क्या पांच राज्यों के चुनावी नतीजों को 2024 के पूर्वानुमान की तरह पढ़ा जा सकता है? चुनावी पंडित इन दिनों यह काम करते हैं. शायद यह मीडिया की तात्कालिकता का दबाव है कि वह हर चुनाव में आने वाले चुनाव की आहट खोजना चाहता है.
इसमें शक नहीं कि इन चुनावों ने साबित किया है कि बीजेपी बहुत बड़ी ताक़त है. उत्तर प्रदेश में शान से अपनी सत्ता बचाने वाले योगी आदित्यनाथ आज की तारीख़ में बीजेपी के भीतर नरेंद्र मोदी के बाद दूसरे नेता के तौर पर उभरे हैं जिनके आसपास वोटों की गोलबंदी हो सकती है. बीजेपी के अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि अमित शाह को भी नरेंद्र मोदी का वारिस माना जाता है, लेकिन जिस तेज़ी से हाल के वर्षों में योगी ने अपना क़द बढ़ाया है और भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक दांव-पेच का रंग जितना गाढ़ा हुआ है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि योगी आने वाली बीजेपी के सबसे बड़े नेता होने जा रहे हैं.
क्या 2024 के चुनाव पर इस तथ्य की कुछ छाया पड़ेगी? खुद को खुर्राट राजनीतिक जानकार मानने वाले लोग ये कयास लगाते रहे थे कि 2022 के चुनाव बीजेपी की अंदरूनी राजनीति के लिए खासे मुश्किल साबित होने जा रहे हैं. कहा जा रहा था कि अगर बीजेपी यूपी हार गई तो 2024 के लोकसभा चुनाव उसके लिए संकट में पड़ जाएंगे. दूसरी तरफ़ अगर वह जीत गई तो योगी मोदी के लिए चुनौती बन जाएंगे.
लेकिन यह सच है कि यूपी में लगातार दूसरी जीत ने बीजेपी को भी ताकतवर बनाया है, योगी को भी और प्रधानमंत्री मोदी को भी. इस पूरे चुनाव में जिस ऊर्जा के साथ प्रधानमंत्री मोदी प्रचार करते रहे, उससे उन्हें इसे अपनी निजी प्रतिष्ठा का चुनाव भी बना लिया था. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यूपी का किला दरकता तो योगी ही धराशायी नहीं होते, मोदी नाम की मीनार भी काफ़ी कुछ झुक गई होती.
दरअसल इन चुनावों ने असली चुनौती कांग्रेस के लिए पैदा की है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के अलावा 2017 और 2022 के यूपी चुनावों ने उसकी रणनीति के धुर्रे उड़ा कर रख दिए हैं. ख़ास कर 2022 में कांग्रेस ने अपने दम पर चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया और प्रियंका गांधी ने 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' के नारे के साथ पूरे यूपी में जम कर प्रचार किया. इस प्रचार का भविष्य में कोई लाभ होगा तो होगा, लेकिन इस चुनाव में तो यह रणनीति किसी के काम नहीं आई है.
लेकिन भारतीय राजनीति की अपनी गतिमयता है, उसके अपने उतार-चढ़ाव हैं, अतीत जिनकी याद दिलाता है. 2003 में जब बीजेपी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव जीते थे तो अटल आडवाणी की महाकाय जोड़ी को लगा था कि यही लोकसभा चुनाव कराने का सही समय है. तो उन्होंने समय से पहले चुनाव कराए और नतीजों ने बताया कि जिसे वे सेमीफ़ाइनल समझ रहे थे, उसके नतीजे कुछ और थे और फ़ाइनली जनता ने उनको ऐसा बाहर कर दिया कि 10 साल तक उनकी ओर नहीं देखा.
दरअसल अमूमन यह लगता है कि हर चुनाव दूसरे चुनाव का आईना होता है. लेकिन वह हमेशा नहीं होता है. पंचायत और निगम चुनावों का अपना रंग होता है, विधानसभा चुनावों का अपना ढंग और लोकसभा चुनाव के अपने समीकरण. 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के हाथों दिल्ली में बुरी तरह शिकस्त खाने के बावजूद 2015 में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया. इसके बाद वह लगातार कई चुनाव हारी- निगम चुनावों से लेकर उपचुनाव तक- 2019 में फिर लोकसभा चुनावों में बीजेपी के हाथों पिटी, लेकिन जब विधानसभा चुनाव हुए तो एक बार फिर वह सत्ता पर काबिज थी.
कुछ पीछे लौटें. 2007 में यूपी में अरसे बाद किसी एक दल ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया था. यह बीएसपी थी जिसने अगले पांच साल सरकार चलाई. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनावों में वह बाकी दलों के साथ ही खड़ी दिखी, बल्कि कांग्रेस की सीटें ख़ासी बढ़ गईं.
इसी तरह 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी. गोवा में भी वह सबसे बड़ी पार्टी थी. लगा कि राष्ट्रीय क्षितिज पर उसकी वापसी हो रही है. लेकिन 2019 में हमने पाया कि वह बुरी तरह हारी.
