विज्ञापन
This Article is From Mar 17, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : खेती से हारे, अब भाषा से हारते किसान

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 17, 2017 23:38 pm IST
    • Published On मार्च 17, 2017 23:38 pm IST
    • Last Updated On मार्च 17, 2017 23:38 pm IST
संसाधन से लेकर संपादकीय पसंद जैसे तमाम कारणों से दिल्ली से चलने वाले स्थानीय किंतु राष्ट्रीय कहलाने वाले चैनलों की दुनिया में दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत का आगमन तभी होता जब वहां ऐसा कुछ होता है जिसका तालुल्क भाषा से कम हो, हल्ला हंगामा या तमाशा से ज़्यादा हो. आज के मीडिया जगत में तमाशा की कोई भाषा नहीं होती है. तमाशा हो तो हिन्दी चैनलों पर फ्रांस की घटना भी भारत की ज़रूरी ख़बरों से ज़्यादा जगह घेर लेगी. सीसीटीवी से रिकॉर्ड किये गए चीन की कोई सड़क दुर्घटना चैनलों की दुनिया में लोकल संस्करण की खबरों की तरह छा जाती हैं. ये होता रहा है, यही होता रहेगा. न आप बदलेंगे न चैनल. जब कोई नहीं बदलेगा तो हम क्यों बदल जाएं.

हाल ही में जब जयललिता की हालत गंभीर हुई तो चेन्नई की सड़कों पर तमाशा हुआ. पुलिस आई. रोते बिलखते समर्थक आए, किसी ठिकाने पर विधायक दल की बैठक होने लगी तो अस्पताल के भीतर की तमाम ख़बरें किसी रहस्य की तरह चैनलों पर छाने लगीं. आम तौर पर दक्षिण भारत की रोज़ाना की तक़लीफों से दूर रहने वाले हिन्दी चैनलों पर चेन्नई हावी हो गया. चेन्नई की सड़कों पर जमा लोग, पुलिस का तनाव और अंतिम संस्कार के लिए समंदर के किनारे उमड़ी लाखों की भीड़. गंभीर और दुखद झणों में भी इन्हें तमाशे की तरह ही उत्तर भारत के दर्शकों की दुनिया में ठेला गया. क्योंकि इसके लिए भाषा की ज़रूरत नहीं थी. आप घर बैठे सिर्फ हंगामे के दृश्य देख रहे थे और बिना गहराई से जाने दक्षिण भारत की राजनीति के बारे में जागरूक हो रहे थे. अगर इन्हीं सब लम्हों में तमाशा न होता तो शायद ही हिन्दी चैनल या दिल्ली से चलने वाले किसी भी भाषा के ग्लोबल चैनल इसकी परवाह करते कि दक्षिण में क्या हुआ है. चेन्नई से आगे की कहानी तो शायद ही कभी आती होगी. हां अगर कावेरी जल समझौते को लेकर तमाशा हो जाए, सैकड़ों बसें जल जाएं, लोग आत्मदाह कर लें तो फिर से तमिलनाडु टीवी पर छा सकता है. इसमें आप दर्शकों का कोई दोष नहीं है. दोष टीवी का भी नहीं है. न ही पत्रकारिता का.

दोष शायद उस तमाशे का है जिसकी कोई भाषा नहीं होती है. तमाशा ही वो तत्व है जो दिल्ली से चलने वाले चैनलों को चेन्नई में बदल देता है और चेन्नई से चलने वाले चैनलों को इम्फाल में. इसलिए कई बार आपको अपनी भाषा छोड़कर तमाशा करना पड़ता है. मगर हर बार तमाशा तमाशा नहीं होता. वो आपके भीतर की चित्कार होता है. बेबसी, बेचैनी, लाचारी होती है.

