पत्थरों के इस बाग में दाखिल होना दुनिया को एक नई निगाह से पहचानना है। यह समझना है कि हमारे आसपास बिखरी जो भी चीज़ें हैं, जिन्हें हम बेकार, बेमानी, असुंदर, अनुपयोगी मानकर अपने जीवन से दूर कर देते हैं, उनको चाहें तो अपने स्पर्श से कुछ और बना सकते हैं, उनमें एक जीवन, एक स्पंदन डाल सकते हैं।
संयोग से हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां सुंदरता के प्रति संवेदनशीलता घटती जा रही है। हर शै- ख़ुद सुंदरता भी- बस उपभोग और ख़रीद-बिक्री का सामान हो गई है। हर चीज़ दाम लगाकर मिलती है, उसी से तौली जाती है और काम के बाद फेंक दी जाती है।
हमारे जाने-अनजाने हमने पूरी सभ्यता को अपने उपभोग के कबाड़ में बदल डाला है। लेकिन इसी कबाड़ में एक आदमी उतरता है, पत्थरों में हरक़त और बेआकार चीजों में आकार खोजता है और धीरे-धीरे एक ऐसी बगिया बना और बसा डालता है, जिसमें पत्थर के फूल खिलते हैं, पत्थर के पेड़-पौधे उगते हैं, पत्थर की चिड़िया चहकती है, पत्थर के जीव-जंतु खेलते हैं और पत्थर के झरने बहते हैं। यह एक कलाकार का जादू है, जिसने पत्थरों को, और बहुत सारे फालतू कबाड़ को इस तरह देखा कि वे सांस लेने लगे, उनके बाल उग आए, और वह हमसे आंख से आंख मिलाकर बात करने लगे।
हमारा समय लगातार बढ़ते हुए पथरीलेपन का समय है- महाप्राण निराला की वेदना की तरह का- आज जीवन बह गया है, रेत ज्यों तन रह गया है। इस पत्थर जैसी सच्चाई का, इस रेतीलेपन का अगर कोई प्रतिकार है तो वह कला के भीतर है, संवेदना के भीतर है। यह कला सूखती जा रही है, यह संवेदना मरती जा रही है, क्योंकि हम उन्हें देखते भी हैं तो बस सैलानी निगाहों से, और आगे बढ़ जाते हैं।
काश कि हम रुकें, देखें और समझें कि यह जीवन अगर मूल्यवान है तो इसलिए कि हम उसे अपनी तरह से गढ़ते हैं, रूप और आकार देते हैं, नाम और पहचान देते हैं। यह संवेदना न हो तो जीवन पत्थर हो जाता है और अगर हो तो पत्थर भी सांस लेने लगता है।
This Article is From Jun 12, 2015
प्रियदर्शन की बात पते की : जब पत्थर सांस लेते हैं...
Priyadarshan
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Updated:जून 13, 2015 00:03 am IST
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Published On जून 12, 2015 23:56 pm IST
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Last Updated On जून 13, 2015 00:03 am IST
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