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This Article is From Nov 15, 2017

यूनिवर्सिटी सीरीज का 24वां अंक : शिक्षा पर निवेश इतना कम क्यों? रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 15, 2017 21:37 pm IST
    • Published On नवंबर 15, 2017 21:20 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 15, 2017 21:37 pm IST
यूनिवर्सटी सीरीज़ का 24वां अंक आप देख रहे हैं. भारत में इस बात के अनगिनत प्रमाण हैं कि शिक्षा ने लाखों लोगों को ग़रीबी और जाति के शोषण से मुक्त किया है मगर अब वही शिक्षा हमारे भीतर नई तरह की असमानता पैदा करती जा रही है. यूनिवर्सिटी सीरीज़ के तहत हम इस सवाल से जूझते रहे कि आख़िर किसी को पता क्यों नहीं चला और किसी को फर्क क्यों नहीं पड़ता है कि कॉलेज बर्बाद हैं तो आपके बच्चे भी तो बर्बाद होंगे. इसका एक कारण है. जो तबका पहले अमीर हुआ, वह पढ़ाई की कीमत जानता है, इसलिए लाखों नहीं करोड़ों पढ़ाई पर ख़र्च करता है.

दो-दो करोड़ डोनेशन देकर मेडिकल में सीट ख़रीदता है और लाखों देकर बच्चों को विदेश भेज देता है.उसे पता चल गया है कि इन कॉलेजों में उसका बच्चा बर्बाद ही होगा, जिन्हें नहीं पता वो अभी भी लाखों खर्च कर रहे हैं ताकि उनका बच्चा यहां के कबाड़ कॉलेजों में पहुंच जाए, जहां न मास्टर है न पढ़ाई का स्तर. आपको पता ही नहीं कि बच्चों की पढ़ाई पर आपकी दस पंद्रह साल की मेहनत और लागत दोनों लुटने जा रही है. दोनों को पता नहीं है, इसलिए बोलेगा कौन, फर्क किसे पड़ेगा. लक बाई चांस से सफलता को छोड़ दीजिए, ये देखिये 100 में से 90 बच्चों को कैसे कॉलेज दर कॉलेज घटिया मास्टरों को रखकर और नहीं रखकर बर्बाद किया जा रहा है. 

जून में महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी में चपरासी के लिए 92 पदों की वैकेंसी निकली थी. इसके लिए 22000 हज़ार आवेदन आए थे. आवेदन करने वालों में एफ फिल, एमबीए और एम पास किए लोगों ने भी आवेदन किया था. जबकि चपरासी के लिए 8वीं पास होने की योग्यता ही मांगी गई थी.

यूपी विधानसभा के लिए 2015 में चपरासी के लिए 368 वैकेंसी आई थी. 368 पद के लिए 23 लाख से ज्यादा आवेदन आ गए. इनमें 255 पीएचडी, डेढ़ लाख बीटेक, बीकॉम और बीएससी की डिग्री लिए थे. 25000 एमएससी, एमकॉम और एमए पास लोगों ने आवेदन किया था. मुझे मालूम नहीं कि 368 पदों के लिए आवेदन करने वाले वे 23 लाख बेरोज़गार इन दिनों क्या कर रहे हैं.

