भारत के संविधान की धारा 51-ए में कहा गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे. क्या आप बता सकतें कि संविधान की इस भावना के आधार पर मौजूदा दौर में कौन सा ऐसा नेता है जो अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है. समाज में तो हैं. जैसे तर्कशील सोसायटी के लोग जान-जोखिम में डालकर काम करते रहते हैं. नरेंद्र दाभोलकर यही काम करते थे, उनकी हत्या कर दी गई. 24 और 25 जुलाई को दो दुखद ख़बर आईं. अंतरिक्ष वैज्ञानिक यूआर राव नहीं रहे और खगोलशास्त्री शिक्षाविद प्रो. यशपाल नहीं रहे. 90 साल की उम्र में एक ऐसे शख्स का चला जाना जो पूरी ज़िंदगी वैज्ञानिक सोच के लिए समर्पित रहा, शोक समाचार तो है ही मगर, यह शोक उस उल्लास के बिना अधूरा रह जाएगा जिसे यशपाल विज्ञान के लिए जीते रहे.
दिल्ली के लोधी शवदाह गृह में उन्हें अंतिम विदाई देते समय चंद लोग ही जमा हो सके. अपने जीवन में प्रो. यशपाल देश के न जाने कितने स्कूलों में गए होंगे. लाखों बच्चों के बीच उन्होंने विज्ञान के किस्से बताए, न जाने कितने हज़ार लेख लिखे होंगे, कितनी यात्राएं कीं, विज्ञान को लेकर सार्वजनिक जीवन जीने वाले इस शख्स की अंतिम विदाई निजी यात्रा ही रही. शायद वक्त ने हममें से किसी के लिए वक्त ही नहीं छोड़ा.
आप दर्शकों में से किसी न किसी के स्कूल में तो वे गए ही होंगे. आपके नहीं तो आपके बच्चों के स्कूल में. कभी यशपाल दूरदर्शन पर टर्निंग प्वाइंट कार्यक्रम के ज़रिये घर-घर में जाने गए, चैनलों की दुनिया में विज्ञान का वो पहला लोकप्रिय कार्यक्रम कहा जा सकता है. विज्ञान के कार्यक्रम आज भी हैं मगर उनमें विज्ञान कम है अंधविश्वास ज़्यादा है.
भारत के पत्रकार नाम विज्ञान का लेते हुए आस्थाओं के खंडहर में टार्च लेकर अंधविश्वास खोज रहे होते हैं. अब तो अंधविश्वास भी साइंस और राजनीति विज्ञान का चैप्टर लगता है. यशपाल जाते-जाते वैज्ञानिक सोच की हार देखकर गए या जीत, यह सवाल उनके आख़िरी क्षणों में किसी ने तो पूछा ही होगा.
विज्ञान का चाहे जितना बड़ा संसार हो, वैज्ञानिक की यात्रा अकेले की होती है. आप कभी किसी लैब में झांक कर देख सकते हैं. 25 जुलाई को राष्ट्रपति पद की शपथ लेते वक्त रामनाथ कोविंद ने कहा कि जो वैज्ञानिक है वो भी राष्ट्र निर्माता है. शायद वे प्रो. यशपाल के लिए भी कह रहे होंगे. यूआर राव के लिए भी कह रहे होंगे.
24 जुलाई को बेंगलुरू में अंतरिक्ष विज्ञानी यूआर राव का निधन हो गया. यूआर राव ने 1975 में भारत का पहला उपग्रह आर्य भट्ट लांच किया था. भारत में स्पेस टेक्नोलॉजी में उनके योगदान की कहानी एक टीवी शो के बस की बात नहीं है. 85 साल की उम्र में वे अहमदाबाद की फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी की गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन, तिरुवनंतपुरम के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के चांसलर थे. दस साल तक इसरो के चेयरमैन रहे.
