज के लिए सरकार ने जो गाइडलाइन जारी की है या डॉ हर्षवर्धन ने जो ट्वीट किया है उसमें डार्क चाकलेट तो है मगर कोरोनिल नहीं है. जो रामदेव की दवा है. क्या शिक्षा मंत्री वो दवा बंटवा सकते हैं जिसका ज़िक्र ICMR ने अपनी गाइडलाइन में नहीं किया है? इतने लोगों की मौत के बाद क्या हम इस तरह से कोरोना से लड़ रहे हैं?

यह ट्वीट शिक्षा मंत्रालय के ट्वि‍टर हैंडल से किया गया है कि शिक्षा मंत्री ने योग गुरु रामदेव से आग्रह किया है कि हरिद्वार के 2500 कोविड मरीज़ों को उनके सामान्य रूप से चल रहे उपचार के साथ ही कोरोनिल भी दिया जाए. शिक्षा मंत्री किस जानकारी के आधार पर कोरोनिल बंटवा रहे हैं? 22 अप्रैल को आईसीएमआर ने अपनी गाइडलाइन में बताया है कि किस दवा के ज़्यादा इस्तमाल से क्या खतरे हैं लेकिन उसमे कोरोनिल का कोई ज़िक्र नहीं है. 17 मई को जारी की गई उपचार की गाइडलाइन में भी इसका कोई ज़िक्र नहीं. कोरोनिल को लेकर इंडियन मेडिकल संघ ने विरोध किया है. IMA ने स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन से सवाल किया था कि वे कोरोनिल के लांच पर क्यों गए थे? 22 फरवरी को IMA ने कहा था कि अगर कोरोनिल से कोरोना को रोका जा सकता है तो सरकार टीकाकरण पर 35000 करोड़ क्यों खर्च कर रही है. शिक्षा मंत्री अलग से स्वास्थ्य मंत्री का काम कर रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी को पता ही होगा. अगर मंत्री अपनी तरफ से कोई दवा बंटवा रहे हैं तो फिर सरकार को जवाब देना चाहिए.

कुछ छात्र होते हैं जिन्हें पता है कि प्रिंसिपल की डांट पड़ेगी लेकिन उन पर उस डांट का कोई असर नहीं होता. बस वे प्रिंसिपल के सामने डरते हुए खड़े होने का बहाना करते हैं, डांट खाते हैं और छुट्टी के बाद पूरे प्रसंग पर हंसी मज़ाक करते हैं. वापस वही सब करते हैं जिसके लिए डांट पड़ती है. कोविड के मामले में कोर्ट की फटकार सुन रहे अधिकारियों का भी लगता है यही हाल हो गया है. अप्रैल और मई के महीने में कोर्ट की फटकार अगर आप एक जगह जमा करेंगे और हालात पर नज़र डालेंगे तो पता चलेगा कि फटकार अपनी जगह है और सरकार अपनी जगह है. अधिकारियों के लिए अदालत की फटकार भी एक किस्म की पुचकार और दुलार हो गई है.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पहली बार यूपी सरकार को नहीं फटकारा है. इस बार की टिप्पणी है कि राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था राम भरोसे है. मुझे तो चिन्ता इस बात की है कि बहुत से लोग इसे कहीं तारीफ न समझ लें. कि अब सब ठीक है क्योंकि राम भरोसे है. लेकिन उन्हें समझना होगा कि इस प्रसंग में राम भरोसे का मतलब अलग है. तेरा राम ही करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को करे रे. मेरे इस प्रिय भजन को यहां लागू न करें कि अस्पताल नहीं होगा, डाक्टर नहीं होगा, दवा नहीं होगी तो राम जी बेड़ा पार कर देंगे. राम जी ने मना नहीं किया था कि महामारी आने के एक साल कोई कुछ करे ही न. इस बात को लेकर बिल्कुल उम्मीद न रखें कि अदालत के यह कह देने के बाद कि यूपी की स्वास्थ्य व्यवस्था राम भरोसे हैं सारी चीज़ें बदलने लगेंगी और आपका भरोसा अस्पतालों में बढ़ने लगेगा. लेकिन यह मामला था क्या जिसकी सुनवाई करते समय अदालत को यह टिप्पणी करनी पड़ी?