टीवी पर हिन्दू मुस्लिम डिबेट देख रहे हैं या एक और डिग्री लेने की लाइन में लगे हैं. किसी यूनिवर्सिटी में आप 5 से सात साल गुज़ारते हैं तब भी आप किसी नौकरी के लायक बनकर नहीं निकलते हैं, लायक होते हैं तो नौकरियां नहीं निकलती हैं. यह बात आपको अभी से ठीक दस साल बाद समझ आएगी. 2027 में कि राज्य दर राज्य की यूनिवर्सिटी में आपके बच्चों को बर्बाद करने के लिए नेताओं ने क्या बढ़िया प्रोजेक्ट चलाया था. 2027 से पहले 2022 में भी पता नही चलेगा. आप लोन लेकर, पेट काटकर, ऑटो चलाकर, रिक्शा चलाकर, रात दिन खटकर यही सोचेंगे कि आपके बच्चे ने पढ़ाई नहीं की. यह बात भी सही है कि बहुत जगह शिक्षक इंतज़ार करते हैं छात्र पढ़ने नहीं जाता मगर यह बात ज़्यादा सही है कि शिक्षक है ही नहीं. क्या आप जानते हैं कि अमीर भारतीयों के बच्चे कहां पढ़ते हैं. 14 नवंबर के फाइनेंशियल एक्सप्रेस में एक आंकड़ा छपा है, उसे देख लीजिए तब आपको पता चलेगा कि आपको नेता क्यों दिन रात नकली सपने दिखाते रहते हैं. 

भारतीय छात्रों ने 2016-17 में अमरेकी यूनिवर्सिटी में 6.54 अरब डॉलर ख़र्च किए. भारतीय रुपये में यह राशि 42, 835 करोड़ तक पहुंच जाती है. भारत की उच्च शिक्षा का पूरा बजट ही 25,000 करोड़ है. भारत की उच्च शिक्षा के बजट से करीब दुगनी राशि भारतीय छात्र अमरीका में निवेश कर रहे हैं. यह राशि 2015-16 की तुलना में 30 प्रतिशत ज़्यादा है. एक तरह से इन छात्रों ने बिल्कुल सही किया वर्ना यहां के कबाड़ कॉलेजों में बर्बाद हो जाते. बीस साल से तो मैं ही देख रहा हूं वही स्टीफेंस वही हिन्दू. वही आईआईटी और वही आईआईएम. दस बीस की गिनती पर पहुंच कर समाप्त हो जाती है. इन्हीं दस बीस को फिर से गिनने का एक नया झांसा प्रोजेक्ट आया है जिसे अंग्रेज़ी में रैंकिंग कहते हैं. जब कॉलेज ही किसी लायक नहीं है, मास्टर नहीं हैं तो उनकी रैकिंग किसे बताई जा रही है. वही आईआईटी वही आईआईएम को फिर से गिना जाएगा और भम्र पैदा किया जाएगा कि देश में शिक्षा की हालत सुधर गई है. सोचिए करीब तीन लाख भारतीय छात्र सिर्फ अमरीका में 42, 835 करोड़ का निवेश कर देते हैं और हमारी उच्च शिक्षा का बजट उसका आधा है.

सिंगापुर से लेकर यूरोप के देशों में भारतीय छात्रों का भी निवेश होगा, उसका तो हिसाब ही नहीं है यहां. भारत के कॉलेजों को कबाड़ में नहीं बदला जाता तो अमरीकी कॉलेजों को इतना बड़ा बाज़ार नहीं मिलता. यह खेल भी आपको 2027 के बाद समझ आएगा. दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक महिला शिक्षक ने मैसेज किया. 9 साल से एडहॉक पढ़ाती रही हैं. जब वे गर्भवती हुई तो आखिरी दिनों तक पढ़ाती रहीं. ऑपरेशन से बच्चा हुआ और 14वें दिन के बाद ही वे पढ़ाने चली गईं, क्योंकि उन्हें मातृत्व अवकाश नहीं मिलता है. जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में यह हाल तो आप कहां जाकर सर पीटेंगे. 