हालांकि इन सारी दलीलों का मकसद यह बताना नहीं है कि 2022 के नतीजों का 2024 के लोकसभा चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. वह तो निश्चय ही पड़ेगा, लेकिन इस असर के क्या रूप होंगे, यह बताना मुश्किल है. मसलन, यूपी के नतीजों ने यह तो साबित किया ही है कि सपा की लोकप्रियता बढ़ी है. उसका वोट प्रतिशत 11 फ़ीसदी बढा है. वोट बीजेपी के भी बढ़े हैं मगर उसकी सीटें घटी हैं. तो बहुत संभव है कि आने वाले दो साल यह सिलसिला जारी रहे और इसका एक असर लोकसभा चुनाव पर पड़े. लेकिन दूसरी तरफ़ इस चुनाव ने नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की अजेयता पर एक तरह की मुहर लगाई है. भारतीय जनता के सामने यह सवाल कुछ और बड़ा होता जा रहा है कि क्या भारतीय लोकतंत्र में मोदी और बीजेपी की अखिल भारतीयता का कोई वास्तविक विकल्प है? सच यह है कि अगर प्रशासनिक और राजनीतिक फैसलों को आधार बनाएं तो बीजेपी को जीतना नहीं चाहिए था. इन वर्षों में नोटबंदी, लॉकडाउन, कोविड, गंगा में तैरती लाशें, अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी, पेट्रोल के दाम का शतक- ऐसे ढेग सारे मुद्दे थे जिन पर कोई भी सरकार चुनाव हार जाती. 1998 में दिल्ली की बीजेपी सरकार प्याज महंगे होने भर से हार गई थी. लेकिन जाहिर है, जनता को इन तकलीफ़ों से ज़्यादा बडी कोई चीज़ दिखी जिसकी वजह से उसने मोदी-योगी को फिर से चुना. संभव है, यह वह सांप्रदायिक उन्माद हो, जिसके आगे सबकुछ बेमानी हो जाता है या फिर मोदी की शख्सियत का जादू हो जिसके आगे कुछ नज़र नहीं आ रहा है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह उन्माद हो या जादू, वह इस चुनाव में मज़बूत ही हुआ है और बीजेपी इसी भरोसे आने वाला चुनाव भी लड़ने वाली है.
इन चुनावों की सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस के सामने है. पंजाब में पता नहीं क्यों, लेकिन सिद्धू को अतिरिक्त अहमियत देकर उसने अपने पांव में कुल्हाड़ी मार ली. उनकी वजह से कैप्टन ने पार्टी छोड़ी, चन्नी को खुलने का मौका़ नहीं मिला और इस दौरान भी सिद्धू अपने अहंकारी तेवर का प्रदर्शन करते रहे. उत्तराखंड में भी उसके अंतर्कलह ने लस्त-पस्त बीजेपी को वापसी का मौक़ा दिया. मणिपुर और गोवा के नतीजे बता रहे हैं कि सुदूर प्रदेशों में भी उसकी स्वीकार्यता में बीजेपी ने पर्याप्त बड़ी सेंध लगाई है- बल्कि वह बाकी देश की तरह वहां भी कांग्रेस का विकल्प बन गई है.
तो 2024 का असली सवाल ये है कि इन चुनावों में कांग्रेस कहां होगी. कांग्रेस वैसे तो पहले भी अपनी राख से पैदा होती रही है और अपनी समाप्ति की घोषणा को मुंह चिढ़ाती हुई शान से वापसी करती रही है, लेकिन इस बार चुनौती गंभीर है. क्या अभी यूपी में प्रियंका गांधी ने जो बीज छींटे हैं, वे 2024 कांग्रेस की बेहतरी की फ़सल बन पाएंगे? यह नाउम्मीद करने वाला सवाल है जिसका कोई आसान जवाब नहीं है.
दरअसल 2022 का असली नतीजा आम आदमी पार्टी के हक़ में गया है. पंजाब में उसने लगभग दिल्ली की तरह झाड़ू फेर दी है. अब वह क्षेत्रीय पार्टी दो-दो राज्यों में सरकार चला रही है. इसके अलावा वह गोवा विधानसभा में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. इसका एक मतलब यह है कि जब 2024 में कोई बीजेपी विरोधी मोर्चा खड़ा होगा तो उसका नेतृ्त्व करने के लिए कांग्रेस की दावेदारी को सिर्फ ममता बनर्जी की नहीं, केजरीवाल की चुनौती भी मिलेगी. आज ही केजरीवाल, सिसोदिया और राघव चड्ढा के बयान बता रहे हैं कि आम आदमी पार्टी की महत्वाकांक्षाओं का आसमान अपने लिए राष्ट्रीय क्षितिज देख रहा है. लेकिन अब तक शहरी मध्यवर्ग के बीच लोकप्रिय रही यह पार्टी जब ग्रामीण इलाक़ों में दाखिल होगी तो उसकी असली चुनौती सामने आएगी.
फिलहाल 2022 ने बताया है कि 2024 भी बीजेपी का है. लेकिन काश कि राजनीति के खेल इतने सरल होते. दुनिया भर मे भविष्य का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि हर भविष्यवाणी एक हद के बाद बेमानी हो जाती है. ख़ास कर भारतीय लोकतंत्र पहले भी इसकी मिसालें पेश करता रहा है. 1977 में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि 1980 में इंदिा गांधी लौट आएंगी और 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद कोई नहीं कह सकता था कि अगले पांच साल में कांग्रेस के वजूद पर सवाल उठने लगेंगे. तो 2024 का इंतज़ार कीजिए और देखिए कि 2022 उसे किस तरह गढ़ता है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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