विज्ञापन
This Article is From Aug 17, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : दलित कबड्डी टीम की जीत गले नहीं उतरी

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 17, 2016 21:41 pm IST
    • Published On अगस्त 17, 2016 21:41 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 17, 2016 21:41 pm IST
मिलेनियम सिटी या अल्युमुनियम सिटी नाम रख देने से कुछ खास नहीं बदल जाता. जब सड़कों का ढांचा नहीं बदला तो दिमाग़ का सांचा कैसे बदल जाएगा. गुड़गांव नामक अतिप्राचीन और उत्तर आधुनिक नगर व्यवस्था से सटा एक गांव है चकरपुर. हम और आप बाबा आदम के ज़माने से पढ़ते आ रहे हैं कि भारत की आत्मा गांवों में रहती है. अब यह विवाद का विषय है कि क्या सारी आत्माएं गांवों में रहती हैं या उनमें से कुछ नगरों, महानगरों और स्मार्ट नगरों में भी रहती हैं. गांवों में रहने वाली आत्मा की वेरायटी परमात्मा लेवल की होती है या उनमें भी कुछ आत्माओं का चरित्र दुरात्मानुमा होता है. हुआ यूं कि बिना किसी खेल मंत्री या खेल विभाग के गुड़गांव के चकरपुर गांव की टीम ने एक कबड्डी की प्रतियोगिता का आयोजन किया. आस पास के ज़िलों और गावों से 40 टीमें यहां आ गईं. प्रथम विजेता टीम के लिए 21,000 की इनाम राशि रखी गई. द्वितीय विजेता टीम के लिए 11,000 की इनाम राशि रखी गई. प्रतियोगिता में शामिल होने की कोई फीस नहीं थी.

चकरपुर जहां इस प्रतियोगिता का आयोजन हो रहा था उसकी टीम का नाम था लाला राजू चकरपुर टीम. गाढ़े नीले रंग की जर्सी वाली इस टीम के कप्तान लाला उर्फ राजू हैं जो दलित हैं. उनकी टीम में जाट खिलाड़ी भी हैं जो दूसरे गांव के थे. लाला ने चार जाट खिलाड़ियों को पानीपत से खेलने के लिए बुलाया था. राजू, दीपक और अजय ये तीनों दलित खिलाड़ी थे. यह अच्छी बात है कि दलित कप्तान की टीम में जाट खिलाड़ी दूसरे जिले से खेलने आ गए. लेकिन इनका मुकाबला जिस टीम से हुआ उसके सभी खिलाड़ी यादव थे, जो पास के गांव सिकंदरपुर से आए थे.

ग्राम चकरपुर, दिन 15 अगस्त. कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी. एक तरफ दलितों की टीम, दूसरी तरफ यादवों की टीम. कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी, 32-1 से दलितों की टीम आगे निकल गई. कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी, यादवों की टीम दलितों की टीम से हार गई. कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी, हार का सदमा एक टीम बर्दाश्त नहीं कर पाई, दलितों की टीम पर हमला हो गया. लाठी, छड़ से हमला हुआ, मारपीट भी होने लगी. जाति के नाम से गालियां दी जाने लगीं. 5 दलित खिलाड़ी घायल हो गए.

आरोप है कि हार इतनी बड़ी थी कि सिकंदरपुर के यादव खिलाड़ियों को बर्दाश्त नहीं हुआ. उनके साथ वहां मौजूद दर्शकों में उनकी जाति के लोग भी गुस्से में आ गए. दलित खिलाड़ियों के हाथों शर्मनाक हार वो भी बीच गांव में बर्दाश्त नहीं कर सके. चक्करपुर की आबादी पांच हज़ार के करीब है. तीन हज़ार यादव हैं और करीब दो हज़ार दलित. गांव की टीम गांव में पिट गई और गांव के लोग चुपचाप देखते रहे. इस सवाल का जवाब जानना भी ज़रूरी है कि क्या जब भीड़ दलित खिलाड़ियों को मार रही थी तब बाकी के चार जाट खिलाड़ी भी उसकी हिंसा के शिकार हुए या भीड़ ने उन्हें छोड़ दिया. फिलहाल यह मामला गुड़गांव के सेक्टर 29 के थाने में दर्ज है और पुलिस जांच कर रही है. हमारे सहयोगी सुशील कुमार महापात्रा ने इन घायलों से बात की है. योगेंद्र और विजेंद्र दोनों ही भाई हैं. ये दोनों खेल नहीं रहे थे बल्कि देख रहे थे. दोनों ही दलित हैं. ये अपनी टीम को सपोर्ट करने आए थे.

