सुषमा स्वराज के होने के मायने

सुषमा स्वराज प्रतिशोधमूल राजनीति में कभी-कभी लगभग बर्बर हो उठने वाली विचारधारा के साथ जुड़ी रहीं और उसका एक सौम्य चेहरा बनी रहीं

सुषमा स्वराज के होने के मायने

सुषमा स्वराज इस देश के लाखों- बल्कि करोड़ों- लोगों की प्रिय नेता रहीं. वे शायद हाल के वर्षों की सबसे अच्छी वक्ता भी थीं. उनकी वक्तृता शैली अपनी सहजता और शुद्धता में वाजपेयी की ठहराव भरी नाटकीयता को मात करती थी और उसमें नरेंद्र मोदी की शैली वाली सत्ता की हनक नहीं थी. वे सरल और सहज थीं- हालांकि सरलता और सहजता की भी अपनी जटिलताएं और वक्रताएं होती हैं- इस बात को बहुत सारे दूसरे लोगों की तरह वो प्रमाणित करती थीं.

लेकिन इसमें शक नहीं कि उनमें दूसरों के दिल जीतने का गुण था. यह गुण उन्होंने अभिनय करते हुए अर्जित नहीं किया था, बल्कि यह कहीं उनके जीवन में करुणा के निजी गुण की तरह अनुस्युत था. विदेश मंत्री रहते हुए उन्होंने कूटनीति कम की, विदेश मंत्रालय को मानवीय शक्ल ज्यादा दी. इस्लामाबाद में खोई गीता नाम की एक मूक भारतीय लड़की को लगभग गोद ले लिया. ट्विवटर के सहारे कहीं अटके-कहीं भटके लोगों और परिवारों की वे अचूक मदद करती रहीं. नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता की लगातार होती विदेश यात्राओं के बावजूद भारत की विदेश मंत्री का कद अगर छोटा नहीं पड़ा तो इसलिए कि सुषमा स्वराज ने इसे एक अलग स्तर पर पुनर्परिभाषित कर दिया. जब वे सूचना प्रसारण मंत्री थीं और दूरदर्शन आकाशवाणी को स्वायत्त कर बनाई गई प्रसार भारती की अध्यक्ष बनी थीं तब प्रसार भारती बोर्ड के सदस्यों में चुने गए राजेंद्र यादव ने निजी बातचीत में उनकी संवेदनशीलता और समझ की तारीफ़ की थी.

इसमें संदेह नहीं कि भारतीय परंपरा में मानवीयता के कुछ उदात्त तत्वों के प्रति जो सहज आकर्षण है, वह सुषमा स्वराज में कूट-कूट कर भरा था. एक पारंपरिक भारतीय स्त्री की जो अपनी आधुनिक छवि हो सकती है, सुषमा उस पर बिल्कुल खरी उतरती थीं. आज भी सबको उनकी सौम्य साड़ी और बड़ी बिंदी याद आती रही. समकालीन भारतीय राजनीति में इस दृश्य साम्य में बहुत कम नेत्रियां उनके पास फटकेंगी. यह तुलना दिलचस्प हो सकती है कि वृंदा करात, स्मृति ईरानी या प्रियंका गांधी के बीच इस छवि में वह कहां बैठती थीं- लेकिन यह चर्चा फिर कभी.

इसमें शक नहीं कि सुषमा स्वराज को बीजेपी जितना रास आई, बीजेपी को सुषमा उससे ज़्यादा रास आती रहीं. वैसे तो पूरा भारतीय लोकतंत्र पुरुष वर्चस्व का मारा है और बाक़ी समाज की तरह राजनीति में भी महिलाओं को उनका स्वाभाविक हिस्सा देते राजनीतिक दलों को हिचक होती है, लेकिन संघ की जिस वैचारिक पृष्ठभूमि से पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी निकली, उसमें आधुनिकता के विचार के प्रति एक संदेह का भाव विद्यमान रहा है और स्त्री- बेटी, देवी या नारायणी- तो मान ली जाती है, लेकिन सत्ता की सहज अधिकारिणी नहीं मानी जाती. बेशक, नब्बे के दशक के बाद हालात बदले लेकिन यह सच है कि अरसे तक भारतीय जनता पार्टी में सुषमा स्वराज वह अकेली नेता थीं जो कई पुरुष नेताओं की कतार में अलग से दिखती थीं- और कभी-कभी उनको टक्कर देती नज़र आती थीं. सच यह भी है कि पार्टी ने उनको जितने मौक़े नहीं दिए उससे ज़्यादा चुनौतियां दीं. मदनलाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के झगड़े में पिसती दिल्ली बीजेपी में ठीक चुनावी साल में सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बना दिया गया- जो एक तरह से बलि का बकरा बनना था. कहते हैं, चुनावी हार के बाद सुषमा ने कहा भी था- 'घर को ही आग लगी घर के चिराग से.' इसी तरह 1999 में बेल्लारी में सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ सुषमा स्वराज को उतार कर पार्टी ने दूसरी बार उनकी बलि ली. सुषमा ने बिल्कुल जुझारू जज़्बे के साथ यह लड़ाई लड़ी.

