प्राइम टाइम इंट्रो : जयललिता की हालत नाजुक, समर्थकों में बेचैनी

प्राइम टाइम इंट्रो : जयललिता की हालत नाजुक, समर्थकों में बेचैनी

तमिलनाडु की हवा उदास है. वहां की शाम की बेचैनियां 20 साल तक उत्तर भारत के कुल जमा सवा चार राज्यों की आधी अधूरी रिपोर्टिंग करने वाला आपका एंकर यहां से महसूस नहीं कर सकता है. राजनीति को जीवन से भी ज़्यादा जीने वाले उत्तर भारत के दर्शकों के लिए जयललिता भले ही किसी मिथक की तरह लगती होंगी लेकिन तमिलनाडु की पब्लिक के लिए वो सिर्फ मिथक नहीं हैं. एक ऐसी हकीकत हैं जो उत्तर की निगाह से दूर चुपचाप अपने खित्ते में बड़ी होती चली गईं जिसके सामने उत्तर भारत का बड़ा से बड़ा महानायक मामूली लगता रहा. इसकी वजह ये रही है कि उत्तर भारत का महानयक पश्चिम से पूरब का महानायक तो बन जाता है मगर दक्षिण के इस राज्य उसकी नियति सहायक बनने की ही होती है.

चेन्नई से आने वाली हर तस्वीर यही बता रही है कि कोई उनके दिलों पर राज करता है. यह महज़ कोरी भावुकता नहीं है. हम सब को भावुकता लग सकती है लेकिन भावुकता क्षणिक होती है. राजनीति में थोड़ी लंबी हो जाती है मगर जब भावुकता इतनी लंबी हो जाए कि चालीस पैंतालीस साल से भी ज़्यादा का लम्हा गुज़र जाए तो उसे सिर्फ भावुकता के चश्मे से नहीं देखना चाहिए. अपोलो अस्पताल के बाहर रोते चेहरे सिर्फ भावुकता के प्रमाण नहीं हैं. फिल्मी पर्दे की नायिका को राजनीति में अम्मा का ख़िताब सिर्फ भावुकता से नहीं मिल जाता होगा.

दक्षिण में पर्दे से राजनीति में तो बहुत आए लेकिन कोई जयललिता नहीं बन पाया. एमजीआर, एनटीआर का अपना मुकाम है लेकिन जयललिता का मुकाम कई मायनों में उनसे भी बड़ा है. जयललिता यहां भी उत्तर भारत के सियासी महानायकों की तरह उत्तर के फिल्मी महानायकों को मात दे देती हैं. मुंबई के बड़े स्टार फिल्मों से राजनीति में तो आए मगर कभी जी हुज़ूरी और सलाम बजाने से ज़्यादा की हैसियत हासिल नहीं कर सके. उत्तर के महानायक नेताओं के आगे आगे चलने के लिए अभिशप्त हैं. वो सरकारी योजनाओं के ब्रांड अंबेसडकर तो बन सकते हैं लेकिन अपनी फिल्मी करिश्मा को कभी राजनीतिक पूंजी में नहीं बदल सके. शायद उनमें इतनी क्षमता ही नहीं है. वे ज्यादा से ज्यादा चाटुकारिता ही कर सकते हैं. दक्षिण की जयललिता फिल्मों से आकर राजनीति में आगे आगे चलती हैं. राजनीति को बदल देती है. वो चेन्नई में बैठकर दिल्ली की सरकार गिरा देती हैं. जैसे दिल्ली की गद्दी पर बैठे नेता अपनी शेखी में मदमस्त हो, जयललिता ने चुपके से आकर उसकी कान मरोड़ दी हो. जयललिता को भावनाओं से आगे जाकर देखिये. वर्ना उनके सियासी योगदान के साथ आप इंसाफ नहीं करेंगे.

22 सितंबर से वे अस्पताल में संघर्ष कर रही हैं. जैसे किसी डायरेक्टर को अनसुना कर स्क्रीप्ट को अपने हिसाब से बदलकर टेक देने की ज़िद सवार हो. आज दक्षिण भारत जब अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण नेता से जुड़ी आशंकाओं को लेकर रतजगा कर रहा है, भारत भारत करने वाले उत्तर भारत की राजनीतिक जमात ख़ाली बर्तन की तरह झनझना रही है कि कहें तो क्या कहें. सुने तो क्या सुनें. 1982 का साल था, कड्डलूर में पहला सियासी भाषण दिया था जयललिता ने. एआएईडीएमके में सब कुछ हासिल किया. विरोधियों से लड़ीं, औरत होने के नाते नाहक आरोपों से लड़ती रहीं, विरोधियों से तो लड़ी हीं. 34 साल तक 235 विधानसभाओं वाली तमिलनाडु की राजनीति में पांच बार चुनाव जीतना आसान नहीं रहा होगा. 2014 में जब उत्तर भारत का मीडिया अखिल भारतीय मोदी लहर का उद्घोष कर रहा था तब अरब सागर के किनारे वाले राज्य तमिलनाडु की 39 सांसदों पर जया की बयार चल रही थी. 39 में 37 सीटों पर एआईएडीएमके जीत हासिल करती है.

