तनिष्क एक व्यावसायिक संस्थान है. वह क्रांति नहीं, कारोबार करने निकला है. उसने अपना जो विज्ञापन (Tanishq Ad) वापस लिया, उसमें भी किसी क्रांति की कोशिश नहीं थी- बस एक सदाशयता थी- भारत की सांस्कृतिक बहुलता के बीच रीति-रिवाजों और रिश्तों को सहेजने की सदाशयता. जब लोगों को ये सदाशयता मंज़ूर नहीं हुई, जब उनकी ख़ुर्दबीनी निगाहें यह देखने पर तुल गईं कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान, जब तनिष्क को लगा कि इससे उसके हितों पर चोट होगी तो उसने यह विज्ञापन वापस ले लिया. अब वह कोई दूसरा विज्ञापन दिखाएगा जिसमें परंपरा की खनक नहीं होगी, बस गहनों की चमक होगी. हम इसके लिए उसे दोष नहीं दे सकते.
पता नहीं, इस पूरे विवाद के बीच तनिष्क को कितना नुक़सान हुआ होगा, लेकिन एक समाज के रूप में हमारा नुक़सान ज़्यादा हुआ है. अपने-आप से हमारा यह पूछना बनता है कि हम कैसा समाज बना रहे हैं जिसमें कोई शख़्स या समूह एक सकारात्मक संदेश का इस्तेमाल करते हुए भी डरे? वह हर जगह हिसाब लगाता फिरे कि इससे कितने हिंदू नाराज़ होंगे या कितने मुसलमान?
इस पूरे प्रकरण में कई डरावनी बातें हैं. जो पहली डरावनी बात है, वह लव जेहाद जैसे फूहड़ पद का इस्तेमाल और उसकी वापसी. जिस भी सांप्रदायिक दिमाग़ ने यह शब्द ईजाद किया, वह प्रेम का भी विरोधी रहा होगा और अंतरधार्मिक विवाहों का भी. लेकिन इससे भी ज़्यादा वह अल्पसंख्यक विरोधी रहा होगा. तभी उसने यह सोचा कि प्रेम का इस्तेमाल करके भी कोई जेहाद किया जा सकता है. हालांकि इस ख़याल के पक्ष में एक भी ठोस तर्क उसके पास नहीं रहे होंगे. भारत में दुर्भाग्य से अब भी अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाहों के लिए सामाजिक स्वीकृति जुटाना आसान नहीं है. उच्च-मध्यवर्गीय तबकों में फिर भी अगड़ी जातियों के बीच संबंध पहले से ज़्यादा आम हुए हैं लेकिन अंतरधार्मिक विवाह तो अब भी गुनाह मान लिया जाता है. यह अलग बात है कि इसके बावजूद तमाम धर्मों में ऐसे लड़के-लड़कियां निकल आते हैं जो यह गुनाह करने को तैयार रहते हैं- चाहे इसके लिए घर छोड़ना हो या घर को मनाना-समझाना. ऐसे लोग किसी आधुनिक क्रांति के वाहक तो हो सकते हैं किसी दकियानूसी क़िस्म के ख़याल के नहीं. लेकिन इन्हें अचानक लव जेहाद से जोड़ा जा रहा है.
बेशक, भारत की पारिवारिक संरचना के भीतर लड़कियां एक पराये माहौल में रहने को ज़्यादा विवश होती हैं, लेकिन यहां भी हिंदू या मुस्लिम घरों के अलग-अलग बरताव की बात करना यह भूल जाना है कि भारतीय घरों में सबसे प्रचलित सास-बहू के झगड़े होते हैं जिसमें बहुएं अक्सर प्रताड़ित पक्ष होती हैं क्योंकि वे एक नए घर में कमज़ोर पड़ जाती हैं. लेकिन ऐसे अंतरधार्मिक विवाहों का प्रतिशत देखें तो शायद वह हमारे यहां होने वाली शादियों का हज़ारवां हिस्सा भी नहीं होगा. इसके आधार पर किसी क्रांति या किसी जेहाद की कल्पना ही असंभव है. इसके बावजूद बहुत सारे लोग लव जेहाद की इस कल्पना पर भरोसा करने को तैयार हो गए तो एक समाज के रूप में यह दूसरी डरावनी बात है.
लेकिन दरअसल ये दोनों चीज़ें- अंतरधार्मिक विवाहों को इजाज़त न देने का अभ्यास और उनके भीतर लव जेहाद खोजने की प्रवृत्ति- एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों उस बंद समाज की निशानियां हैं जहां कट्टरता विवेक को नियंत्रित-निर्देशित करती है, बल्कि विवेक को विवेक नहीं रहने देती. ध्यान से देखें तो भारत की सामाजिक समरसता के जो अलग-अलग खांचे हैं, उनके भीतर बहुत सारी कुरूपताएं भरी पड़ी हैं- जाति और धर्म से जुड़ी, धार्मिक और सामाजिक परंपराओं से जुड़ी, लैंगिक भेदभाव से जुड़ी. हमारी बहुत रंगीन और समावेशी दिखने वाली बहुत सारी परंपराओं को देखें तो पाते हैं कि हम दरअसल एक जड़ समाज हैं जो परंपरा के नाम पर बहुत सारा कूड़ा ढोए जा रहे हैं- यह देखे बिना कि वह हमारे समाज पर कितना भारी पड़ रहा है.