21 अप्रैल को संतोष कुमार मेरठ के ज़िला अस्पताल में भर्ती हुए. एक दिन बाथरूम गए और वहां बेहोश होकर गिर गए. इस मामले की जांच के लिए कोर्ट ने तीन सदस्यों की कमेटी बना दी. कमेटी ने कहा कि डॉ तुलिका ने बताया कि नाइट ड्यूटी पर तैनात डॉ अंशु वहां मौजूद नहीं थे. संतोष कुमार को स्ट्रेचर पर लाया गया, उन्हें होश में लाने की कोशिश हुई मगर बच नहीं सके. जब संतोष कुमार भर्ती हुए तो उस समय Dr. Tanishq Utkarsh ड्यूटी पर मौजूद थे. उन्होंने संतोष कुमार की बॉडी हटवाई और फिर शव का पता नहीं चला. उनकी गिनती अज्ञात शव में करा दी गई. अस्पताल में भर्ती मरीज़ों और मरने वालों की गिनती भी कराई गई लेकिन संतोष कुमार और अन्य मेडिकल स्टाफ को पार्थिव शरीर का पता नहीं चला. अदालत ने कहा है कि यह हैरानी की बात है कि मरीज़ को भर्ती करने वाले डॉ तनिष्क उसे पहचान नहीं सके. कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा है कि कोई कितने भी बड़े पद पर हो, ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. कोर्ट ने कहा है कि यह सीधे सीधे ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों की लापरवाही थी. संतोष कुमार की बेटी को जिस यातना से गुज़रना पड़ा है आप में से कई उस यातना से वाकिफ हैं. 21 अप्रैल को संतोष कुमार भर्ती हुए थे और 3 मई तक अस्पताल वाले संतोष कुमार को अपडेट देते रहे. संतोष कुमार के बारे में बेटी से झूठ बोलते रहे. 8 मई को बताया कि 23 अप्रैल को ही उनके पिता की मौत हो गई और परिवार वालों को पता नहीं चला तो अंतिम संस्कार कर दिया. शिफा शिवांगी का पुराना वीडियो सुन सकते हैं.

आम आदमी गलत इलाज और लापरवाहियों की फाइल बनाकर यहां से वहां भटक रहा है. कोई सुनवाई नहीं है. शिवांगी की तरह तमाम लोगों को अस्पतालों के भीतर और बाहर अपने अनुभव का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डालना चाहिए कि बाकी लोगों को पता चले कि किस यातना से गुज़रे हैं. कुछ नहीं तो सरकार का एक मंत्रालय जैसे कोरोनिल बंटवा रहा है उसी तरह एक मंत्रालय को लोगों के वीडियो डिलिट कराने का काम मिल जाएगा. ज़रूर काम पर नज़र होती तो जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस अजीत कुमार को यह नहीं कहना पड़ता कि राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था राम भरोसे हैं. कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जताई कि बिजनौर ज़िले में कोई लेवल-थ्री अस्पताल ही नहीं है. जो तीन सरकारी अस्पताल हैं उनमें मात्र 150 बेड हैं. केवल पांच बाइपैप मशीन हैं. हाई फ्लो नेज़ल कैन्यूला दो ही हैं. यह सच्चाई तो सब जानते हैं मगर इस बार फिर से दोहराई जा रही है. अगली बार भी फिर से दोहराई जाएगी क्योंकि अस्पताल बनाने, चलाने और चलते रहने के लिए जो बजट और स्टाफ चाहिए वो कभी पूरी नहीं की जाएगी. इस बीच सरकार बीमा का कोई नया कार्ड लांच कर देगी और लोगों को लगेगा कि बीमा के कार्ड से इलाज हो जाएगा भले अस्पताल न हो और अस्पताल में बेड न हो.

