प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हाथ पर बस हाथ नहीं मारा, एक तरह से बड़ा कूटनीतिक मैदान मार लिया है. मोदी-ट्रंप मुलाकात के बाद तमाम न्यूज़ चैनलों पर जितनी चर्चा मध्यस्थता की बात को ठुकराए जाने की हो रही थी, उससे कहीं ज्यादा चर्चा हाथ पर हाथ मारने के वीडियो की होती रही. इसमें कोई दो राय नहीं कि जब एक कूटनीतिक संवाद होता है, तो उसमें आपसी व्यवहार और भाव-भंगिमा का अपना महत्व होता है. राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी की अंग्रेज़ी को शानदार बताया, तो उस मौके का अपनी तरह से इस्तेमाल करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उनके हाथ को ताकत लगाकर अपनी ओर खींचा और फिर उस पर एक ज़ोरदार थपकी रख दी. इसके ज़रिये उन्होंने दिखा दिया कि वह किस तरह की पर्सनल कैमिस्ट्री लेकर चलते हैं, और किस तरह हर मौके को अपने हिसाब से ढालकर अपना दबदबा दिखाते हैं.
अब आते हैं उन बातों पर, जो प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप के सामने कहीं. उन्होंने साफतौर पर कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच के तमाम मसले द्विपक्षीय हैं और इस पर किसी तीसरे देश को भारत कष्ट नहीं देता. ज़ाहिर-सी बात है कि कष्ट जैसे शिष्टाचार से जुड़े शब्द का इस्तेमाल कर प्रधानमंत्री मोदी ने दमदार तरीके से या कहें कि कूटनीतिक तरीके से अपनी बात रख दी और ट्रंप भी यह कहते हुए मध्यस्थता की बात से हाथ खींचने को मजबूर हो गए कि दोनों ही देशों के प्रधानमंत्री (भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री) उनके मित्र हैं, अच्छे मित्र हैं, और दोनों आपस में विचार-विमर्श के ज़रिये मुद्दों को सुलझाएंगे.
यानी ट्रंप अपने उन्हीं शब्दों को खाने को मजबूर हो गए, जो उन्होंने 22 जुलाई को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ बैठक से पहले कहे थे, और यहां तक दावा कर दिया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद उनसे मध्यस्थता करने की बात कही थी. उसके बाद भारत की कड़ी प्रतिक्रिया आई, और विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने संसद में बयान देकर कहा था कि इस तरह का कोई प्रस्ताव प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से नहीं रखा गया. यह झूठ है, लेकिन उसके बावजूद राष्ट्रपति ट्रंप ने 22 अगस्त को फिर मध्यस्थता शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि वह जानना चाहेंगे कि भारत के पास तनाव को घटाने और कश्मीर में स्थिति को सामान्य करने का क्या रोडमैप है.
अमेरिका मानता है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना भारत का अंदरूनी मामला है और इस बाबत अमेरिकी अधिकारियों के कई बयान भी आ चुके हैं, लेकिन अमेरिका की चिंता इस बात को लेकर है कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जो माहौल पैदा हुआ है, उससे भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ा है, और इलाके में अशांति का खतरा पैदा हो गया है, जिसे कम करने की ज़रूरत है, इसलिए राष्ट्रपति ट्रंप बार-बार इस बात पर ज़ोर देते रहे कि भारत और पाकिस्तान आपसी बातचीत के ज़रिये तनाव को कम करने की दिशा में काम करें.
इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने इमरान खान के साथ फोन पर हुई उस बातचीत का भी ज़िक्र किया, जो इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के वक्त हुई थी, और कहा कि किस तरह उन्होंने इमरान खान से कहा था कि दोनों देशों को मिलकर गरीबी से लड़ना है, बीमारी से लड़ना है, बेरोज़गारी से लड़ना है, और इन्हीं बातों के साथ प्रधानमंत्री ने अपनी बात पूरी कर दी. यह घोषित सत्य है कि भारत की नीति रही है कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते और इसलिए पाकिस्तान जब भी बातचीत की बात करता है, तो भारत की तरफ से शर्त है कि पहले वह आतंकवाद के खिलाफ ठोस निर्णायक और साक्ष्य के साथ कार्रवाई करे. ऐसी कार्रवाई, जिसे ज़मीनी स्तर पर वेरीफाई किया जा सके, और उसके बाद ही बातचीत होगी.
