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This Article is From Feb 08, 2016

मिट्टी-सोना सब छोड़कर चला गया शायर

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 08, 2016 17:23 pm IST
    • Published On फ़रवरी 08, 2016 16:39 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 08, 2016 17:23 pm IST
'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना बार-बार देखना।' सोमवार की सुबह आख़िरी सांस लेने वाले शायर निदा फ़ाज़ली की ताकत यही थी- बेहद सादा ज़ुबान में ढली उनकी नज़्में और ग़ज़लें बार-बार देखे और पढ़े जाने का न्योता देती थीं। उनके मानी पर मानी निकलते जाते थे। उर्दू में सादा ज़बान शायरों की कमी नहीं है। गहरे अर्थ देने वाले शायर भी बहुत हैं। लेकिन ऐसी शायरी की मिसाल कम है जो इतनी सादा हो कि हर किसी के दिल में उतर जाए और इतनी गहरी हो कि दिमाग में देर तक गूंजती रहे। उन जैसा शायर ही लिख सकता था कि 'दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।'

आज जब वे दुनिया का मिट्टी-सोना सब पीछे छोड़कर जा चुके हैं तो समकालीन अदब की दुनिया कुछ फीकी, कुछ उदास हो गई है। बेशक, गुलज़ार या कैफ़ी आज़मी की तरह निदा फ़ाज़ली को भी असली शोहरत फ़िल्मों ने दी। लेकिन गुलज़ार की तरह ही निदा फ़ाज़ली का क़द भी इस शोहरत से बड़ा था। वे उर्दू की उस तरक़्क़ी पसंद रवायत का हिस्सा थे, जिसने आज़ादी के बाद बनते हिंदुस्तान को उसका नया मिज़ाज दिया। जिसे हम बड़ी आसानी से गंगा-जमनी तहज़ीब कह कर निबटा दिया करते हैं उसकी तलाश करने वाले, उसको साधने वाले, उसको अपने लेखन में उतारने वाले लोगों में निदा फ़ाज़ली भी एक थे। उनके यहां कबीर की सधुक्कड़ी मिल जाती है तो मीर की सादग़ी भी, ग़ालिब की गहराई दिखती है तो तुलसी का अध्यात्म भी, फ़िराक़ की कैफ़ियतें मिलती हैं तो सरदार अली ज़ाफ़री की विचारशीलता भी। इसी विचारशीलता के द्वंद्व में वे लिखते हैं- 'हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा, मैं ही कश्ती हूं मुझी में है समंदर मेरा।'

(हर वक्त का रोना तो बेकार का रोना है...निदा फ़ाज़ली की याद में इसे पढ़िए)

दुनिया के हिसाब-किताब के ख़िलाफ़ बड़ी सहजता से उन्होंने लिखा- 'दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां हो पाता है, पढ़े-लिखे लोगों को थोड़ी नादानी दे मौला।' लेकिन ऐसा नहीं कि निदा किसी आसमानी तसव्वुर में खोए ऐसे गैरदुनियावी शायर थे जिन्हें ज़माने की धूल-मिट्टी से कोई मतलब न रहा हो। दरअसल निदा फ़ाज़ली की शायरी में देश की रूह और उसके जिस्म पर पड़े दाग़ बहुत टभकती हुई तकलीफ़ के साथ बोलते हैं। हिंदुस्तान में होने वाले दंगे, हिंदू-मुस्लिम फ़साद उनकी रचनाओं में कई बार आते हैं। मगर हैरान करने वाली बात यह है कि वे उन्हें तोड़ नहीं पाते। निदा अपने भीतर की किसी रूहानी कैफ़ियत से अक्सर उनसे आगे निकल आते हैं। 1993 के मुंबई के दंगों के बाद उन्होंने जो नज़्म लिखी, उसे लिखने के लिए एक बड़ा कलेजा चाहिए था। उन्होंने लिखा, 'उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल, जो हुआ सो हुआ, रात के बाद दिन आज के बाद कल, जो हुआ सो हुआ। जब तलक सांस है, भूख और प्यास है, यही इतिहास है, रख के कांधे पे हल, खेत की ओर चल, जो हुआ सो हुआ...जो मरा क्यों मरा, जो जला क्यों जला, जो लुटा क्यों लुटा, मुद्दतों से हैं ग़ुम इन सवालों के हल, जो हुआ सो हुआ।'

दरअसल यही चीज़ निदा को बड़ा बनाती थी। अपने दुखों से ऊपर उठने का कौशल, ज़माने की तकलीफ़ को समझने का हुनर, इस सच्चाई की पुख्ता पहचान कि भूख और प्यास का ही सवाल असली है जिसका हल कांधे के हल से जुड़ा है। ऐसी नज़्में और भी हैं जो बताती हैं कि निदा की शायरी दुख पर मनुष्यता का, और प्रतिशोध पर करुणा का प्रतिपक्ष रचती है। 'नहीं वह भी नहीं' नाम की एक बड़ी मार्मिक नज़्म है जिसमें एक मां दंगाइयों की तस्दीक करते हुए यह कहती है- 'नहीं यह भी नहीं / यह भी नहीं / यह भी नहीं, वो तो / न जाने कौन थे / यह सब के सब तो मेरे जैसे हैं / सभी की धड़कनों में नन्हे नन्हे चांद रोशन हैं / सभी मेरी तरह वक़्त की भट्टी के ईंधन हैं / जिन्होंने मेरी कुटिया में अंधेरी रात में घुस कर / मेरी आंखों के आगे / मेरे बच्चों को जलाया था / वो तो कोई और थे / वो चेहरे तो कहां अब ज़ेहन में महफूज़ जज साहब / मगर हां/ पास हो तो सूंघ कर पहचान सकती हूं/ वो उस जंगल से आए थे / जहां की औरतों की गोद में / बच्चे नहीं हंसते।'

दुर्भाग्य से निदा ऐसे समय गए हैं जब हमारे समय में नफ़रत का यह जंगल बड़ा हो रहा है, कठमुल्लेपन की वहशी आंखें दुनिया को एक अलग ही चश्मे से देखने की ज़िद कर रही हैं। इसकी कुछ आंच निदा को भी झेलनी पड़ी थी। इबादत के लिए किसी रोते हुए बच्चे को हंसाने की उनकी तज़बीज़ कठमुल्ला ताक़तों को रास नहीं आई थी। लेकिन इसके बावजूद उनकी शायरी इंसानियत की आंच में पकती हुई शायरी थी जिससे आंख मिलाते फ़िरकापरस्त ताक़तों को दिक़्क़त होती थी। उनके ढेर सारे अशआर हैं जिनको बार-बार उद्धृत करने का जी करता है। लेकिन जब भी ऐसा शायर आता है- आखिरकार ख़ुद को अकेला पाता है। किसी मायूस लम्हे में वह लिखता है- 'इस शहर में वह मेरी तरह तन्हा होगा / उसके दुश्मन हैं बहुत वो आदमी अच्छा होगा।' वह बेशक, अच्छे आदमी थे, बहुत बड़ी कलम के मालिक थे और उनकी शायरी का आंगन इतना बड़ा था कि उसमें दुश्मन भी समा जाते थे, बदल कर दोस्त हो जाते थे।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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