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This Article is From Apr 15, 2015

प्राइम टाइम इंट्रो : फिर एकजुट हुआ जनता परिवार

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 15, 2015 21:40 pm IST
    • Published On अप्रैल 15, 2015 21:31 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 15, 2015 21:40 pm IST

जनता दल यूनाइटेड नाम का दल तो था ही लेकिन छह-छह जनता दल यूनाइटेड आज हुए हैं। इस यूनाइटेड स्टेट ऑफ जनता का नाम क्या होगा, चुनाव चिन्ह क्या होगा और संगठन का क्या ढांचा होगा यह सब जल्दी तय कर लिये जाने का वादा किया गया गया है।

नाम से ही सही एक जनता पार्टी तो भारतीय जनता पार्टी में भी है। जिसे चुनौती देने के लिए जनता परिवार एकजुट हुआ है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ हमीं आप इस एकता पर मुस्कुरा रहे हैं।

अब देखिये शरद जी को बुजुर्ग नेता कहते हुए लालू ने भी ज़रा उनके कंधे को गुदगुदा दिया। इनकी देहभाषा भी आप ही की तरह सवाल कर रही थी कि अरे देखो हम एक हो गए। यही तो सब पूछ रहे हैं, जो नेता सालों तक एक दूसरे से अलग होने के लिए प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं, आज कैसे एकजुट होकर मिलने का ऐलान कर रहे हैं।

इन सबने कभी एक दूसरे को अपना नेता नहीं माना लेकिन इस चक्कर में ये कभी कांग्रेस-भाजपा विरोध के नाम पर दिवंगत हरकिशन सिंह सुरजीत तो कभी प्रकाश करात को नेता मानते रहे, भाजपा विरोध के नाम पर सोनिया गांधी को अपना नेता मानते रहे और सिर्फ कांग्रेस विरोध के नाम पर कभी वाजपेयी तो कभी आडवाणी को अपना नेता मानते रहे।

सबको नेता मान लेने के बाद क्या पता इन राजनेताओं को यह ध्यान आया हो कि हम आपस में भी एक दूसरे को नेता मान सकते हैं। इसलिए लालू ने कहा कि किसी में कोई ईगो नहीं है। नीतीश कुमार सीरीयस लगे और मुलायम सिंह यादव ने कहा कि मौजूदा केंद्र सरकार की नीतियों और भाजपा की राजनीति की प्रतिक्रिया में हमारी एकजुटता को देखा जाना चाहिए। कइयों ने एकता का कारण मोदी फोबिया बताया।

अगर ऐसा है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गर्व करना चाहिए कि उनकी वजह से भारतीय राजनीति का असंभव संभव हो गया है। मोदी के साथ-साथ मुलायम सिंह यादव को भी आज के दिन बधाई दो जानी चाहिए क्‍योंकि वे वाकई लालू, नीतीश, शरद और ओम प्रकाश चौटाला के नेता बन गए हैं। सवाल और संभावनाएं अपनी जगह, इनके टूटने का का इतिहास अपनी जगह, लेकिन यह कोई साधारण या नज़रअंदाज़ कर दी जाने वाली राजनीतिक घटना नहीं है।

अगर राजनीति में सबकुछ हार जीत से परिभाषित होना है तो दिल्ली चुनावों में 3 सीट आने के बाद क्या बिहार में बीजेपी की संभावनाओं को समाप्त माना जा सकता है? अगर सब कुछ मज़बूत संगठन और सत्ता से ही परिभाषित होना है तो कैसे बिहार में नीतीश कुमार अपने धुर विरोधी लालू यादव को मिलाकर बीजेपी के करीब जा चुके जीतन राम मांझी को हटाकर दोबारा मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए। नैतिकता के पैमाने पर कौन पाक साफ है यह सिर्फ नैतिकता से तय नहीं होता। वक्त और उसके तकाज़े से भी होता है। आदर्श अब बदनाम हो चुका है। व्यावहारिकता अगर सबके लिए सिद्धांत है तो इसी पैमाने पर क्यों न बात हो।

