बाबूलाल चौरसिया पहली बार चर्चा में तब आए थे जब उन्होंने नाथूराम गोडसे की मूर्ति की पूजा की थी. दूसरी बार वे चर्चा में अब आए हैं जब मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता कमलनाथ ने उन्हें गुलदस्ता देकर कांग्रेस में शामिल कराया. बीच में वे हिंदू महासभा में रहे और पिछले दिनों उन्होंने ग्वालियर के वार्ड 44 से कांग्रेस के प्रत्याशी को हराकर पार्षद का चुनाव भी जीता.क्या गांधी के हत्यारे की पूजा करने वाले को कांग्रेस में जगह मिलनी चाहिए? कांग्रेस के भीतर भी यह कहने का कलेजा कम लोगों के पास होगा कि मिलनी चाहिए. हालांकि ख़ुद गांधी हृदय-परिवर्तन पर भरोसा करते थे और वे होते तो शायद मानते कि अगर उनके हत्यारे के विचार बदल गए हैं तो उसके लिए कांग्रेस के दरवाज़े खोले चाहिए. इसे वह अपनी हत्या की उपलब्धि मानते कि इसकी वजह से एक आदमी का हृदय परिवर्तन हुआ है. लेकिन क्या बाबूलाल चौरसिया का हृदय परिवर्तन हो गया है?
ख़ुद बाबूलाल चौरसिया का बयान इसकी पुष्टि नहीं करता. काश कि उन्होंने कहा होता कि कभी वे नाथूराम गोडसे को महान समझते थे और अपनी इस समझ पर अब वे शर्मिंदा हैं. वे गांधी की तरह किसी प्रायश्चित के लिए तैयार हैं. लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें पता ही नहीं था कि जिसका वे जलाभिषेक कर रहे हैं, वह गोडसे की प्रतिमा है. उनसे धोखे से यह काम कराया गया. कहने की ज़रूरत नहीं कि उनकी इस दलील पर किसी को भरोसा नहीं होगा- कमलनाथ तक को नहीं. अधिकतम यह समझ में आता है कि बाबूलाल चौरसिया पाखंड की उसी परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं जिसे कांग्रेस ने अपनी संस्कृति बना लिया है. इस लिहाज से वह कांग्रेस में शामिल किए जाने के सर्वाधिक सुयोग्य सुपात्र दिखते हैं.
इस टिप्पणी में तल्ख़ी चाहे जितनी हो, तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं. बीते तमाम वर्षों में कांग्रेस के लिए विचार से ज़्यादा अवसर महत्वपूर्ण रहे हैं जो उसे कम मिलते रहे हैं. चूंकि उसका निर्माण आज़ादी की लड़ाई के दौरान पनपी कोशिकाओं से हुआ है, इसलिए उसके गुणसूत्रों में उदारता और धर्मनिरपेक्षता के प्रति एक सहज आस्था है, लेकिन अक्सर उसके नेता अपने तात्कालिक हितों के लिए इन्हें भी दांव पर लगाते रहे हैं. दरअसल बीजेपी की सांप्रदायिकता को सबसे ज़्यादा तर्क कांग्रेस के इसी ढुलमुल रवैये ने सुलभ कराए हैं.
बाबूलाल चौरसिया के मामले पर लौटें. वे कांग्रेस में शामिल किए गए हैं, लेकिन इससे खुश बीजेपी होगी. आख़िर उसे कांग्रेस के बापू-प्रेम के पाखंड की खिल्ली उड़ाने का एक और अवसर मिल गया है. जिस हिंदू महासभा से बाबूलाल चौरसिया आए हैं, उस पर गांधी की हत्या का इल्ज़ाम है.बेशक, यह सच है कि भारतीय राजनीति में दलबदल और विचारबदल बस एक खेल रह गया है. कल के सांप्रदायिक रातों-रात धर्मनिरपेक्ष हो उठते हैं और कल के धर्मनिरपेक्ष रातों-रात खुद को राष्ट्रवादी बताने लगते हैं. दूसरे दलों में अपराधियों के प्रवेश पर उंगली उठाने वाले अपने यहां अपराधियों को देखकर आंख मूंद लेते हैं.