4 मई को इसी कोर्ट ने कहा था कि हमें इस बात का बहुत दर्द है कि अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई न होने से कोविड के मरीज़ मर गए. यह पूरी तरह से अपराध है और नरसंहार से कम नहीं है. उन लोगों के द्वारा नरसंहार है जिन पर यह जवाबदेही थी कि आक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करेंगे.

4 मई से 13 मई के बीच यही अंतर आया कि अदालत की फटकार नरसंहार से राम भरोसे पर पहुंची है. हमारे इस क्रूर समय की एक खूबी है. टैक्स के पैसे से जेएनयू क्यों चल रहा है इस पर बहस करने वाले लोग नजर नहीं आ रहे हैं. वो नहीं बता रहे हैं कि उनके टैक्स के पैसे अस्पताल क्यों नहीं चल रहा है. आक्सीजन क्यों नहीं मिल रहा है. इस समय टैक्स राष्ट्रवाद आश्चर्यजनक रूप से गायब है. वैसे जैसे जैसे केस कम होने की खबरें हेडलाइन में बड़ी हो रही हैं, व्हाट्सऐप ग्रुप के रिश्तेदार फिर से आईटी सेल का मैसेज फार्वर्ड करने लगे हैं. जो आपकी नियति में लिखा है वो कौन बदल सकता है.

उन्नाव ज़िले के बांगरमऊ ब्लाक का स्वास्थ्य केंद्र कूड़ा घर बन गया है. यहां पर आशा और आंगनवाड़ी केंद्र बनाया गया था. इसे देखकर आप कह सकते हैं कि हम कभी भी महामारी से लड़ने के लिए तैयारी कर रहे थे? दरअसल होता यह है कि इमारतें बना दी जाती हैं. प्रचार हो जाता है, उम्मीद की मार्केटिंग हो जाती है और फिर कुछ नहीं होता. आपको भारत भर में ऐसी अनगिनत इमारतें मिल जाएंगी जो बनकर कई साल से खड़ी हैं और कूड़े के ढेर में बदल चुकी हैं. कारण यही है कि इन्हें चलाने के लिए कोई बजट नहीं होता है.

ग्रामीण इलाकों से ऐसी खबरें आम हो चुकी हैं. कई गांव ऐसे हैं जहां बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई है. केवल बयानों में सुनने को मिल रहा है कि टेस्टिंग ठीक से होगी. जब शहर में नहीं हो सकी तो गांवों में कैसे होगी आप अंदाज़ा लगा सकते हैं. मरने वालों का कोई रिकार्ड तक नहीं है.

पिछले डेढ़ महीने के दौरान गुजरात हाई कोर्ट की टिप्पणी को निकाल कर देखेंगे तो लगेगा कि अदालत सरकारों को बेसिक काम तक बता रही है और सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. सोमवार को गुजरात हाईकोर्ट की टिप्पणी और सख़्त हो गई. गुजरात के संदेश अखबार के खबर की हेडलाइन में यह लिखा है कि क्या केन्द्र सरकार रेमडेसिवीर की कमी के कारण गुजरात के मरीजों को मरने देना चाहती है? गुजरात हाई कोर्ट को यह कहना पड़ा. जब गुजरात में रोजाना 25000 रेमडेसिवीर की मांग के बावजूद 16,115 इंजेक्शन ही देती है तो केन्द्र सरकार गुजरात के साथ सौतेली मां के जैसा सलूक क्यों करती है. अगर देश में रोजाना 1 करोड़ इंजेक्शन का उत्पादन  हो रहा है तो यह इंजेक्शन कहां जा रहे हैं? 