तनिष्क के विज्ञापन में भी एक समस्या यहां दिखाई पड़ती है जिसे कोई देखने को तैयार नहीं है. हिंदी की कवयित्री मोनिका कुमार ने एक दिलचस्प सवाल उठाया है कि गोदभराई की रस्म को इतना महिमामंडित करने की क्या ज़रूरत है. वे सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में लिखती हैं- 'यह 'गोद भराई' का इतना महिमामंडन क्यों ? गोद भराई के संदर्भ से स्त्री की प्रजनन शक्ति का कितना महिमामंडन करोगे? और इस ऑल वीमेन आयोजन में इतना क्या फेमिनिज्म है कि पिता की उपस्थिति ही नहीं है. उसकी गोद नहीं भरती क्या बच्चा होने से? औरअंतरधार्मिक शादी में लोग सिर्फ़ बहू के मायके में मनाते त्योहारों और रीति रिवाज़ों को लेकर ही इतने ऑब्सेसिव क्यों है, क्या सिर्फ़ त्योहार मना लेने से ही वह ऐट होम हो जाती है? अच्छा तो यह हो दोनों धर्मों के स्त्री विरोधी त्योहारों और आयोजनों का खंडन करके असली अंतरधार्मिक शादी सच में मिसाल बने.'
ख़तरा यह है कि इतनी सी बात पर मोनिका कुमार पर उन्हीं लोगों के हमले शुरू न हो जाएं जो तनिष्क के विज्ञापन पर हुए हमले का शोक मना रहे हैं. दरअसल एक समाज के रूप में हम धीरज से सोचने-समझने की क्षमता जैसे खोते जा रहे हैं. एक तरह का भीड़तंत्र हमारी मानसिकता पर काबिज़ हो रहा है. हमारे भीतर की सांप्रदायिक और जातिवादी संरचनाओं को जैसी नई खुराक मिल रही है. तनिष्क के विज्ञापन का विरोध इस प्रवृत्ति का ताज़ातरीन उदाहरण भर है. लेकिन यह खुराक क्या है? वह नफ़रत है जो दूसरे देशों के नाम पर फैलाई जाती है और यहां पोसी जाती है- यह बताते हुए कि पाकिस्तान में क्या हो रहा है या अफ़गानिस्तान और तुर्की में क्या हो रहा है, लेकिन यह भूलते हुए कि इस प्रक्रिया में हम भी पाकिस्तान, ईरान और तुर्की जैसे हुए जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर हम लगभग उन्मादी ढंग से सलूक करते हैं.
तुर्की की एक पत्रकार एस तेमेलकुरन ने एक किताब लिखी है- हाउ टु लूज़ अ कंट्री- सेवेन स्टेप्स फ्रॉम डेमोक्रेसी टु डिक्टेटरशिप. उसमें उन्होंने सोशल मीडिया और ट्रोलिंग पर भी लिखा है. याद रहे, जो लिखा है, वह तुर्की के अनुभव से लिखा है. वे कहती हैं,'आख़िरकार किसी ट्रोल का काम बहुत ओछा है. उनका मक़सद किसी मुद्दे पर चर्चा करना या किसी तर्क का खंडन करना नहीं होता, बल्कि बेपनाह आक्रामकता और शत्रुता के साथ संवाद के मंच को आतंकित करना होता है ताकि विरोधी विचार बचाव में चले जाएं. ट्रोल कद्दावर डिजिटल सांड होते हैं जिनको इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वे समुचित संवाद की शालीनता, तार्किकता और तथ्यपरकता को सोशल मीडिया के संसार से खदेड़ दें और सोशल मीडिया के दूसरे उपयोगकर्ताओं- 'आम लोगों'- के लिए बेलिहाज क्रूरता के वैतनिक रोल मॉडल बन जाएं जो स्वेच्छा से खुद को अनैतिकता की जनसेना (मिलिशिया) में सूचीबद्ध करा लें.'
क्या हम ऐसे डिजिटल सांडो से अलग हैं? इस बयान को उद्धृत करने का मक़सद बस यह याद दिलाना है कि सवालों में सिर्फ़ तनिष्क का विज्ञापन ही नहीं है, हमारा वह लोकतंत्र भी है जो तभी बचेगा जब हम विवेकवान नागरिक बनेंगे, उद्धत सांड़ नहीं. वरना इस लोकतंत्र को अगवा करने वाला पूंजीतंत्र पहले से सक्रिय है और उसके राजनीतिक एजेंट हर रोज़ हमारी नागरिकता को कुछ और ओछा बना रहे हैं.
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)
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