हम अपोलो अस्पताल की मुश्किलों को समझ सकते हैं. जयललिता की स्थिति ख़राब है. एक्मो मशीनों का इस्तमाल तभी करते हैं जब स्थिति बेहद नाज़ुक होती है. दुआएं अपने चरम पर हैं. डॉक्टर हर तरह की सतर्कता बरत रहे हैं. इलाज को लेकर भी और जयललिता को लेकर किस तरह से संवाद किया जाए, सूचना कैसी हो इसे लेकर भी जूझ रहे होंगे. लंदन के डॉक्टर से बात की गई है. दिल्ली से डॉक्टर रवाना हुए हैं. हम समझ सकते हैं कि इस वक्त सबके लिए कितना मुश्किल है. जज़्बातों के बवंडर के सामने खड़े होकर मेडिकल ड्यूटी पूरा करना, उसे उस रूप में रख देना, अपनी सीमाओं के साथ उनके सामने अपराधी की तरह बाहर आने का डर कितना भयावह होगा. आप कल्पना कीजिए जयललिता के आस पास जमा डॉक्टरों पर क्या गुज़र रही होगी. उनसे आज भगवान होने की उम्मीद की जा रही है मगर उन्हें यही पढ़ाया जाता है कि डॉक्टर भगवान नहीं है. वो तो बस इलाज करता है, बचाता कोई और है. हम ख़बरनवीसों के लिए भी चुनौती है कि सही ख़बर क्या हो. कब हो. थोड़ी रुक कर ख़बर दी जाए या पहले देने की होड़ में हम उन लाखों लोगों के जज़्बातों को कुरेद दें जो पहले से ही बेचैन हैं. अपने काबू में नहीं हैं. होना तो यही चाहिए कि खबर पेश करने और उसे सुनने के बीच भावनाओं की कोई सीमा न हो मगर कई बार आपको ख़्याल करना पड़ता है. रतलाम, सीकर, जालौन, बनारस, भागलपुर, रेवाड़ी, चंबा, कुल्लू के दर्शक आज तमिलनाडू के ज़िलों में पसरी उदासी को कैसे महसूस करेंगे. उनका एंकर तो कभी जयललिता से मिला तक नहीं है. तमिल राजनीति को कभी छूकर देखा भी नहीं.

पैदा होती हैं कर्नाटक में लेकिन तमिलनाडू आकर कह देती हैं कि मैं कन्नाडिगा नहीं तमिल हूं. बचपन का अम्मू नाम अम्मा में बदल जाता है. वकील, डॉक्टर बनना चाहती हैं, मां फिल्मों में ले जाती हैं. फिल्मों से राजनीति में अजेय बन जाती हैं. जयललिता. राजनीति को हमेशा सूखी आलोचनाओं और नारों से मत देखिये. जयललिता के लिए यह लगाव हावर्ड से दिल्ली आकर राजनीतिक दलों के मुख्यालयों के पीछे के हिस्से में बने कमरों में ट्वीटर संभाल रहे मैनेजरों की देन नहीं है. उनकी पार्टी का ट्वीटर हैंडल तो फरवरी 2014 में ही बना. 39 में से 37 सीटें जीती. आप उस वक्त के दिल्ली से निकलने वाले तमाम अखबारों का विश्लेषण देखियेगा, जयललिता और नवीन पटनायक के बारे में दो लाइन भी ठीक से नहीं मिलेगी. नवीन पटनायक ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 21 में से 20 सीटों पर जीत हासिल की थी.

अब एक सवाल उठता है कि जयललिता और नवीन पटनायक से अपने गढ़ में राष्ट्रीय दलों का वचर्स्व तो तोड़ दिया लेकिन वे दिल्ली को पश्चिम और उत्तर भारत के राजनीतिक दबदबे से क्यों नहीं मुक्त कर सके. दक्षिण के तमाम प्रतिभाशाली नेता अपनी दावेदारी उत्तर भारत के बीच क्यों नहीं कर सके. 1984 में जयललिता राज्यसभा की सदस्य बनकर दिल्ली तो आईं थीं. जयललिता ने कांशीराम की तरह किसी मायावती का चुनाव क्यों नहीं किया. क्या उन्होंने एआईएडीएमके की नियति को उसके सहारे छोड़ना ठीक समझा. एमजीआर भी तो किसी जयललिता को विरासत सौंप कर नहीं गए थे. जयललिता की राजनीतिक कामयाबी और मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल को कैसे याद किया जाए. उत्तर भारत के लोग कैसे जानें कि तमिलनाडु की इस राजनेता ने सत्ता में आकर राज्य को कैसे बदला और राजनीतिक दल में अपनी हैसियत कैसे बनाई. 1989 में तमिलनाडु विधानसभा में जयललिता के साथ मारपीट होती है. वे फटी साड़ी पहनकर बाहर आती हैं और ऐलान करती हैं कि मुख्यमंत्री बनकर ही सदन में लौटेंगी. पांच बार मुख्यमंत्री बनती हैं. 1991 में जयललिता कांग्रेस से मिलकर 234 में से 225 सीटें जीत जाती हैं. ठीक चार साल बाद 2 जून 1995 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गेस्ट हाउस में मायावती के साथ मारपीट की घटना होती है. यूपी ने मायावती को चार बार मुख्यमंत्री बनाया. हमला ममता बनर्जी पर भी होता है. बंगाल ने दूसरी बार के लिए ममता को सत्ता सौंप दी.

उत्तर भारत के लोग भक्त के बारे में जानते हैं. भक्त उत्तर भारत की राजनीति का वो तत्व है जिसका नाम तो भक्त है मगर संस्कार भक्त के नहीं हैं. उसकी भाषा गालियों की है. अंध समर्थन की है. मारने पीटने की है. मूर्खता की है. भक्त होना सियासत में नेता का बाहुबली बनना हो गया है. लेकिन दक्षिण भारत में नेताओं की इस भक्ति को कैसे समझा जाए. क्या तस्वीरों में दिख रहे रोते बिलखते लोग सिर्फ समर्थक कहे जा सकते हैं. समर्थक के पीछे के लोग कौन हैं. क्या हम जान सकेंगे. जयललिता ने सोशल मीडिया के सहारे इन्हें कोरा भक्त बनाया या इनकी ज़िंदगी बदल दी और ये जया को समर्पित हो गए.


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