पीएसएलवी, जीएसएलवी राकेट की विकास यात्रा यूआर राव के बग़ैर पूरी ही नहीं हो सकती है. 350 से अधिक साइंटिफिक और टेक्निकल पेपर प्रकाशित किए. कई किताबें लिखीं. एक जीवन में कितना कुछ कर गए, अपने लिए नहीं, आपके और हमारे लिए किया. 19 मार्च, 2013 को वाशिंगटन डीसी के सैटेलाइट हाल आफ फ्रेम में उनका नाम शामिल किया गया. वहां जगह पाने वाले वे पहले भारतीय अंतरिक्ष विज्ञानी थे.
विज्ञान को आजकल हम टेक्नोलॉजी भी समझ लेते हैं मगर, दोनों में अंतर है. भारत में विज्ञान और कर्मकांड के झगड़े में हमेशा धर्म अपने ख़तरे लेकर हाज़िर होता रहा है. विज्ञान की बात एक सीमा से आगे करने पर धर्म विरोधी करार दिया जाता है. आज मिथक भी साइंस है क्योंकि मिथक में जिनका यकीन है उन्हें लगता है कि उनके साथ सरकार है.
इंटरनेट पर एक किताब मिली कलेक्टेड वर्क्स आफ जस्टिस आर ए जहागिरदार, किताब का नाम ही है साइंटिफिक टेंपर. इसमें साइंटिफिक टेंपर के बारे में जस्टिस ए जहागिरदार ने लिखा है कि यह एक मानसिक अवस्था है जिसमें जानने की प्यास होती है, जो यह मानती है कि देखते रहने से, प्रयोग करने से और अनुभव करने से ज्ञान हासिल किया जा सकता है. अटकलों से ज्ञान अर्जित नहीं होता है. जब तक साक्ष्य न हो, सच्चा वैज्ञानिक मन स्वीकार नहीं करेगा. वैज्ञानिक मन सत्य से नहीं डरता, हो सकता है उसका सत्य समाज की स्थापित मान्यताओं के ख़िलाफ़ चला जाए. साइंटिफ टेंपर वैज्ञानिकों का ही एकाधिकार नहीं होता है. सभी वैज्ञानिक अपने दैनिक जीवन में साइंटिफिक टेंपर का इज़हार भी नहीं करते हैं. किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि एस्ट्रोनोमी खगोलशास्त्र का प्रोफेसर सूर्यग्रहण के बाद नदी स्नान करता हो.
जस्टिस जहागीरदार के बारे में मैं नहीं जानता हूं. मगर इंटरनेट पर किताब मिली तो पहली ही पंक्ति से दिलचस्पी पैदा हो गई. इस किताब में एक और जानकारी है. जुलाई 1981 में मुंबई के नेहरू सेंटर की तरफ से विद्वानों के एक समूह ने साइंटिफिक टेंपर पर एक बयान जारी किया था. इसमें कहा गया कि विज्ञान का तरीका ज्ञान अर्जित करने का एक ठोस रास्ता उपलब्ध कराता है. इंसान की समस्या को विज्ञान के अर्जित ज्ञान के आधार पर समझा और दूर किया जा सकता है. मानव ज़िंदगी के अस्तित्व और प्रगति के लिए ज़रूरी है कि जीवन के हर पहलु में नैतिकता, राजनीति से लेकर अर्थशास्त्र तक में विज्ञान का इस्तमाल हो. स्वीकार करना होगा कि विज्ञान से अर्जित ज्ञान ही सत्य के नज़दीक है.
यशपाल की खनकदार आवाज़ से विज्ञान जब निकलता था तो उस पर बस्ते का भारी बोझ नहीं होता था. 1993 में शिक्षा सुधार के लिए उनके नेतृत्व में बनी कमेटी के बगैर तो आप भारत में शिक्षा व्यवस्था की समस्या और समाधान पर बात ही नहीं कर सकते. वे इम्तहानों को टाटा-बाय-बाय करना चाहते थे, बस्ते का बोझ हल्का करना चाहते, तथ्यों और सूचनाओं से लदी परीक्षाओं का आतंक कम करना चाहते थे.