ट्रंप और मोदी कैमरे के सामने बैठे थे, तो प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात का जिक्र इस मौके पर नहीं किया. इसके पीछे दो वजहें हो सकती हैं. एक, भारत नहीं चाहता कि वह पाकिस्तान से बात कम करने के मामले में बिल्कुल ही एरोगेंट दिखे, खासतौर पर तब, जब खुद अमेरिका इसकी पैरवी कर रहा है. दूसरी वजह, सारी बात उस वक्त साफ-साफ न बोलकर जब ट्रंप और प्रधानमंत्री मोदी की आपसी बातचीत होगी, तो यह बात साफ कर दी होगी.
कूटनीति का यह तकाजा होता है कि कई बार अपनी बात बेशक जोर से न कही जाए, लेकिन मजबूती से अपनी शर्त पर टिके रहें. पाकिस्तान जिस तरह अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में जुटा हुआ है, ऐसे में भारत उसे ज्यादा मौका नहीं देना चाहता, और इसमें उसे अमेरिका के साथ की भी ज़रूरत है. अगले महीने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासंघ की बैठक होने जा रही है और पाकिस्तान की कोशिश कश्मीर के मामले को हर हद तक उठाने की है. मोदी-ट्रंप मुलाकात के बाद पाकिस्तान को लगा कि उसके हाथ कुछ नहीं लगा है, लिहाज़ा उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री इमरान खान ने बयान जारी कर एटमी हथियार की धमकी तक दे डाली, जो पाकिस्तान की बौखलाहट दिखाता है और दुनिया में उसे न मिल रहे समर्थन को भी.
ज़ाहिर है कि भारत के कूटनीतिज्ञ बहुत ही साफगोई और कुशलता से खेले हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. एक संभावना इस बात की हो सकती है कि बैक चैनल डिप्लोमेसी के ज़रिये पाकिस्तान से तनाव घटाने की कोशिश हो, लेकिन अब सारा दारोमदार पाकिस्तान पर है कि आखिरकार वह कश्मीर का राग अलापना बंद करता है या नहीं और आतंकवाद के खिलाफ ठोस कार्रवाई करता है या नहीं. प्रेसिडेंट ट्रंप ने बेशक अपनी तरफ से कोशिश कर ली, लेकिन इसके बूते भारत पाकिस्तान से बात करने को तैयार नहीं होगा, बल्कि उसे ज़मीन पर आतंकवाद के खिलाफ ठोस नतीजा चाहिए होगा.
वैसे, ट्रंप ने मध्यस्थता का कार्ड खेलने की जो कोशिश की, उसके पीछे का मकसद साफ है कि अमेरिका पाकिस्तान को भी खुश रखना चाहता है, क्योंकि अफगानिस्तान में उसे उसकी बहुत ज़रूरत है और जिस तरह ट्रंप अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने को बेताब हो रहे हैं, ऐसे में पाकिस्तान को न खुश करना उनके लिए उल्टा साबित हो सकता है, तो जब इमरान खान मिले, तो उनसे उनके जैसी बात कर ली और फिर प्रधानमंत्री मोदी के सामने अपनी ही बात से मुकर गए. लिहाज़ा पाकिस्तान खुद को ठगा महसूस कर रहा है, लेकिन उसके पास भी अमेरिका के खिलाफ जाने की न हिम्मत है, न कूवत. हां, वह अपनी तरफ से लगातार भरसक कोशिश करता रहेगा और अमेरिका सहित तमाम देशों से इस मामले में दखल देने की मांग करता रहेगा.
उमाशंकर सिंह NDTV में विदेश मामलों के संपादक हैं...
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