बिहार की रहने वाली नीतू गाजियाबाद की एक फैक्टरी में काम करती हैं, लेकिन फिलहाल इनकी पहली चिंता है कि गैस का सिलेंडर खत्म होने से पहले बैंक का खाता कैसे खुले, वरना सिलेंडर पर मिलने वाली सब्सिडी बेकार चली जाएगी। लिहाजा नीतू जब गाजियाबाद की खोड़ा कॉलोनी के स्टेट बैंक पहुंची और जन-धन योजना के तहत जीरो बैलेंस वाले एकाउंट के फॉर्म की मांग की तो बैंक ने कहा उसके लिए जनवरी तक इंतजार करो, लेकिन अगर खाता अभी खुलवाना है तो 1,100 रुपये देने होंगे। यह हाल सिर्फ नीतू और गाजियाबाद की खोड़ा कॉलोनी तक ही सिमटा हुआ नहीं है। नजर दौड़ाई जाए तो देश में कई जगहों पर बैंक खातों को लेकर पब्लिक की ऐसी ही बेचारगी दिखेगी।
लेकिन हमने खोड़ा का जायजा लिया और आलम यहां तक दिखा कि लोग जीरो बैलेंस वाले एकाउंट के फॉर्म के लिए सिफारिश तक लेकर आ रहे हैं। स्टेट बैंक ने अपनी भीड़ कम करने के लिए कस्टमर सर्विस प्वाइंट खोल रखा है। टाल-मटोल कर पहले पब्लिक को कस्टमर सर्विस प्वाइंट जाने के लिए राजी किया जाता है, और अगर पब्लिक अड़ गई कि फॉर्म बैंक से ही लेना है तो 1,100 रुपये में एकाउंट खोलने का पेंच लगा दिया जाता है। संसाधन की कमी का रोना हो सकता है, लेकिन यहां नीयत में खोट दिख रहा है। जिन बैंको के जरिये जन-धन योजना को अंजाम तक पहुंचाना था, वही बैंक मानो योजना पर ब्रेक मारने में लगे हों।
वैसे, चुनौती उनके सामने भी मुंह बाए खड़ी है, जो शुरुआती दौर में खाता खुलवाने में कामयाब हो गए थे। वे लोग अब दो महीने बीतने के बाद भी पासबुक के लिए चप्पलें घिस रहे हैं। गाजियाबाद की फैक्टरी में सैम्पल कलेक्ट करने वाले अरविंद बताते हैं कि पासबुक के लिए बार-बार छुट्टी लेकर बैंक के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, अरविंद कहते हैं कि एकाउंट खुलवाने के लिए उन्होंने स्टेट बैंक के कस्टमर सर्विस प्वाइंट को 100 रुपये भी दिए, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में जीरो बैलेंस एकाउंट खुलवाने के लिए बैंक की तरफ से सर्विस के नाम पर ली जाने वाली तय राशि महज 25 रुपये है... तो फ्री एकाउंट के नाम पर जनता को चूना कस्टमर सर्विस प्वाइंट पर भी लगाया जा रहा है। हालांकि खोड़ा के स्टेट बैंक कस्टमर सर्विस प्वाइंट पर काम करने वाले रामफल शर्मा इस बात से इनकार करते हैं, लेकिन पब्लिक कह रही है तो दाल में कुछ काला तो जरूर है।
इन बैंक खातों से ज्यादा फायदा उनका भी होने वाला था, जो दूरदराज से आकर दिल्ली या एनसीआर में काम करते हैं, और जिन्हें अपने घर पैसा भेजना होता है। खाता नहीं होने की वजह से बैंक पैसा भेजने से मना कर देते हैं। लिहाजा ऐसे लोगों को मनी ट्रांसफर के लिए जगह-जगह खुले ईको-काउंटर का आसरा ही बचता है, जहां कमीशन सरकारी बैंकों से ज्यादा है। फुटपाथ पर चप्पल बेचने वाले कपिल देव प्रसाद कहते हैं कि अब तो घर पर पैसा भेजने के लिए बैंक कभी नहीं जाते। दो-तीन बार कतार में लगे, जब करीब घंटे भर बाद नंबर आता तो बैंक एकाउंट की बात पूछती। मेरा जवाब न में होता तो पैसा भेजने से मना कर देती। साथ-साथ 55 साल के कपिल यह भी कहना नहीं भूलते कि प्रधानमंत्री ने हम जैसों के लिए अच्छी योजना शुरू की। अगर हमारा एकाउंट आसानी से खुल जाता तो कुछ पैसे भी हमारे बच जाते।
इसके बाद हमने ऐसे ही एक ईको-काउंटर का रुख किया। कोशिश यह जानने की थी कि आखिर इस तरह की सुविधा का लाभ कौन लेते हैं। नजर दौड़ाई तो खोड़ा कॉलोनी के स्टेट बैंक के सामने टाबारक कम्यूनिकेशन दिखा - बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था कि यहां से हर जगह और हर बैंक में पैसा ट्रांसफर करें। टाबारक कम्यूनिकेशन के धीरज ने बताया कि यहां वे लोग आते हैं, जिनके दिल्ली या एनसीआर में एकाउंट नहीं। अगर जन-धन योजना के तहत सबके एकाउंट खुल जाएं तो धंधे पर भी असर पड़ेगा और फिर हमारी दुकान भी बंद हो सकती है। धीरज बताते हैं कि हमारे यहां से 10,000 रुपये भेजने का चार्ज 100 रुपये है। वहीं एसबीआई कहती है कि हमारे यहां इतनी ही रकम 50 रुपये शुल्क पर भेजी जा सकती है। ऐसे में अगर लोगों के खुद के खाते हों तो फिर दूरदराज के इलाके में पैसा ट्रांसफर करने को लेकर गरीबी में ज्यादा आटा गीला नहीं करना होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जन-धन योजना सराहनीय है और हमारी कोशिश आलोचना से कहीं ज्यादा हकीकत बताने और दिखाने की है, लेकिन जब मकसद पूरा न हो रहा हो और लोगों की बेचारगी अब भी बरकरार हो तो जरूरत नए सिरे से चिंतन-मंथन की है। नहीं तो डर है कि यह योजना भी कहीं सरकारी न बनकर रह जाए।
This Article is From Dec 04, 2014
परिमल की कलम से : कहीं 'सरकारी' बनकर न रह जाए जन-धन योजना
Parimal Kumar, Vivek Rastogi
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Updated:दिसंबर 04, 2014 18:31 pm IST
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Published On दिसंबर 04, 2014 18:28 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 04, 2014 18:31 pm IST
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