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This Article is From May 10, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : तीन तलाक पर रोक से नाइंसाफी खत्‍म?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 10, 2017 21:54 pm IST
    • Published On मई 10, 2017 21:43 pm IST
    • Last Updated On मई 10, 2017 21:54 pm IST
हिंदू औरतें हों या मुस्लिम औरतें हों.. संवैधानिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संस्थानों से वो अपने हक़ों के लिए आज भी लड़ रही हैं. कहीं तीन तलाक का मसला है तो कहीं गर्भ में बेटी मार दिए जाने का मसला है. इसलिए यह समझने की भूल न करें कि मुस्लिम औरतों की लड़ाई न तो तीन तलाक के खात्मे से ख़त्म होती है और न ही शुरू होती है. बुनियादी रूप से औरतों की लड़ाई अपने धर्म से कम, मर्दों से ज़्यादा है. कॉरपोरेट कंपनियों का कौन सा धर्म है, जहां महिला सीईओ को मर्द सीईओ से कम वेतन दिया जाता है और हम अखबार में यह समाचार पढ़कर सो जाते हैं. संविधान से सारे अधिकार मिलने के बाद भी कौन सी धर्म की औरतें हैं, जिनके जींस और स्कर्ट पहनने पर ऐतराज़ जताते हैं.

आज भी केरल के सबरीमाला मंदिर में औरतों को रजस्वला के समय अंदर जाने की अनुमति नहीं है. इसके खिलाफ यंग लॉयर एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली है कि ऐसे प्रतिबंध हटाए जाएं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 20 फरवरी को अपना फैसला रिज़र्व कर लिया था. आज तक भारत में मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. मई 2016 में उत्तराखंड के एक मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर बीजेपी सांसद तरुण विजय ने जब आंदोलन किया तो उन पर जानलेवा हमला हो गया, लेकिन वहीं कई वर्ष पहले पटना के हनुमान मंदिर में दलित पुजारी को बिठाया गया तो लोगों ने स्वीकार भी कर लिया. उसी तरह शनि शिंगणापुर में महिलाओं के गर्भ गृह तक जाने को लेकर औरतों ने ज़ोरदार आंदोलन किया. धर्म गुरुओं ने इस लड़ाई की शुरूआत नहीं की, तृप्ति देसाई नाम की अकेली महिला ने की. मतलब औरतों को अपनी धार्मिक संस्थाओं और संवैधानिक संस्थाओं से लड़ना ही पड़ेगा, बिना लड़े मर्द उन्हें एक कुर्सी तक नहीं देने वाले हैं. हाजी अली का भी ऐसा ही मामला था.

मध्यप्रदेश और राजस्थान में दलित दूल्हों को पत्थर से मारने की ख़बरें आज भी आती हैं, जब वे घोड़ी चढ़ते हैं या कार से जाते हैं. इसलिए कहा कि समाज को बदलने की लड़ाई लंबी है. 11 मई से सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने शायरा बानो की याचिका पर दैनिक सुनवाई शुरू करने का फैसला किया है ताकि जल्दी से फैसले पर पहुंचा जा सके. पिछले साल शायरा ने तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह को चैलेंज किया है. इसी सोमवार यानी 9 मई को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि...
 
  • पर्सनल लॉ के नाम पर मुस्लिम औरतों के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हो सकता है.
  • दिसंबर 2016 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक माना था.

आज तक तीन तलाक़ काफी चर्चा में है तो आप समझेंगे कि अदालतें भी सक्रिय हो गई हैं. 2 मई 2002 को बॉम्‍बे हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय औरंगाबाद बेंच ने दग्घू पठान बनाम रहीम बी दग्घू पठान मामले में फैसला दिया कि मुस्लिम दंपतियों को अदालत में बाकायदा साबित करना होगा कि उनके बीच तलाक़ हो चुका है तथा इससे संबंधित शरियत कानून की सभी शर्तें पूरी की गई हैं. अन्यथा किसी भी प्रकार के मौखिक या लिखित बयान द्वारा तलाक को अदालत नहीं मानेगी.

शीबा ने इस फैसले पर 2002 के साल में ही हेडलाइन प्लस में लिखा था कि यह फैसला 1981 के असम हाईकोर्ट के फैसले पर आधारित है. 2002 में शमीम आरा बनाम उत्तरप्रदेश सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट भी तीन तलाक़ को ग़लत ठहरा चुका है... तो आपने देखा कि 1981, 2002, 2017 किसी भी साल किसी भी कानून ने तमाम अदालतों को तीन तलाक को असंवैधानिक कहने से नहीं रोका. 2007 से भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन भी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रहा है. यह भी इसलिए बताया ताकि दर्शकों के बीच भ्रम न फैले कि इस लड़ाई को हमारे नेता किसी सामाजिक सुधार के मकसद से सपोर्ट कर रहे हैं. अगर वो वाकई सीरियस होते तो संसद में इसे हटाने का कानून ले आते. अब रहा ये सवाल कि जब कई फ़ैसलों में तीन तलाक़ को असंवैधानिक माना गया है तो सुप्रीम कोर्ट में असंवैधानिक क़रार दिए जाने को लेकर सुनवाई क्यों हो रही है.

फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने इस मसले पर ट्रिब्यून, दि वायर, स्क्रोल और इंडियन एक्सप्रेस में कई लेख लिखे हैं. उनके कुछ बिन्दु हैं.
 
  • 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, मुस्लिम महिलाओं में तलाक 0.56 प्रतिशत है.
  • 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, हिंदू महिलाओं में तलाक और परित्यक्ता 0.76 प्रतिशत है.

यह आंकड़ा इस भ्रम को तोड़ता है कि सारी मुस्लिम औरतें तीन तलाक से त्रस्त हैं और मुस्लिम समाज में सुबह-शाम तलाक देने के अलावा कोई और काम नहीं होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तीन तलाक़ की गुंज़ाइश छोड़ दी जाए. एक ही मुस्लिम औरत का हक़ इससे मारा जाता है तो इसे समाप्त करने की मांग पूरी तरह जायज़ है और संवैधानिक है. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरह अपना कोर्ट बनाया है. इसे शरिया कोर्ट कहते हैं जहां कई मामले आपसी बीच-बचाव से निपटाए जाते हैं. इस कोर्ट के सामने आए 525 तलाक के मामलों में सिर्फ...
 
  • 0.2 प्रतिशत तलाक फोन से हुआ है.
  • 0.6 प्रतिशत तलाक ईमेल से हुआ है.
  • 1 तलाक एसएमएस से हुआ है.

फिर भी कोई ईमेल से तलाक दे सकता है इसके पक्ष में आप आज के भारत में किसी को नहीं समझा सकते. इस तरह की हर संभावना को ख़त्म कर देना चाहिए. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के आंकड़े बताते हैं कि ज़्यादातर तलाक वकील, जज, मौलवी और परिवार के सदस्यों के बीच होते हैं. बल्कि 40 फीसदी मामलों में महिलाओं ने भी तलाक की मांग की है. फैज़ान साहब ने दस राज्यों से फतवा जारी करने वाली संस्था दारूल इफ़्ता से कुछ आंकड़े जमा किए हैं. आपको बता दें कि फ़तवा फैसला नहीं होता, बल्कि आप किसी चीज़ को लेकर कंफ्यूज़ हैं तो उस पर राय मांगते हैं. न्यूज़ चैनलों में फ़तवे को फ़रमान की तरह पेश किया जाता है जो कि ग़लत है. फैज़ान साहब ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि...
 
  • 3,40,206 फ़तवों में सिर्फ 6.50 प्रतिशत फ़तवे तीन तलाक को लेकर थे.
  • यानी बहुत कम मामलों में तीन तलाक को लेकर राय मांगी गई.
  • 33 दारुल कज़ा के आंकड़े बताते हैं कि उनके यहां तीन तलाक नहीं दिया गया.
  • तलाक़ तभी दिया गया जब बीच-बचाव से लेकर सारी प्रक्रिया पूरी हुई.
  • दारुल क़ज़ा एक तरह का कोर्ट है, जिस पर बैन लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने भी मना कर दिया था.

2002 के बॉम्‍बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने यही तो कहा था कि तीन तलाक या तलाक को कोर्ट में साबित करना होगा और उसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन करना होगा. तब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध किया था अब जाकर बोर्ड ने कहा है कि तीन तलाक सही नहीं है. उसके पहले आठ चरण का होना अनिवार्य है. यह बड़ा फ़ैसला तो है, लेकिन क्या इससे तीन तलाक समाप्त करने वाले संतुष्ट होंगे. यह मसला टीवी के लिए महीनों से तमाशा भी बना हुआ है. कई मौलना तीन तलाक के पक्ष में अजीब-अजीब तर्क दे रहे हैं, जिन्हें टीवी पर न आने वाले कई मौलाना बेहद ऐतराज़ से देख रहे हैं. महाराष्ट्र में शिक्षण संस्था चलाने वाले और अतहर ब्लड बैंक चलाने वाले सैय्यद शहाबुद्दीन सलफ़ी फिरदौसी का कहना है कि यह मसला इंसानियत का है, क़ौम का नहीं है. इंसानियत कहती है कि औरतों के साथ नाइंसाफ़ी इस्लाम के ख़िलाफ़ है. जो लोग तीन तलाक देते हैं वो मज़हब का मज़ाक उड़ाते हैं.

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