मान लीजिए आप हिन्दी भाषी हैं. चेन्नई में रहते हैं या केरल में रहते हैं. दो चार हज़ार की संख्या है. हिन्दी के अलावा कोई भाषा नहीं आती. मगर आप सरकार की किसी नीति से नाराज़ हैं. ज़ाहिर है आप आवाज़ उठाएंगे. पोस्टर बैनर लेकर मरीना बीच पर आ जाएंगे ताकि वहां से गुज़रते मंत्रियों का काफिला आपको देख लें. हो सकता है कि उन मंत्रियों को हिन्दी नहीं आती हो. आस पास से गुज़रते लोगों को हिन्दी नहीं आती हो. आपके पोस्टर और उस पर लिखे हमारी मांगे पूरी करो के नारे बेकार हो जाते हैं. आपको लगता है कि काश कोई पढ़ ले. समझ ले कि हम क्या कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में यकीनन आप तड़प उठेंगे, किसी ऐसे की तलाश करेंगे कि कोई तो बस से उतरेगा और हमारी भाषा पढ़कर सरकार या प्रेस को इत्तला कर देगा कि हम क्या कह रहे हैं. जब कुछ नहीं होगा तब आप कुछ और ऐसा करेंगे जिससे लोगों की नज़र पड़े कि क्यों 100-200 लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. आप अपने ही मुल्क में अकेला महसूस करेंगे. चीखेंगे, चिल्लायेंगे. अंत में तरह तरह का तमाशा करने लगेंगे. हरकतें करेंगे. कपड़े उतारेंगे. आग पर चलेंगे. गीत गायेंगे. आप ख़ुद को भाषा के पार ले जायेंगे.

कई बार पूर्वोत्तर के छात्र जब जंतर मंतर पहुंचते हैं तो जिस अंदाज़ में वो पत्रकारों को फोन करते हैं, उससे उनकी तड़प का अंदाज़ा होता है. वो हर किसी को फोन करते हैं. हिन्दी नहीं आती मगर अंग्रेज़ी में बोलते हैं. फिर टूटी फूटी हिन्दी में बोलते हैं. कोई तो पहुंचेगा, उनकी बात मीडिया के ज़रिये देश और सरकार के सामने लाएगा. इस तरह का फोन जब भी आता है, दूसरी तरफ आवाज़ की बेबसी डराती है. आपको मेरी बात भारी भरकम लगती हो तो इसे और आसान कर देता हूं.

दिल्ली के जंतर मंतर पर कतार बद्ध बैठे लोगों को देखिये. इनके पास दिल्ली की मीडिया के लिए भाषा नहीं है. इसलिए उन्होंने अपने शरीर को ही भाषा का रूप दे दिया है. इनका शरीर, इनके कपड़े बोल रहे हैं. हम सबने इसी जंतर मंतर पर दिल्ली के आस पास के किसानों का हुजूम देखा है, मगर तमिलनाडु के किसानों को शायद नहीं देखा है. इन्हें हिन्दी नहीं आती है. कुछ कुछ अंग्रेज़ी बोल रहे हैं मगर वो भी मुश्किल से. लिहाज़ा इन्होंने अपने कपड़े उतार दिये हैं. महिलाएं सिर्फ हरे रंग के पेटिकोट में हैं. मर्द हरे रंग की लुंगी में. हमने ये सवाल पूछा कि हरा रंग क्यों. जवाब मिला हरा रंग इसलिए क्योंकि ये किसानों का रंग है. धरती का रंग है. उत्तर भारत की राजनीति केसरिया को हिन्दू और हरे को मुस्लिम समझने में लगी है, मगर दक्षिण के किसान हरे को किसान का रंग बता रहे हैं. ये किसान धर्म से बाहर नहीं है. सबके बदन पर त्रिपुंड बना है. शिव के भक्त मालमू पड़ते हैं. कुछ किसानों ने हाथ में कटोरा लिया है. अंग्रेज़ी में लिखा है बेगर यानी भिखारी. अंग्रेजी में लिखा है ताकि दिल्ली समझ सके. भिखारी बनकर वो अपनी बात अंग्रेज़ी में आप तक पहुंचाना चाहते हैं. इनके बैनर तमिल में भी नहीं हैं. अंग्रेज़ी में हैं. कुछ किसानों ने गले में नरमुंड की माला डाल ली. ये प्रतीक है उन किसानों का जिन्होंने कर्ज़े और खेती के संकट से तंग आकर आत्महत्या कर ली है.