14 नवंबर को दिल्ली यूनिवर्सिटी के एडहॉक शिक्षकों ने कुलपति कार्यालय पर हल्ला बोल कार्यक्रम किया. लोगों की उपस्थिति को देखकर लगता है कि इन शिक्षकों को ही अपनी लड़ाई में यकीन नहीं है. 4000 एडहॉक शिक्षक बताते हैं मगर कभी इनके आंदोलन में 400 भी नहीं देखा. अब तो इनके दो गुट हो गए हैं. होंगे ही, इनकी असुरक्षा किस काम आएगी. पहले वही राजनीतिक दल इन्हें बेरोज़गार बनवाते हैं और फिर इन्हें बांट कर अपना सामान बना लेते हैं. एक गुट ने 9 नबंवर को प्रदर्शन किया और एक गुट ने 14 नवंबर को. आंदोलन के भीतर भीतर विचारधारा और जाति के आधार पर भी जुगाड़ बिठाने और नौकरी देने का खेल दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी खुलकर चलता है. किसी में साहस नहीं कि इस डोर को छोड़ दे, काट दे तो ज़ाहिर है उनके आंदोलन की यही नियति होनी है. कई प्रोफेसरों ने अपने चेलों को नौकरी दे दी, किसी काबिल को बाहर कर दिया. जाति और धर्म का खेल आप जानेंगे तो चक्कर आ जाएगा. 14 नवंबर के हल्ला बोल की अगुवाई कर रहे शिक्षक नेताओं का कहना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद ने अध्यादेश 13 ए लाकर पहले भी एडहॉक शिक्षकों का समायोजन किया है. हज़ारों पद ऐसे हैं जिन पर 10-10 साल से इंटरव्यू नहीं हुआ है. अदालत ने कई आदेश दिए हैं मगर इंटरव्यू नहीं हुए हैं. कुछ पर तो होते हैं मगर ज्यादातर सीटों पर इंटरव्यू की प्रक्रिया फॉर्म भरने के साथ ही ठंडी पड़ जाती है. 

दिल्ली सहित भारत के अनेक राज्यों में ठेके पर पढ़ाकर शिक्षकों ने शिक्षा के बजट पर अहसान किया है. वे आधे अधूरे पैसे में न पढ़ाते तो शिक्षा के इतने कम बजट में कॉलेज में दरबान भी नहीं मिलता. कई राज्यों में तो ये शिक्षक महीने में 20000 से भी कम की सैलरी में पढ़ाते हैं, दस साल की नौकरी करते हुए ये ग़रीब हो रहे हैं, इनकी राजनीतिक चेतना समाप्त हो रही है. हो चुकी है. इसलिए कभी आपने नहीं देखा होगा कि राजस्थान के एडहॉक शिक्षकों का साथ दिल्ली वालों ने दिया या झारखंड या मध्य प्रदेश के एडहॉक शिक्षकों ने दिल्ली वालों का साथ दिया. यह भी सही है कि खुलकर प्रदर्शन करेंगे तो जो नौकरी है वह भी चली जाएगी. आप इन शिक्षकों के बीच सर्वे करेंगे तो ज़्यादातर शिक्षक न्यूज़ चैनलों पर हिन्दू मुस्लिम डिबेट में बिजी मिलेंगे. इनकी ज़िंदगी बर्बाद हो गई मगर हकीकत को देखने का नज़रिया नहीं पा सके. कई कॉलेजों में प्रोफेसरों ने जमकर क्वालिटी के मापदंड की धज्जियां उड़ाई हैं. इसलिए इन शिक्षकों में कोई राजनीतिक चेतना नहीं है, जुगाड़ चेतना है. 