इस दवा की इतनी ब्लैक मार्केंटिंग हुई है, कई लोगों ने लाखों में बेच कर पैसे कमाए हैं, देश भर में, कई लोग इसे खरीदने में बर्बाद हो गए. नकली रेमडिसिवर बेचने की घटना तो अलग ही लेवल की है. हमारे समाज की नैतिक शक्ति वाकई विश्व गुरु के लायक ही है. उससे नीचे और कितना नीचे जा सकते हैं हम. Do you get my point. 27 अप्रैल को गुजरात हाईकोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार गुलाबी तस्वीर पेश कर रही है जबकि हकीकत कुछ और है. अब आते हैं बिहार. पटना हाईकोर्ट ने क्या कहा है.

पटना हाईकोर्ट कोविड की सरकारी व्यवस्था की निगरानी कर रहा है. राज्य के मुख्य सचिव अपनी रिपोर्ट में कोर्ट को बताते हैं कि बक्सर ज़िला में एक मार्च से केवल 6 मौतें हुई हैं. पटना के कमिश्नर अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि 5 से 15 मई के बीच बक्सर के एक श्मशान घाट पर 789 लाशें जलाई गई हैं. दस मई को 106 शवों का अंतिम संस्कार किया गया. कोर्ट ने पूछा है कि दोनों में से सच कौन है. 19 मई को इसका जवाब देना है. 30 अप्रेल को बिहार के मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह की कोरोना से मौत हो गई थी. इसके बाद भी नौकरशाही का ईमान नहीं हिला है. पहले की ही चाल से चली आ रही है. आप सोचिए जब कोर्ट के मुख्य सचिव एक महीने में केवल 6 मौतें बता रहे हैं और दूसरे अफसर 789 बता रहे हैं तो हकीकत में क्या हुआ है. 789 मौतों को 6 मौतें बताने का नैतिक साहस और रात को नींद कहा से आती होगी हम जानते हैं लेकिन नहीं बताएंगे. फर्क क्या पड़ता है. कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि छह मरे हैं या 789 सरकारी की वेबसाइट पर अपडेट तक नहीं किया गया है.

महामारी को मैनेज नहीं कर रहे हैं, मरने वालों की संख्या मैनेज की जा रही है ताकि कम बता सकें. जिनके घर मौत हुई है उन्हीं से झूठ बोला जा रहा है कि मौत नहीं हुई है. कोर्ट ने कहा कि मुख्य सचिव ने यह तक नहीं कहा कि बक्सर में छह मौतें हुई हैं वो कोविड से हुई हैं या नहीं. और पटना के डिविज़नल कमिश्नर ने यह नहीं बताया कि 789 मौतें गैर कोविड है या नहीं. अदालतें देरी कर रही हैं. उन्हें श्मशान और कब्रिस्तान के सारे रिकार्ड ज़ब्त कर लेनी चाहिए. अधिकारी बात घुमाते रहेंगे. यह तब है जब चार मई को पटना हाई कोर्ट ने कहा था कि सरकारी इंतज़ाम की हालत यह है कि महामारी की व्यवस्था सेना को सौंप देनी चाहिए. फटकार और सरकार में कोई तालमेल ही नहीं है. जैसा कि आप जानते हैं प्रधानमंत्री ने बयान जारी किया है कि राज्य सही आंकड़ा दें. ये हाल है आंकड़ों का. जहां उनकी पार्टी की सरकार चल रही है वहां भी यही हाल है.

वैशाली ज़िले की इस इमारत को सरकारी शब्दावली में हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर कहते हैं. कम से कम अंग्रेज़ी नाम नया मालूम पड़ता है. इमारत का अपना हेल्थ खराब है और उसे ही वेलनेस की ज़रूरत है. घोसुयल गांव में जब मनीष कुमार गए तो बाहर कुर्सियां पड़ी थीं. इमारत बंद थी. कुछ दिन यहां टीकाकरण चला था लेकिन टीका न होने के कारण इस सेंटर को बंद कर दिया. बिग न्यूज़ यह है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोबाइल एप लांच कर रहे हैं ताकि घर में बीमार लोगों का पता लगाया जा सके. इतना अच्छा अस्पताल होते हुए अगर सरकार पता कर लेती है कि आप घर में बीमार हैं तो यकीनन आपका इलाज होगा. व्यवस्था का तो हो नहीं सकता क्या पता यहां इस इमारत में इलाज हो जाए. मनीष को लोगों ने बताया कि एक एक लाख रुपये देकर आक्सीजन के दो सिलेंडर खरीदे हैं. आम लोगों की जमा पूंजी लुट रही है. सरकार अदालत में फटकार फांक रही है.

