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This Article is From Oct 27, 2015

सुशील महापात्रा की कलम से : दाल की कीमतों ने मार डाला

Reported by Sushil kumar Mahapatra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 28, 2015 07:41 am IST
    • Published On अक्टूबर 27, 2015 18:34 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 28, 2015 07:41 am IST
एक समय ऐसा था कि जब कुछ नहीं तो लोग दाल-रोटी या दाल-चावल खा लिया करते थे, लेकिन अब यह  समय चला गया है। आम आदमी के लिए दाल सिर दर्द का कारण बनी हुई है। आम आदमी से लेकर ढाबा मालिक तक,  सब दाल की महंगाई से परेशान है।

यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं यह लाजपत नगर के पास बिहारी चौक की है। बिहार और पश्चिम बंगाल के तमाम रिक्शा वालों का यह अड्डा है। 1200  से भी ज्यादा रिक्‍शे वाले यहां रहते है। सड़क की पटरी और मेट्रो स्टेशन इनके घर हैं। रात को यहां सो जाते हैं और सुबह तैयार होकर अपने धंधे में लग जाते हैं। यह इनकी रोज की कहानी है।
 

दाल बनी सिर दर्द, सब्जी से चलाना पड़ रहा है काम
इस इलाका में कई छोटे ढाबे हैं, जो इन रिक्शा वालों के लिए बनाए गए हैं। ढाबा बनाने वाले लोग बिहार और पश्चिम बंगाल के हैं। सुबह-सुबह यहां दाल बननी शुरू हो जाती है। महंगाई की मार ने इन लोगों की कमर तोड़ दी है। महंगाई की वजह से रिक्शा वाले नाश्‍ता नहीं करते है बल्कि सुबह-सुबह दाल, चावल खा लेते हैं, लेकिन आजकल दाल, दाल नहीं बल्कि पानी बन गई है। दाल का दर्द सबके चेहरे पर नज़र आ रहा है। धनपति मंडल ने बताया कि पहले आधा किलो दाल में दस लोगों की काम चल जाता था, लेकिन अब आधा किलो दाल 25  लोगों के बीच एडजस्‍ट करनी पड़ती है। लोगों की थाली से दाल गायब हो गई है। एक बार से ज्यादा दाल नहीं मिलती है।
 

दाल की जगह सब्जी ने ले ली है। अरहर की दाल बननी बंद हो गई है। मूंग की दाल की जगह किसी दूसरी दाल ने ले ली है। दाल के दाम तो बढ़ गए, लेकिन ढाबा वाले थाली की कीमत नहीं बढ़ा सकते। दाम बढ़ने से खाने वाला भाग जाएगा और ढाबा जाएगा और ढाबा बंद हो जाएगा।

एक सादी थाली और चिकन थाली में कोई ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। सादी थाली के दाम 30 रुपए हैं जबकि चिकन थाली 40 रुपए में मिलती है। सादी थाली में दाल, चावल  सब्जी, भाजी देनी पड़ती है जबकि चिकन थाली में सिर्फ चिकन और चावल रहता है।

अब लोग सादी थाली के जगह चिकन थाली पसंद करने लगे हैं और ढाबे वालों को भी चिकन थाली में भी थोड़ा ज्यादा फायदा है। गरीब रिक्शा वाले पतली दाल को लेकर शिकायत भी नहीं करते है क्‍योंकि उनको पता है कि इतने सस्‍ते में दिल्ली में कहीं सादी थाली मिलनी मुश्किल है। यह लोग 30  रुपए में भरपेट खाना भी खाते है।
 

कई ढाबे बंद हो गए है
शैलेन दास कभी यहां ढाबा खोलकर बैठे थे, लेकिन महंगाई की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा। अब उन्‍होंने खुद का रिक्शा किराया पर दिया है। खाना बनाने वालों को रोज़ 300 रुपए देने पड़ते थे, लेकिन 300 रुपए में कोई काम करने के लिए तैयार नहीं है और अब इतना फायदा नहीं हो रहा कि इतनी मजदूरी दी जा सके।

सिर्फ उनके ही नहीं, कई लोग ढाबा बंद कर चुके हैं। बॉबी मंडल ने बताया कि वह दूसरे को मजदूरी नहीं दे सकते, इसीलिए अपने भाई लोगों को मदद करने के लिए गांव से बुला लिया है।

छोड़ना पड़ा किराये का घर, दूर हो गए घरवाले
यहां के कई  ढाबे वाले पहले किराये के कमरे में रहते थे। एक घर का किराया 3000 रुपया देना पड़ता था और एक कमरे में आठ से 10 लोग रह जाते थे, लेकिन महंगाई ने यह सब छीन लिया है। कमरे भी महंगे हो गए हैं। मकान मालिक एक कमरे में ज्यादा लोगों को रखने के लिए तैयार भी नहीं हो रहा है। अब ढाबे से कोई ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है। अब किराये का घर छोड़कर ढाबे के अंदर रहना पड़ता है। अब घरवाले भी मिलने नहीं आ पाते हैं।

यह सिर्फ एक इलाके की ही कहानी  नहीं है। हम कई इलाकों में घूमे। लगभग सभी जगह लोग दाल के दाम से परेशान है। किदवई नगर में श्रमिक के रूप में काम करने वाली सीता और गीता ने बताया कि उनके घर में दाल बनना बंद हो गया है। अगर हफ्ते में एक बार बन भी जाती है तो बहुत बड़ी बात है। हालांकि पिछले कुछ दिनों में दाल के दामों में कमी आई है, लेकिन इसका असर अभी तक इन इलाकों में दाल की कीमत तक नहीं पहुंचा है।

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