बेशक, यह सुषमा स्वराज के आकलन का समय नहीं है, लेकिन ऐसा समय शायद बाद में फिर से नहीं आएगा जब हम यह समझने की कोशिश करें कि आख़िर भारत में तेजस्वी दिखने वाली नेत्रियां अंततः अपने दलों के वैचारिक खोल से बाहर क्यों नहीं आ पाती हैं. सुषमा स्वराज के संदर्भ में यह सवाल कुछ और इसलिए भी विडंबना भरा हो जाता है कि बीजेपी अंततः अपने वैचारिक रुझानों में गहरी सांप्रदायिक दृष्टि की शिकार दिखाई पड़ती है. सुषमा की पूरी राजनीति का दौर अयोध्या आंदोलन, बाबरी मस्जिद ध्वंस, 2002 के दंगों और बिल्कुल आख़िरी दौर में गोरक्षा के नाम पर होने वाली मॉब लिंचिंग का रहा है, लेकिन सुषमा जिस मुखरता के लिए जानी जाती हैं, उस मुखरता से इनमें से किसी विषय पर उन्होंने अपनी बात नहीं रखी. वे राम मंदिर के पक्ष में रहीं, धारा 370 को हटाने के पक्ष में रहीं- यह उनका वैचारिक पक्ष है और उनसे असहमत होते हुए भी इसका सम्मान किया जा सकता है- लेकिन वे हिंसा, दलित और स्त्री उत्पीड़न जैसे मसलों पर भी चुप रहीं- यह बात हैरान करने वाली है. उनका अपना राजनीतिक चौकन्नापन दरअसल उनकी मुखरता की सीमाएं तय करता रहा और उनकी चुप्पियां चुनता रहा. उनकी पार्टी के नेताओं ने जब महिलाओं के विरुद्ध अभद्र टिप्पणी की, तब वे चुप रहीं, जब एमजे अकबर पर एक के बाद एक यौन उत्पीड़न के आरोप लगे, तब वे चुप रहीं, लेकिन जब बेनी प्रसाद वर्मा ने जयाप्रदा पर टिप्पणी की तो उन्होंने उसका काफी तीखा विरोध किया जो उचित ही था.

फिर कहना होगा कि ऐसी चुनी हुई चुप्पियां सुषमा स्वराज के निजी स्वभाव की सीमा नहीं, भारतीय राजनीति की संस्कृति बन गई है. लगभग सभी दल- अपने यहां के अलोकतांत्रिक आचरण, अपने यहां के अमानवीय व्यवहार को लेकर- टिप्पणी करने से बचते हैं. अंततः हमारा सारा समर्थन और विरोध बहुत फौरी मुद्राओं में बदल जाता है, किसी स्थायी मूल्य का भरोसा नहीं दिलाता. सुषमा स्वराज से इनसे परे होने की उम्मीद करना एक वैचारिक बेईमानी है. लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि वे अंततः पुरातनपंथ को बढ़ावा देने वाली, भारतीय इतिहास और संस्कृति को इकहरे चश्मे से देखने वाली, प्रतिशोधमूल राजनीति में कभी-कभी लगभग बर्बर हो उठने वाली विचारधारा के साथ जुड़ी रहीं और उसका एक सौम्य चेहरा बनी रहीं.

लेकिन यह सौम्यता उनका वह मूल्य थी जिसने उन्हें लगभग सार्वदेशिक और सर्वदलीय स्वीकृति दी. भारतीय राजनीति के लगातार नीरस, कल्पनाशून्य, संस्कृतिविहीन होते जा रहे माहौल में उनकी सौम्य, शालीन उपस्थिति अंततः एक सुकून भरा दृश्य रचती थी. बेशक, उन्हें याद रखा जाएगा, याद रखा जाना चाहिए.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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