100 की संख्या में आए ये किसान तमिल में नारे लगा रहे हैं. शायद ही इसकी आवाज़ दिल्ली के आस पास के किसानों तक पहुंचे. भारत में किसान किसान के लिए नहीं बोलता है. शहर किसान के लिए नहीं बोलते है. नारों की भाषा बदल भी जाती तो भी इन्हें सुनने वाले लोग नहीं बदलते. हमारे सहयोगी मुन्ने भारती ने बहुत प्रयास किया किसी से बात हो जाए. न मुन्ने अंग्रेज़ी बोल सकते थे न वो हिन्दी. दोनों तरफ एक बीच की भाषा बची हुई थी अंग्रेज़ी जिससे हम कई बार नकली भाषाई स्वाभिमान के नाम पर चिढ़ते हैं. किसने सोचा था कि कर्ज़ से लदे किसानों को, आत्महत्या करने वालों किसानों को अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ेगा. मराठी, पंजाबी, तमिल सब भाषाओं ने किसानों को छोड़ दिया है. दिल्ली की अंग्रेज़ी की अपनी अलग दहशत है. दिल्ली वाली अंग्रेज़ी कस्बे वाली अंग्रेज़ी को डराती है. मुन्ने भारती ने एक किसान से बात की. वो क्या बोल रहे हैं ये मत सुनिये. किस तरह से बोल रहे हैं, उनके बोलने में जो टूटन है, उसे देखिये. अगर आपको ये टॉपिक हेवी लगता है तो आप कुछ और भी देखिये.

दिल्ली में काफी संख्या में तमिनलाडु के लोग रहते हैं. कभी अफसर बनकर आए और दक्षिण दिल्ली के आरके पुरम में रहने लगे. वहां से रिटायर हुए तो मयूर विहार की तरफ जाकर बस गए. और भी कई जगहों पर बसे हुए हैं. इन लोगों ने बताया कि तमिलनाडु के लोग आकर खाने पीने का इंतज़ाम कर दे रहे हैं. समर्थन जता रहे हैं. ये भी अच्छा है कि दस पांच ही सही, इस शहर के लोग इनके बीच जा रहे हैं. यही तो हमारी खूबी है. जैसा कि मैंने कहा कि टीवी में दक्षिण भारत उन्हीं मौकों पर होता है जब तमाशा होता है. वर्ना हम हिन्दी की दुनिया में कहां तमिलनाडु को लेकर चिंतित होते हैं कि वहां पिछले चार महीने में चार सौ किसानों ने आत्महत्या की है. दिल्ली में बैठने वाले मानविधाकार आयोग ने 5 जनवरी को राज्य सरकार को वहां की प्रेस रिपोर्ट के आधार पर नोटिस भेजा है.

तमिल दैनिक ने 3 जनवरी 2017 को ख़बर छापी है कि दिल का दौरा पड़ने से 83 किसानों की मौत हुई है. उसी अखबार ने 5 जनवरी 2017 को बताया है कि एक महीने में किसानों की मौत का आंकड़ा 106 पर पहुंच गया है. आयोग ने लिखा था कि नीति बनाने वाले किसानों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. किसानों को खेती के संकट से निकालने की ज़रूरत है. उसी वक्त मद्रास हाईकोर्ट ने भी चार हफ्तों के भीतर तमिलनाडु सरकार को हलफनामा दायर करने के लिए कहा था कि सरकार बताये कि वो क्या ऐसा करने जा रही है जिससे किसानों की आत्महत्या रुक सके.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु में भयंकर सूखा है. हम उत्तर भारतीयों के लिए तो अभी गर्मी भी नहीं आई है मगर दक्षिण के हमारे प्रिय राज्य में सूखा है. राज्य सरकार ने सूखा से निपटने के लिए 39,565 करोड़ की मदद मांगी. इसे आप पैकेज समझते हैं. तमिलनाडु में सूखा घोषित कर दिया गया है. इस साल नॉर्थईस्ट में बारिश 62 प्रतिशत कम हुई है. 1876 के बाद पहली बार इतनी कम बारिश हुई है. 100 साल में पहली बार ऐसा संकट आया है फिर भी इस सूखे की दास्तान आप तक लाने के लिए किसी को जंतर मंतर पर नंगे बदन खड़े होना पड़ता है. मेत्तूर बांध का पानी बहुत कम हो गया है, किसान न ज़मीन की तरफ देख सकता है न आसमान की तरफ ताक सकता है.

