यह ख़बर 04 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्रियदर्शन की बात पते की : 100 साल बाद शोक

नई दिल्ली:

आज की रात इंग्लैंड एक घंटे के लिए अपनी बत्तियां बुझा रहा है। सौ साल पहले यही वह दिन था जब उसने पहले विश्व युद्ध में शामिल होने का एलान किया था। बेल्ज़ियम याद कर रहा है कि इन्हीं दिनों सौ साल पहले उसकी छाती पर पहले विश्वयुद्ध के पहले घाव पड़े थे। फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया उन रातों का क़हर जी रहे हैं जब उनके बच्चे मारे गए। आज यूरोप मिल−जुल कर शोक मना रहा है कि उसने सौ साल पहले एक बेमानी युद्ध लड़ा।

आज की रात इतिहास से आंख मिलाने की रात है। लेकिन क्या वाकई हम इतिहास से आंख मिला रहे हैं। हम क्या वाकई शोक मना रहे हैं कि हमने एक बेमानी जंग लड़ी। ऐसी बेमानी जंग जो चार साल तक चलती रही और जिसमें डेढ़ करोड़ से ज़्यादा लोग मारे गए, लेकिन इसके बाद अमन की क़समें खाने के बावजूद नशे में डूबे और जुनून में अंधे किसी शख्स की तरह यूरोप एक युद्ध से दूसरे युद्ध तक चला गया। वह युद्ध भी शांति के नाम पर लड़ा गया जिसमें 6 करोड़ लोग मार डाले गए।

दुनिया की ढाई फ़ीसदी आबादी को ख़त्म करके युद्ध ख़त्म हो गया शांति नहीं आई। क्योंकि ताक़त का खेल और हुक़ूमत का ग़रूर बना रहा। ये यूरोप है जिसने पूरे आधुनिक दौर में कई मुल्कों पर हुक़ूमत की। एशिया और अफ्रीका को लूटा। चीन को अफीम चटाई भारत का रेशमी कारोबार तहस−नहस किया।

ये यूरोप है जो बीसवीं सदी के आख़िरी 50 बरस अमेरिकी और सोवियत खानों में बंटा एक शीत युद्ध जीता रहा। और ये यूरोप है जो अमेरिका को वियतनाम पर नापाम बम गिराता देखता रहा और कभी उसके साथ मिलकर इराक और अफगानिस्तान को तबाह करता रहा।

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आज भी फिलस्तीन की ज़मीन पर यूरोप और अमेरिका का बोया हुआ पौधा गाज़ा पट्टी में स्कूलों−अस्पतालों पर बम गिरा रहा है और दुनिया ख़ामोश है।
क्या इसलिए कि सौ साल बाद हम इन मारे गए बच्चों और मासूम नागरिकों का मातम मनाने फिर से इकट्ठा हों और अपनी घायल मनुष्यता का वास्ता देकर प्रायश्चित का दिखावा करें। सौ साल पुराने युद्ध के शोक में डूबे यूरोप की नम आंखें फिलस्तीन को क्या सौ साल बाद देखेंगी?