प्रो. यशपाल चाहते थे कि समझ का विस्तार हो. सूचना की अनिवार्य भूमिका तो हो मगर सिर्फ उसी की न हो. यूआर राव, प्रो. यशपाल ने हमारी दुनिया को बड़ा बनाया है. उनके जैसे एक और दीवाने हैं अरविंद गुप्ता. आईआईटी से पास करके विज्ञान को जीवन से जोड़ने निकल गए. उनकी एक वेबसाइट है www.arvindguptatoys.com
कभी अरविंद गुप्ता की वेबसाइट पर बच्चों को ले जाइएगा और खुद भी जाएं. हम उन्हें बहुत मुश्किल से एक बार 'हमलोग' कार्यक्रम के लिए मना सके थे. अरविंद गुप्ता ने मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी में विज्ञान को सरल बनाने के लिए क्या-क्या नहीं किया. न जाने कितने हज़ार स्कूलों में गए, कितने लाख बच्चों को अपने खिलौनों से हंसाया और हंसते-हंसते विज्ञान सीखा दिया.
'साइकिल और महिलाएं' शानदार किताब है हिन्दी में. पुदुकोट्टाय ज़िले की कलेक्टर एक युवा आईएएस अफसर शाली रानी चुनकठ की कहानी है. कामिक्स की शक्ल में इस किताब में दिखाया गया है कि कैसे इस आईएएस अफसर ने अपने ज़िले की महिलाओं के लिए चल रहे साक्षरता अभियान में साइकिल सीखना अनिवार्य कर दिया. फिर क्या था वहां की औरतों और लड़कियों की ज़िंदगी ही बदल गई. किस्सा पुराना ही होगा, मगर पढ़कर रोमांच से भर गया. अरविंद गुप्ता की एक किताब 'खिलौने का बस्ता' पढ़िएगा. आपने ऐसे खिलौने जीवन में और दुकानों में कभी देखे नहीं होंगे. ये सभी मुफ्त हैं और उनकी वेबसाइट पर हैं. ये वे वैज्ञानिक हैं जो बिना परीक्षा की तैयारी कराए आपको विज्ञान सीखा देते हैं.
इतना कुछ इसलिए बताया कि लगे न कि सब कुछ खाली है. बल्कि यह लगे कि प्रो. यशपाल जैसे, दाभोलकर और यूआर राव जैसे और भी बहुत से लोग हैं. बस उन्हें कम लोग जानते हैं. हम प्रो. यशपाल को कैसे याद करें खासकर आज जब आस्था विज्ञान पर भारी है. बल्कि विज्ञान के लिए जगह सिर्फ वही बची हुई दिखाई देती है जहां तक स्मार्ट फोन है, वाई-फाई है.
उमा सुधीर हमारी सहयोगी ने हैदराबाद के गांधी अस्पताल से ये तस्वीर भेजी है. gynaecology & obstetrics विभाग के अध्यक्ष डॉ. हरी अनुपमा ने महामृत्युंजय का जाप कराया ताकि मातृ और शिशु मृत्यु दर कम हो सके. सरकार बेवजह इसमें कमी के लिए एनएचआरएम के तहत करोड़ों बहा रही है. ऐसा लग रहा है कि जल्दी ही भारत में विज्ञान की हार का ऐलान होने वाला है. मध्य प्रदेश सरकार तो अस्पतालों में ज्योतिष बैठाने जा रही है जो मात्र पांच रुपये में बीमारी बता देंगे. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जहां विज्ञान बेचारा लगता है. ज्योतिष में लोगों का यकीन तो है मगर इतना कि अब शिशु और मातृ मृत्यु दर को रोकने के लिए पूजा-पाठ काम आ सकता है ये नहीं पता था.
प्रो. यशपाल को याद करना चाहते हैं. उनके न होने से क्या होता हुआ दिख रहा है, उनके होने पर क्या-क्या होता था.
This Article is From Jul 25, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो: वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा कैसे दिया जाए?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 25, 2017 22:58 pm IST
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Published On जुलाई 25, 2017 22:58 pm IST
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Last Updated On जुलाई 25, 2017 22:58 pm IST
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