जंतर मंतर पर जो किसान आए हैं उनके पास बहुत खेत नहीं हैं. छोटे किसान ही हैं सारे. इनकी कुछ मांगें हैं. ये किसान 100 दिनों के लिए भूख हड़ताल कर रहे हैं. इनके पास हिन्दी में एक पर्चा है जिस पर सबसे ऊपर लिखा है, 'किसान, जो राष्ट्र को अन्न देते हैं, उनकी आत्महत्या को रोकना. तमिलनाडु को रेगिस्तान बनने से रोकना. कावेरी नदी को सूखने से रोकना. कावेरी नदी के लिए प्रबंधन समिति का गठन. कृषि उत्पादों के लिए उचित लाभदायक मूल्य का निर्धारण.'

पर्चे में यह भी लिखा है, दुख के साथ भूख हड़ताल. संगठन का नाम है दक्षिण भारतीय नदिया किसान संघ. हमारे लिए तो यह नाम भी नया है. नदिया किसान संघ. ये लोग नदियों को जोड़ने की मांग करते हैं. सुबह जंतर मंतर पर इन आंदोलनकारियों के लिए कोई समर्थन जताने आया था. उन्होंने हमारे लिए हिन्दी में इनकी समस्या को सामने रखा है.

इतने दिनों से किसानों के मसले को देखते हुए एक बात समझ आई है. भारत के किसान लाचार नहीं हैं. भारत के किसान राजनीतिक फैसला करना जानते हैं. वे अपने संकटों के हिसाब से राजनीतिक फैसला नहीं करते हैं बल्कि पूरे समाज के लिए फैसला करते हैं. वर्ना कई राज्यों में किसान किसी राजनीतिक दल के लिए वोट ही नहीं करते.

जंतर मंतर पर ही अपने सामान के साथ तमिलनाडु के ये किसान डटे हुए हैं. जंतर मंतर ही असली राजधानी है. भारत की समस्याओं का एकमात्र प्रतिनिधि स्थल. सरकारों ने जनता पर जो जंतर मंतर किया है, उससे मुक्ति का स्थल जंतर मंतर ही हो सकता है. भारत में लोकतंत्र ज़िंदा है जब तक जंतर मंतर ज़िंदा है. तभी तो ये किसान नंगे बदन खुली सड़क पर लेट गया है. किसानों को भी नींद आती है. तीन चार दिनों से ऐसे रम गए हैं जैसे जंतर मंतर ही इनका घर हो. ये जगह ही इनके लिए खेत है.

किसानों की आत्महत्या, सूखे का संकट हम सब कवर करते हैं. ऐसी कोई बात नहीं जिसके बारे में सरकार को न मालूम हो, पत्रकार ने न लिखा हो. किसानों को दाम नहीं मिल रहे हैं. कभी कभी मुआवज़े मिल जाते हैं. कभी कभार कर्ज़ा माफ हो जाता है. लेकिन संकट और सूखा हर साल या हर दूसरे साल लौट आता है. महाराष्ट्र में बारिश से सूखे ने मुक्ति पाई तो तमिलनाडु को यह रोग लग गया. जब भी कोई सुसाइड करता है, उसे पिछली सुसाइड के साथ जोड़ दिया जाता है. 106 किसानों ने आत्महत्या की. यह किसान 107वां था. इसलिए किसानों की तकलीफ़ अब भाषा के पार है.

जिन लोगों को भाषा पर बहुत भरोसा होता है उन्हें शुक्रवार के इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर छपी बशारत मसूद की रिपोर्ट पढ़नी चाहिए. कश्मीर के कुपवाड़ा की कनीज़ा को तो भाषा ने उफ करने तक का मौका नहीं दिया.