बीजेपी का जो विस्तार हुआ है, उसमें कांग्रेस से छिटके हुए धड़ों की बड़ी भूमिका है. मध्य प्रदेश की कुर्सी न मिलने से दुखी ज्योतिरादित्य सिंधिया अब बीजेपी में हैं और प्रधानमंत्री के गुण गा रहे हैं. यूपी प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं रीता बहुगुणा यूपी की ही बीजेपी सरकार में मंत्री बना दी गईं. यह सूची बहुत बड़ी है. पूर्वोत्तर, असम, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में कई नेता हैं जो पहले कांग्रेसी थे और अब भाजपाई हैं. लेकिन ऐसे नेताओं को शामिल करते हुए बीजेपी के भीतर यह दुविधा नहीं जागती कि वह अपनी विचारधारा के विरोधी रहे लोगों को अपने परिसर में क्यों जगह दे रही है. उसे मालूम है कि उसके पास सत्ता होगी तो वह अपना विचार थोप लेगी. तब ये सारे लोग उसके हथियारबंद दस्ते होंगे, विचारबंद सैनिक नहीं. वह अपने बहुमत को बहुसंख्यकवाद की राजनीति का वाहन बनाएगी और बना रही है. कई राज्यों में बीजेपी ने ऐसे ही दलबदल के ज़रिए सरकारें बनाई हैं. ऐसे हर अवसर पर वह 'कांग्रेस मुक्त' भारत का नारा देने से नहीं चूकती.
लेकिन यह दरअसल न बीजेपी मुक्त भारत बन रहा है और न कांग्रेस मुक्त भारत. यह विचारधारामुक्त भारत बन रहा है. इस विचारधारा मुक्त भारत में गोडसे की मूर्ति लेकर सोने वाला बाबूलाल चौरसिया अगली सुबह गांधी का चरखा लेकर जागता है और बताता है कि सपने में वह गोडसे को गांधी समझ बैठा था. लेकिन क्या ऐसा कोई समाज संभव है जो विचार या आस्था से परे हो या ऐसी कोई राजनीति मुमकिन है जिसकी कोई विचारधारा न हो? जो ख़ुद को किसी विचारधारा से मुक्त मानते हैं, वे भी अनजाने में किसी न किसी विचार का पोषण कर रहे होते हैं. असली ख़तरा यहां छुपा है. सिर्फ़ सत्ता को सूंघने वाली राजनीति अनजाने में- बल्कि जान-बूझ कर- पूंजी के पीछे चल पड़ती है, बाज़ार को और उसकी नियामत ताक़तों को अपना नियंता मान बैठती हैं. भारतीय राष्ट्र राज्य में उदारीकरण अगर एक स्थायी प्रक्रिया साबित हुआ है तो बस इसलिए नहीं कि हमने उसे अपने समाज के लिए उपयोगी पाया है, बल्कि इसलिए भी कि हर दल निजी पूंजी के हक में फ़ैसला सुनाने में अपना फ़ायदा देख रहा है. कारख़ाने चलाना सरकार का काम नहीं है, इस तर्क पर बेशक़ीमती राष्ट्रीय संपत्ति उन लोगों को बेची जा रही है जो कारख़ाने कम, इस देश को ज़्यादा चला रहे हैं.
दूसरी बात- इस विचारहीनता से ही वह खोखलापन निकलता है जिसमें लोग धर्म के नाम पर जबरन बनाया जा रहा एक मंदिर देखकर खुश होते हैं, देश के नाम पर पड़ोसी के साथ दुश्मनी और युद्ध का माहौल देखकर जोश में आते हैं और विकास के नाम पर हर अन्याय को जायज़ मानते हैं. यह अनायास नहीं है कि कई जगहों पर कांग्रेसजन भी राम मंदिर के लिए चंदा जुटाते बताए जा रहे हैं.ऐसी ही कांग्रेस में कमलनाथ बाबूलाल चौरसिया को कांग्रेस में लाकर ख़ुश हो सकते हैं. कांग्रेस में अगर ज़रा भी शर्म बची हो और अपनी ही राजनीतिक विचारधारा के प्रति सम्मान बचा हो तो उसे यह फ़ैसला पलटना चाहिए. बाबूलाल से कहना चाहिए कि वह कुछ गांधी को पढ़ें, उनसे सीखें और फिर कांग्रेस में आएं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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