नमस्कार.. मैं रवीश कुमार। रोज़मर्रा की आपाधापी से गुज़रते हुए जब आप थकहार कर टीवी के सामने बैठते हैं तो क्या खुद को इस बात के लिए तैयार रखते हैं कि कुछ वक्त निकाल कर सोचा जाना चाहिए कि किसी अपराधी को अपराध की क्रूरता के अनुसार बालिग माना जाए या उसके कच्चे मन की सीमाओं को समझते हुए नाबालिग माना जाए।
नागरिकता और कानून के सवाल भी जनमत निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए। घर परिवार में ऐसे किशोरों या किशोरियों के साथ आप कैसे बर्ताव करते हैं। उम्र के हिसाब से सज़ा की सख़्ती तय करते हैं या उसे सुधरने का एक मौका देते है, लेकिन यहां मामला कानून का है, जिसे सब पर लागू होना है।
एक बहस हो रही है, जबसे केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने जुवेनाइल एक्ट में संशोधन पर कैबिनट की मंज़ूरी हासिल की है। फिर से यह मुद्दा ज़ोर पकड़ा है कि हत्या, बलात्कार, एसिड से हमले जैसे क्रूर अपराधों के लिए नाबालिग को भी वही सज़ा मिलेगी जो किसी बालिग को मिलती है। पहले यह अंतर 18 साल की उम्र से शुरू होता था।
अब मंत्रिमंडल ने तय किया है कि सोलह साल की उम्र का व्यक्ति ऐसे अपराधों में पकड़ा गया तो उसे बालिगों की हाजत में रखा जाएगा, मुकदमा भी बालिगों के हिसाब से चलेगा। नए बिल के अनुसार क्रूर अपराधों में शामिल नाबालिग को फांसी या आजीवन कारावास की सज़ा नहीं दी जाएगी।
इसका मतलब यह हुआ कि नाबालिक अपराधी को अधिकतम तीन साल से ज्यादा सज़ा मिल सकती है। सात साल या दस साल भी। जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को अधिकार दिया गया है कि वह तय करेगा कि किसी नाबालिग के अपराध को क्रूर माना जाए या नहीं।
सितंबर 2013 के हिन्दू अखबार में वकील अपर्णा विश्वनाथन ने लिखा है कि इस प्रयास के समर्थन में लिखा है कि अमरीका और इग्लैंड का कानून भी इसी तरह का है। अगर नाबालिक क्रूर किस्म के अपराधों में शामिल पाया जाएगा तो उसका मुकदमा बालिगों की अदालत में चलेगा। ये ज़रूर है कि वकील को ऊंची अदालत में जिरह करनी होगी कि नाबालिग अपराधी ने क्रूर अपराध किए हैं। भारत ने भी इसी तरह की व्यवस्था अपनाने की पहल की है।
इसके जवाब में काफिला डॉट ओआरजी में किशोर ने लिखा है कि अमरीका के कई राज्यों में 12 साल के बच्चे पर भी कुछ क्रूर अपराधों के मामले में बड़े अपराधियों वाला मुकदमा चलता है। जिस प्रोफेसर जान दिलुलियो के चलाये अभियान पर वहां अपराध की क्रूरता के हिसाब से नाबालिक अपराधी की उम्र तय की गई थी, उसने भी बाद में अफसोस जताया था। अमरीका के जेल नाबालिग सज़ायाफ्ता से भरने लगे और पहले से ज्यादा कट्टर अपराधी बनने लगे। उनमें सुधार की गुज़ाइश समाप्त हो गई।
इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका और निर्भया मामले में दिल्ली के रायसीना हिल्स पर आई भीड़ की उत्तेजना को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। कहा जा रहा है कि भीड़ के दबाव में राजनेता भी तार्किक फैसले नहीं ले रहे हैं। वे जनमत को खुश करने का काम कर रहे हैं, न कि कानून या सज़ा का मकसद देख रहे हैं।
इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली ने अपने संपादकीय में लिखा है कि मुख्यधारा की मीडिया यानी टीवी-अखबार ने ऐसे अपराध पर लोगों का ध्यान खींच कर अच्छा काम किया, मगर रिपोर्टिंग के तेवर कुछ ऐसे रहे जिसने पाठकों या दशर्कों या लोगों को तटस्थ या बिना भावुक हुए इसके तमाम पहलुओं पर चर्चा करने का मौका नहीं दिया। मीडिया ने इस तरह से पेश किया कि पूरा समाज ऐसे क्रूर अपराधों से घिर चुका है। गुस्साए लोग आंख के बदले आंख के आधार पर इंसाफ मांगने लगे।
ये बात बहुत हद तक सही भी है। आपको भी यह ध्यान रखना चाहिए कि गुस्साई भीड़ के दबाव में कोई कानून बने या किसी को भीड़ के मुताबिक सजा दी जाए तो क्या नतीजे हो सकते हैं? अगर आप यह निष्कर्ष निकाल ही चुके हैं कि निर्भया के साथ बलात्कार जैसा इतना क्रूर अपराध करने का होश रहा होगा तो सजा फांसी की मिलनी चाहिए तो आपको यह सोचना चाहिए कि यह कानून एक अपराधी के लिए नहीं बन रहा है।
फिर भी आपको लगता है कि यही होना चाहिए तो एक बात और सोच सकते हैं कि दुनिया भर के वैज्ञानिक अध्ययन और सामाजिक अनुभव बताते हैं कि नाबालिग नादानी कर जाते हैं। मामूली सी शर्तों पर बड़े जोखिम उठा लेते हैं। बच्चों के लिए अलग कानून का मकसद यही था कि उन्हें सुधरने का मौका दिया जाए।
केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के फैसले का विरोध करने वालों ने केंद्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को भी चुनौती दी है, ताकि आपको पता चल सके कि मीडिया बलात्कार जैसी घटनाओं की जो तस्वीर पेश कर रहा है वह पूरी तरह सही नहीं है। बलात्कार के मामलों में शामिल अपराधियों में नाबालिगों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो ऐसे क्रूर अपराधों के बाद सिर्फ तीन साल की सजा काट कर बाहर आ जाते हैं। दावा किया जा रहा है कि मीडिया ने आंकड़ों को पब्लिक के बीच गलत तरीके से पेश किया।
जुवेनाइल यानी नाबालिक द्वारा किया गया अपराध कुल अपराध का दो प्रतिशत भी नहीं है। नाबालिकों के साठ प्रतिशत अपराध तो चोरी पाकेटमारी के हैं।
अब दलील दी जा रही है कि सोलह साल के बच्चों को हत्या या बलात्कार जैसे मामले में कठोर सज़ा देने से किशोरों में भय व्याप्त होगा। दुनिया भर के आंकड़े इसे झुठलाते हैं। इस बात का ध्यान रखियेगा कि सरकार ने सिर्फ हत्या या बलात्कार जैसे कुछ क्रूर मामलों में ही नाबालिकों को बालिगों के समान अपराधी माना है।
दिल्ली में यह सवाल उठा था कि निर्भया के साथ सबसे क्रूर अपराध करने वाला 17 साल का किशोर सजा मिलने के बाद भी कुछ महीनों में बाहर आ जाएगा। जानकार कहते हैं कि यह धारणा भी गलत है। वह 18 साल का होते ही बाल सुधारगृह से आज़ाद नहीं हो जाएगा। तो आज हम सिर्फ दो वक्ताओं के सहारे इसके पक्ष विपक्ष पर चर्चा करेंगे। प्रयास करेंगे कि बिना भावुक हुए उत्तेजित हुए केंद्र सरकार के नए संशोधनों पर बात हो सके।
(प्राइम टाइम इंट्रो)