पीले रंग की टीशर्ट पहनकर ये छात्र ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी चलो अभियान चला रहे मगर ध्यान बार-बार पीले रंग की टीशर्च पर ही जाता रहा. नीयत अच्छी होने के बाद भी छात्रों की यही नियति है. आंदोलन के प्रति यकीन इतना कमज़ोर हो गया है कि सारा ज़ोर कम्युनिकेशन पर ही हो जाता है. अखबार में खबर छपी और ट्विटर पर हैशटैग चला और आंदोलन खत्म. रंग रोगन कर मैनेजरों ने कस्बों के आंदोलनों को चमका तो दिया है मगर ज़रूरी है कि इन छात्रों में यकीन पैदा हो कि अपने शहर की यूनिवर्सिटी की ख़राब हालत को ठीक करना है. ये काम न तो एक दिन में होगा, न एक महीने में. इन्हें अपनी मांगों को भी समझना होगा. सेंट्रल यूनिवर्सिटी बनाने की मांग कर रहे हैं मगर उससे क्या हो जाएगा. क्या कोई सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऐसी है जिसकी हालत अच्छी है. जहां शिक्षक हैं. किसी भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 30 फीसदी पद किसी भी समय में खाली मिलेंगे और राज्यों की यूनिवर्सटी में 50 फीसदी पद खाली मिलेंगे. वाइस चांसलर ऐश करने का पद हो गया है. कॉलेजों में मुख्यमंत्री का स्वागत करना और मंत्री को माला पहनाने से ज़्यादा किसी के पास काम नहीं बचा है. अच्छी बात है कि ये नौजवान शुरुआत कर रहे हैं. ये चाहते हैं कि क्लास नियमित हो, रिज़ल्ट समय पर आए, कोर्स की नई किताबें हो और छात्रावास की व्यवस्ता हो.

मिथिलांचल की इस यूनिवर्सिटी पर हमने यूनिवर्सिटी सीरीज़ में चर्चा की थी. मारवाड़ी कॉलेज दरंभगा में 57 प्रोफेसर होने चाहिए थे, मगर 43 खाली हैं. एलएनजे कॉलेज झंझारपुर में 37 में 31 पद ख़ाली हैं. देर से ही सही मिथिला स्टूडेंट यूनियन ने पहल तो की है, अगर वे इसी तरह टिके रहे, तो क्या पता नतीजा भी निकल आए मगर ऐसा न हो कि वाई फाई लग जाए और प्रोफेसर न आए. फिलहाल पहले दिन के हिसाब से तो यही लगता है कि इनती तैयारी सफल रही है. 

वहीं दरभंगा में आज छात्र संगठन आइसा ने मिथिला यूनिवर्सिटी के सामने प्रदर्शन किया. आइसा ने चंडीगढ़ से कोलकाता तक छात्र युवा अधिकार यात्रा निकाली है. 7 नंवबर से लेकर 21 नवंबर के बीच यह यात्रा यूपी, बिहार और बंगाल के कई शहरों से होकर गुज़रेगी. आरा मुज़फ्फरपुर के कॉलेजों में भी यह यात्रा पहुंची है. इसमें आइसा की सुचेता डे हैं जो जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं. इनका नारा है, 'शिक्षा नहीं रोज़गार चाहिए नफरत नहीं अधिकार चाहिए'. इन नारों में यह भी झलकना चाहिए था कि कॉलेज के कॉलेज शिक्षकों से खाली हैं. शिक्षकों को वेतन नहीं मिल रहा है. पढ़ाई की क्वालिटी बहुत ख़राब है. समस्या यह है कि हर जगह छात्र संघ के चुनाव बंद हैं, जहां होते हैं जेएनयू को छोड़ कर वो चुनाव कम प्रबंधन ज्यादा होते हैं. छात्र राजनीति को अपने कॉलेजों की हालत से खुद को जोड़ना होगा. वरना पीला और लाल रंग के आंदोलन गुज़र तो जाएंगे मगर असर नहीं होगा. 

हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा ने एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटी के सेक्रेट्री जनरल फुरकान क़मर से बात की. एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटी भारतीय विश्वविद्यालयों की प्रतिनिधि संस्था है. उन्होंने हाल ही में मौलाना आज़ाद मेमोरियल लेक्चर दिया था. जिसमें कहा था कि कभी भी किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी और राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं में किसी भी समय पर 30 फीसदी पद ख़ाली ही रहता है. राज्यों के विश्वविद्यालयों में तो किसी भी समय 50 फीसदी पद ख़ाली ही मिलेंगे. 

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