हे आदरणीय ग्रामीण, विश्व गुरु अस्पताल बना कर नहीं बना जाता है. विश्व गुरु बना जाता है गोदी मीडिया के ज़रिए झूठ का प्रोपेगैंडा चलाकर. अस्पताल में बेड नहीं है तो क्या हुआ, हम क्यों नहीं विश्व गुरु बन सकते हैं. हम तो बिना वैक्सीन के ही वैक्सीन गुरु बन रहे थे.

हजारीबाग जिला मेडिकल कॉलेज में तो 200 आक्सीजन सिलेंडर की चोरी का मामला सामने आया है. जब एक व्यक्ति अपना सिलेंडर भराने डेमोटांड़ प्लांट गया तो वहां पूछने पर बताया कि किससे खरीदा है. पता चला कि 200 सिलेंडर की चोरी का मामला सामने आया है. पुलिस ने अस्पताल के प्रबंधक और चार अन्य को हिरासत में लेकर पूछताछ की है कि आखिर 200 सिलेंडर की चोरी कैसे हो गई.

अस्पताल से सिलेंडर चोरी हो जा रहा है, दवा और इंजेक्शन की ब्लैक मार्केटिंग हो रही है. यह सब पहले की भांति चल रहा है. बस जान बचाने के लिए जो होना था वो नहीं हो रहा है. वो अब हो रहा है जब बड़े शहरों में केस कम होने लगे हैं. आप देखेंगे कि इन दिनों 50-100 बेड के अस्पताल बनाने की खबरें तेज़ी से आने लगी हैं. जब लोग मर रहे थे तब इनका पता नहीं था. गांवों में किस तरह की तैयारी की गई थी और अब क्या तैयारी की जा रही है इसका अभी तक ठोस रूप से कोई हिसाब नहीं दिया गया है. इंडि‍यन मेडिकल एसोसिएशन के अनुसार पिछले साल कोरोना के कारण 730 डॉक्टरों की मौत हुई थी. इस साल कोरोना के कारण 244 डाक्टरों की मौत हो गई. 16 मई के दिन 50 डाक्टरों की मौत हुई है. एक दिन में 50 डाक्टरों की मौत हो जाए और ख़बर नीचे सरका दी गई. हम इसी तरह से तो पोज़िटिव होने की तरफ बढ़ रहे हैं. IMA के अनुसार केवल तीन प्रतिशत डाक्टरों को ही टीका लगा है.

16 मई को 50 डाक्टरों की मौत हो गई. IMA का कहना है कि यूपी में कोरोना के कारण इस साल 34 डाक्टरों की मौत हुई है और दिल्ली में 28. दिल्ली में 10 मई को डॉ शेखर अग्रवाल और 17 मई को डॉ के के अग्रवाल की मौत हुई है. मगर सबसे अधिक बिहार में 78 डाक्टरों की मौत हुई है.

महामारी की संख्या के बारे में देखा गया है जब ग्राफ तेज़ी से ऊपर चढ़ता है तो तेज़ी से नीचे भी आता है. हम नहीं जानते कि केस के कम होने में सरकारी हस्तक्षेप का क्या योगदान है? अगर केस की संख्या नीचे जा रही है तो फिर गांवों में इसके फैलने की खबर का डेटा किस खाते में जुड़ रहा है. सब कुछ राम भरोसे है. आप अपने टैक्स के पैसे से यही हासिल कर पाए हैं. मुबारक हो.

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