नई दिल्ली:
एक शंकराचार्य, एक साईंबाबा- बहुत सारे लोग होंगे जो दोनों को पूजते होंगे। बहुत सारे लोग होंगे जो मानते होंगे कि इनकी उंगली पकड़ कर वे इस जीवन के दुखों से पार पा लेंगे या फिर अगले जन्म में एक बेहतर जीवन हासिल करेंगे। बहुत सारे लोग ऐसे भी होंगे जो शायद इतना भरोसा न करते हों, लेकिन किसी उम्मीद या किसी अंदेशे में धर्म नाम की लीक पकड़े रहते हों।
शायद यह सोचते हुए कि क्या पता वाकई कहीं भगवान हो और सबके पाप देखता हो तो थोड़ा सा हमारे हिस्से का पुण्य भी देख ले और हमें माफ कर दे। इसी कोशिश में वह धमर्शालाएं बनवाता है, मंदिर बनवाता है, दान पात्र बनवाता है और अपनी काली या उजली कमाई का एक हिस्सा उस दान पात्र में डाल आता है।
यहां आकर हम पाते हैं कि धर्म कुछ और हो गया है, वह निजी आस्था नहीं है, वह अध्यात्म का परिसर नहीं है, किसी अदृश्य ईश्वर का घर नहीं है। वह हमारे भीतर का डर है, जिससे पार पाने के लिए हम मंदिर−मस्जिद और गुरुद्वारे बनवाते हैं और खुद को अपने ईश्वर को अपने धार्मिक ठिकानों को दूसरों से बेहतर बताते हैं।
अगर ऐसा न होता तो प्रेम को बढ़ावा देने वाला धर्म प्रतियोगिता को बढ़ावा न देता। अपने−अपने ढंग से ईश्वर को खोजने और पाने का दावा करने वाले धमर्गुरु दूसरे गुरुओं को संदेह से न देखते। वे धर्म के संगठनों को आतंक के संगठनों में न बदलते।
दरअसल हमारे समय में धर्म की त्रासदी यही है कि उसका मर्म खत्म हो गया है, उसकी राजनीति बची रही है, उसका कारोबार बचा रहा है। जिस तरह आवश्यकता आविष्कार की जननी है, उसी तरह आस्था आज इस कारोबार की जननी है।