'मां की बाहों में सो रही थी. बगल में उसका भाई सो रहा था. एक गोली आई जो कनीज़ा को ख़ामोश कर गई. मां ने जब अपना हाथ बेटी की तरफ़ बढ़ाया तो कुछ चिपचिपा सा महसूस हुआ. ग़ौर से देखा तो बिस्तर पर ख़ून फैला हुआ था. कनीज़ा इस दुनिया से जा चुकी थी. बाहर गोली चल रही थी. कनीज़ा के घर के पास में आतंकवादी छिपे थे जिन्हें सुरक्षा बलों ने घेर लिया था. गोली किसकी बंदूक से चली पता नहीं चला. मगर एक दूसरे घर में सो रही कनीज़ा को मार गई. उसका भाई फ़ैज़ल भी वहीं सो रहा था. घायल हो गया. पुलिस वालों ने मदद की और अस्तपाल ले जाया गया. फैज़ल की जान बच गई है मगर अस्पताल में होने के कारण कनीज़ा को आख़िरी बार के लिए भी नहीं देख पाया.

कश्मीर की समस्या भी किसानों की समस्या की तरह है. सबको संकट मालूम है. समाधान किसी को नहीं. अब उनकी तकलीफ भाषा के पार हो चुकी है. हमारी संवेदनहीनता की कोई भाषा नहीं है. हम उस गोली की तरह हो गए हैं जो एक बारह साल की बच्ची को चुपचाप मार कर, उसके बिस्तर को लहूलुहान कर ग़ायब हो जाते हैं. अगर कनीज़ा की मां की तकलीफ के लिए कोई भाषा है तो बताइये. उस भाषा से पूछिये कि नींद में सो रही कनीज़ा ने तब क्या कहा था, जब गोली लगी थी. वहीं तो उसकी मां सो रही थी. वहीं तो उसका भाई सो रहा था.

'बहुत प्यार करती थी कनीज़ा को. मेरे चार बेटे हैं. मेरी इकलौती बेटी थी. मेरे दाहिने हाथ पर सर रखकर सो रही थी. अचाकन उसने झटके से सांस ली. मैंने उसके बदन पर अपना हाथ रखा तो चिपचिपा सा लगा. जब मैंने अपनी हाथों को देखा तो ख़ून से लाल हो गए थे. मैंने कंबल फेंका तो देखा कि चारों तरफ़ ख़ून फैला हुआ था. उसके और फैजल के बदन से ख़ून बह रहा था.' ये कनीज़ा की मां का बयान है जिन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के बशारत मसूद को इसी तरह बताया है कि कैसे उसकी इकलौती और बेहद प्यारी बेटी कनीज़ा मार दी गई. एनडीटीवी के नज़ीर मसूदी भी कनीज़ा के घर पहुंचे. एक रिपोर्टर के लिए कितना मुश्किल होता होगा ऐसे वक्त में लोगों से संवाद बनाना. अंधेरा सा कमरा है. कनीज़ा के भाई ख़ौफ़ज़दा हैं. बहन अचानक कहां चली गई है ये उनकी समझ से बाहर है. 13 साल के असलम और 10 साल के ज़फ़र की आंखों में सब है मगर उनकी बहन नहीं है.

घर दूर था मगर गोलियां दूरी तय कर लेती हैं. एक हफ्ते के भीतर यह दूसरी घटना है. पुलवामा में भी एनकाउंटर की गोलियों का शिकार एक बच्चा हो गया. 15 साल का था, मारा गया. 5 मार्च को सोपोर में सुरक्षा बलों के कैंप के नज़दीक विस्फोट होने से चार बच्चे घायल हो गए. सबके पास दलीलें होंगी. कुछ कश्मीर के एक्सपर्ट होंगे. कुछ सख़्त बयान होंगे. इन सबसे गोली अपना रास्ता खोज लेती है. वो किसी आतंकवादी का पीछा करते करते रास्ता बदल लेती है. कनीज़ा को क्या पता था....एक गोली उसके बिस्तर तक आ रही है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
तमिल किसानों का प्रदर्शन, Tamil Farmers Protest, जंतर मंतर, Jantar Mantar, प्राइम टाइम, Prime Time
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com