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This Article is From May 11, 2018

नेहरू से लड़ते-लड़ते अपने भाषणों में हारने लगे हैं नरेंद्र मोदी

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 14, 2018 21:19 pm IST
    • Published On मई 11, 2018 11:43 am IST
    • Last Updated On मई 14, 2018 21:19 pm IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  के लिए चुनाव जीतना बड़ी बात नहीं है. वह जितने चुनाव जीत चुके हैं या जिता चुके हैं, यह रिकॉर्ड भी लंबे समय तक रहेगा. कर्नाटक की जीत कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन आज प्रधानमंत्री को अपनी हार देखनी चाहिए. वह किस तरह अपने भाषणों में हारते जा रहे हैं. आपको यह हार चुनावी नतीजों में नहीं दिखेगी. वहां दिखेगी, जहां उनके भाषणों का झूठ पकड़ा जा रहा होता है. उनके बोले गए तथ्यों की जांच हो रही होती है. इतिहास की दहलीज़ पर खड़े होकर झूठ के सहारे प्रधानमंत्री इतिहास का मज़ाक उड़ा रहे हैं. इतिहास उनके इस दुस्साहस को नोट कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना शिखर चुन लिया है. उनका एक शिखर आसमान में भी है और एक उस गर्त में हैं, जहां न कोई मर्यादा है, न स्तर. उन्हें हर कीमत पर सत्ता चाहिए, ताकि वह सबको दिखाई दें शिखर पर, मगर खुद रहें गर्त में. यह गर्त ही है कि नायक होकर भी उनकी बातों की धुलाई हो जाती है. इस गर्त का चुनाव वह खुद करते हैं. जब वह ग़लत तथ्य रखते हैं, झूठा इतिहास रखते हैं, विरोधी नेता को उनकी मां की भाषा में बहस की चुनौती देते हैं. यह गली की भाषा है, प्रधानमंत्री की नहीं.

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दरअसल, प्रधानमंत्री के लिए नेहरू चुनौती बन गए हैं. उन्होंने खुद नेहरू को चुनौती मान लिया है. वह लगातार नेहरू को खंडित करते रहते हैं. उनके समर्थकों की सेना व्हॉट्सऐप नाम की झूठी यूनिवर्सिटी में नेहरू को लेकर लगातार झूठ फैला रही है. नेहरू के सामने झूठ से गढ़ा गया एक नेहरू खड़ा किया जा रहा है. अब लड़ाई मोदी और नेहरू की नहीं रह गई है. अब लड़ाई हो गई है असली नेहरू और झूठ से गढ़े गए नेहरू की. आप जानते हैं, इस लड़ाई में जीत असली नेहरू की होगी. नेहरू से लड़ते-लड़ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चारों तरफ नेहरू का भूत खड़ा हो गया. नेहरू का अपना इतिहास है. वह किताबों को जला देने और तीन मूर्ति भवन के ढहा देने से नहीं मिटेगा. यह गलती खुद मोदी कर रहे हैं. नेहरू-नेहरू करते-करते वह चारों तरफ नेहरू को खड़ा कर रहे हैं. मोदी के आस-पास अब नेहरू दिखाई देने लगे हैं. उनके समर्थक भी कुछ दिन में नेहरू के विशेषज्ञ हो जाएंगे, मोदी के नहीं. भले ही उनके पास झूठ से गढ़ा गया नेहरू होगा, मगर होगा तो नेहरू ही.