कप्तान के हाथ में चोट आई है. गुस्साई भीड़ ने विजेंद्र के आठ साल के बेटे को भी उठाकर फेंक दिया. बेटे की हालत ठीक है लेकिन वो अस्पताल में पिता के साथ ही है. इस बच्चे को सुनिये, अगर इस हिंसा में जाति कारण नहीं भी है तो भी हम बात बात में किसी भी भीड़ को इतनी छूट कैसे दे रहे हैं जो किसी की परवाह नहीं करती है. आठ साल के बच्चे को उठाकर फेंकने का दुस्साहस किसी भीड़ को संख्या से आता है या जाति के अहंकार से भी आता है. क्या गुस्सा हार के कारण ही था या दलितों से हार जाने के कारण वो पचा नहीं पाए. ज़रूरी है कि हम समाज के भीतर बैठी इस संक्रामक बीमारी की पहचान जड़ से करें. प्रतियोगिता शुरू हुई था कि जातियों के बीच आपसी एकता बढ़े. लेकिन किसी को नहीं पता था कि एक ऐसी टीम जीत जाएगी जिसके ज्यादातर खिलाड़ी दलित थे. घायल खिलाड़ी योगेंद्र ने सुशील को बताया कि सुंदरपुर के खिलाड़ी पहले से ऐसा करते रहे हैं. उन्होंने इस टीम को बुलाया भी नहीं, इसलिए भी गुस्सा था. यहां तक कि खिलाड़ियों को इस बात का दुख भी है कि उन्हें अपने गांव के लोगों ने सपोर्ट नहीं किया. बाहर के गांव वाले मारते पिटते रहे, लेकिन अपनों ने मदद नहीं की.

हम गांव के स्तर पर किसी दलित कप्तान की कामयाबी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं तो ओलंपिक में केवल ट्वीट करने से तो मेडल नहीं आने वाला है. दलितों के प्रति हिंसा एक मानसिकता है. दलित बारी बारी से सवर्ण और पिछड़ी जाति की हिंसा का शिकार होते रहे हैं. ये कहानी एक और कहानी बताती है. वो कहानी थोड़ी अच्छी है कि आज भी देश के अनगिनत इलाकों में लोग अपने स्तर पर खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन कर लेते हैं. चक्करपुर की कबड्डी पहली बार हो रही थी और 40 टीमें भाग लेने आ गईं. इसका मतलब है कि खेल का जज़्बा भले ओलपिंक में न दिखता हो मगर गांव गलियों में दिख जाता है.

झारखंड में करोड़ों की लागत से बने स्वीमिंग पूल महीनों से बंद पड़े हैं लेकिन सूबे के तैराक नाले, गड्ढों में अभ्यास कर रहे हैं. यह तस्वीर इस बात का प्रमाण है कि हमारे खिलाड़ियों में या जनता में खेल के प्रति जज़्बा चीन या जापान से कम नहीं है. रांची से सटे कांके के चेकडैम में खिलाड़ी घंटों अभ्यास करते हैं. जान पर खेलकर उन अनजान जगहों पर गोता लगाने की ये तस्वीरें हमारी आंखों को तभी क्यों चुभती हैं जब कोई दीपा कर्माकर पदक पाते पाते रह जाती है. तमाम अधिकारी और खेल मंत्री यह भी देखने गए हैं कि दुनिया के देशों में अपने यहां खेल को लेकर क्या किया है. काश वे हिन्दुस्तान के गांवों में घूम आते तो कम से कम जूनून दिख जाता. ये तैराक कल अगर कहीं मेडल जीत जाएं तो कौन सा ऐसा नेता होगा जो ट्वीट नहीं करेगा. मगर बात नेता की भी नहीं है. बात है कि करोड़ों रुपये के स्विमिंग पूल बने तो हुए हैं. जब है तब क्यों नहीं इन तैराकों के लिए उपलब्ध हैं. यह किसकी नाकामी है.

झारखंड की घटना का गुड़गांव की घटना से कोई ताल्लुक नहीं है, सिर्फ इतना संबंध है कि व्यवस्था नहीं है मगर लोग खेल को ज़िंदा रखे हुए हैं. क्या वैसा हुआ जैसा मीडिया ने रिपोर्ट किया यानी टकराव जाति को लेकर हुआ या कुछ और भी कारण रहे होंगे.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Previous Article
BLOG : हिंदी में तेजी से फैल रहे इस 'वायरस' से बचना जरूरी है!
प्राइम टाइम इंट्रो : दलित कबड्डी टीम की जीत गले नहीं उतरी
बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा
Next Article
बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com