इसमें क्या शक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज कांग्रेस ही नहीं तमाम तरह के दलों के लिए चुनौती हैं। विरोधी तो विरोधी नरेंद्र मोदी के अकाली दल और शिवसेना जैसे सहयोगी भी उन्हें चुनौती मानते होंगे। आज की भाजपा अपने दम पर बढ़ने का साहस करने वाली आक्रामक भाजपा है। इसके बाद भी उसका 29 दलों से गठबंधन चल रहा है, तब जब उसके पास 282 का अपना बहुमत है।

बिहार में भी भाजपा का लोकजनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से गठबंधन है और यूपी में अपना दल से। इसके अलावा जनता परिवार की तरह भाजपा परिवार का भी विलय हुआ है। 2011 में उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी का बीजेपी में विलय हो गया। 2013 को कल्याण सिंह ने भी अपनी जनक्रांति पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया।

2013 में भारतीय जनता पार्टी में चुपके से एक जनता पार्टी भी जा मिली थी। सुब्रमण्यम स्वामी वाली पार्टी। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने वाली बीजेपी के सामने 15 सांसदों की नई पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर न तो चुनौती पेश कर पाएगी और न बिहार के अंदर। हर कोई अरविंद केजरीवाल नहीं हो सकता और हर चुनाव दिल्ली का चुनाव नहीं हो सकता।

बिहार में बीजेपी को लोकसभा में एक करोड़ पांच लाख से ज्यादा वोट मिले थे फिर भी उसके 90 लाख सदस्य होने के दावे के आधार पर एक हिसाब करते हैं। पैमाना बनाते हैं 2010 के विधानसभा चुनाव में मिले वोटों की संख्या को। तब बीजेपी को 48 लाख वोट के साथ 91 सीटें मिली थीं। अब अगर सदस्यता वोट से भी डबल हो गई है तब तो बीजेपी को रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

2010 में जेडीयू और बीजेपी को 1 करोड़ 13 लाख वोट के दम पर 206 सीटें मिली थीं। तबके लालू, नीतीश और कांग्रेस के वोट को जोड़ दें तो यह संख्या बीजेपी जेडीयू से ज्यादा हो जाती है। 1 करोड़ 44 लाख वोट का हिसाब नीतीश के पक्ष में जाता है। अगर बीजेपी के 90 लाख सदस्यों में 2010 में पासवान को मिले 20 लाख वोट जोड़ दें तब भी नीतीश भारी पड़ते हैं। बस ये बताने के लिए इतनी मेहनत की कि क़ाग़ज़ पर कभी-कभी राजनीति मुश्किल भी लगती है। लोकसभा के वोट के हिसाब से भी नई पार्टी का पलड़ा भारी है। लालू यादव ने साफ-साफ कहा कि नई पार्टी की नीति भाजपा को खदेड़ना है।

कई जानकारों ने नई पार्टी के गठन को मुख्य रूप से बिहार चुनावों के संदर्भ में ही देखा है। क्या मुलायम सिंह यादव बिहार में नीतीश लालू के काम आ सकेंगे। बिहार में तो नीतीश कुमार की सरकार में लालू यादव और कांग्रेस बाहर से समर्थन दे ही रहे हैं। वैसे ही लालू और नीतीश यूपी में मुलायम सिंह यादव के कोई काम नहीं आएंगे। तो क्या इस विलय के कुछ और भी मायने हैं जो देखा नहीं जा रहा है। क्या किसी एक को मिलाये रखने के लिए पांच और को जुटाया गया है।

भाजपा परिवार, जनता परिवार से प्रेरित होकर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भी कांग्रेस परिवार की बात करने लगे हैं। तृणमूल कांग्रेस, नेशलिस्ट कांग्रेस पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, तमिल मणिला कांग्रेस का विलय हो जाए। ये और बात है कि कांग्रेस में 55 दिनों से गांधी परिवार ही नहीं मिल पा रहा है तो कांग्रेस परिवार कैसे मिलेगा।

साइकिल, लालटेन, चश्मा, तीर, सर पर धान की बाली उठाए औरत। इन सबकी जगह अब एक चुनाव चिन्ह होगा। लेकिन क्या सात महीना पहले नीतीश कुमार नए चुनाव चिन्ह के साथ बिहार के चुनाव में जाना चाहेंगे। जो कभी भाजपा के साथ कांग्रेस विरोध की ज़मीन पर पनपे और भाजपा को ऊर्जा देते चले गए वही अब भाजपा विरोध की ज़मीन पर लहलहाना चाहते हैं।

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