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प्रधानमंत्री के चुनावी भाषणों को सुनकर लगता है कि नेहरू का यही योगदान है कि उन्होंने कभी बोस का, कभी पटेल का तो कभी भगत सिंह का अपमान किया. वह आज़ादी की लड़ाई में नहीं थे, वह कुछ नेताओं को अपमानित करने के लिए लड़ रहे थे. क्या नेहरू इन लोगों का अपमान करते हुए ब्रिटिश हुकूमत की जेलों में नौ साल रहे थे...? इन नेताओं के बीच वैचारिक दूरी, अंतर्विरोध और अलग-अलग रास्ते पर चलने की धुन को हम कब तक अपमान के फ्रेम में देखेंगे. इस हिसाब से तो उस दौर में हर कोई एक दूसरे का अपमान ही कर रहा था. राष्ट्रीय आंदोलन की यही खूबी थी कि अलग-अलग विचारों वाले एक से एक कद्दावर नेता थे. यह खूबी गांधी की थी. उनके बनाए दौर की थी, जिसके कारण कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर नेताओं से भरा आकाश दिखाई देता था. गांधी को भी यह अवसर उनसे पहले के नेताओं और समाज सुधारकों ने उपलब्ध कराया था. मोदी के ही शब्दों में यह भगत सिंह का भी अपमान है कि उनकी सारी कुर्बानी को नेहरू के लिए रचे गए एक झूठ से जोड़ा जा रहा है.

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भगत सिंह और नेहरू को लेकर प्रधानमंत्री ने जो ग़लत बोला है, वह ग़लत नहीं, बल्कि झूठ है. नेहरू और फील्ड मार्शल करियप्पा, जनरल थिमय्या को लेकर जो ग़लत बोला है, वह भी झूठ था. कई लोग इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि प्रधानमंत्री की रिसर्च टीम की ग़लती है. आप ग़ौर से उनके बयानों को देखिए. जब आप एक-एक शब्द के साथ पूरे बयान को देखेंगे, तो उसमें एक डिज़ाइन दिखेगा. भगत सिंह वाले बयान में ही सबसे पहले वह खुद को अलग करते हैं. कहते हैं कि उन्हें इतिहास की जानकारी नहीं है और फिर अगले वाक्यों में विश्वास के साथ यह कहते हुए सवालों के अंदाज़ में बात रखते हैं कि उस वक्त जब भगत सिंह जेल में थे, तब कोई कांग्रेसी नेता नहीं मिलने गया. अगर आप गुजरात चुनावों में मणिशंकर अय्यर के घर हुई बैठक पर उनके बयान को इसी तरह देखेंगे, तो एक डिज़ाइन नज़र आएगा.

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बयानों के डिज़ाइनर को यह पता होगा कि आम जनता इतिहास को किताबों से नहीं, कुछ अफवाहों से जानती है. भगत सिंह के बारे में यह अफवाह जनसुलभ है कि उस वक्त के नेताओं ने उन्हें फांसी से बचाने का प्रयास नहीं किया. इसी जनसुलभ अफवाह से तार मिलाकर और उसके आधार पर नेहरू को संदिग्ध बनाया गया. नाम लिए बिना कहा गया कि नेहरू भगत सिंह से नहीं मिलने गए. यह इतना साधारण तथ्य है कि इसमें किसी भी रिसर्च टीम से ग़लती हो ही नहीं सकती. तारीख या साल में चूक हो सकती थी, मगर पूरा प्रसंग ही ग़लत हो, यह एक पैटर्न बताता है. यह और बात है कि भगत सिंह सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे और ईश्वर को ही नहीं मानते थे. सांप्रदायिकता के सवाल पर नास्तिक होकर जितने भगत सिंह स्पष्ट हैं, उतने ही नेहरू भी हैं. बल्कि दोनों करीब दिखते हैं. नेहरू और भगत सिंह एक दूसरे का सम्मान करते थे. विरोध भी होगा, तो क्या इसका हिसाब चुनावी रैलियों में होगा.

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नेहरू का सारा इतिहास मय आलोचना अनेक किताबों में दर्ज है. प्रधानमंत्री मोदी अभी अपना इतिहास रच रहे हैं. उन्हें इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि कम से कम वह झूठ पर आधारित न हो. उन्हें यह छूट न तो BJP के प्रचारक के तौर पर है, न प्रधानमंत्री के तौर पर. कायदे से उन्हें इस बात के लिए माफी मांगनी चाहिए, ताकि व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के ज़रिये नेहरू को लेकर फैलाए जा रहे ज़हर पर विराम लगे. अब मोदी ही नेहरू को आराम दे सकते हैं. नेहरू को आराम मिलेगा तो मोदी को भी आराम मिलेगा.

 

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