केंद्र सरकार ने रीयल इस्टेट बिल तो पास कर दिया है लेकिन अभी सभी राज्यों में इसके पालन होने का इंतज़ार है. लोगों को अगर राहत मिल रही है तो सुप्रीम कोर्ट और दूसरे कोर्ट के आदेशों से यह मुमकिन है. वैसे कई राज्य का अपना रीयल एस्टेट कानून है लेकिन फिर भी कोई समाधान नहीं सामने आ रहा है. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने दो बिल्डरों के ख़िलाफ़ जो निर्देश दिये हैं वह काफी अहम है. सुप्रीम कोर्ट ने पंचकूला के डीएलएफ वैली के ख़रीदारों को 30 नवंबर तक घर का कब्ज़ा देने का निर्देश दिया है.
50 ख़रीदारों को फ्लैट के साथ-साथ 9 फीसदी ब्याज भी देने का आदेश दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने गाज़ियाबाद के पार्श्वनाथ एक्ज़ोटिका से 70 ख़रीदारों को पैसा वापस करने का शेड्यूल मांगा है. ख़रीदारों के मुताबिक इन्हें 2012 तक फ्लैट मिल जाने थे लेकिन वहां अभी तक कोई निर्माण ही नहीं हुआ है. इस मामले में पहले एनसीडीआरसी ने आदेश दिया था कि 70 ख़रीदारों को 12% ब्याज के साथ तीन लाख बतौर मुआवज़ा दिया जाए.
क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लोगों को पैसे मिल जायेंगे या यह मामला एक और कानूनी लड़ाई की तरफ मुड़ जाएगा. इसके लिए इंतज़ार करना होगा लेकिन कोर्ट सख़्त हैं और लोगों में नई उम्मीद भी दिख रही है. 23 अगस्त को सुपरटेक के इमरेल्ड कोर्ट प्रोजेक्ट के 14 ख़रीदारों की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्यों ने इनके पैसे ब्याज के साथ वापस लौटाए जाएं.
सुप्रीम कोर्ट ने यूनिटेक को दो किश्तों में 15 करोड़ रुपये रजिस्ट्री में जमा कराने को कह दिया है. विस्टा प्रोजेक्ट गुड़गांव में बनना था, लेकिन अब भी काम बंद है. जब मकान मिलने में चार - पांच साल की देरी होने लगी तो ख़रीदारों का सब्र टूटने लगा. लेकिन इसी दौरान इस तबके में संघर्ष का नया जज़्बा पैदा हुआ. वीकेंड पर अपने आशियाने को देखने जाने वाले और काम होता नहीं देखकर निराश होने वाले एकजुट हो रहे हैं. वीकेंड मूवमेंट जिसमें एक बड़ी भूमिका मिडिल क्लास की है, अब ग़ैर-ज़िम्मेदार बिल्डरों के ख़िलाफ़ लड़ने लगी है, आवाज़ उठाने लगी है.
हालांकि ऐसा नहीं है कि सब बिल्डर ऐसा कर रहे हैं. कई वादा पूरा भी कर रहे हैं, घर भी दे रहे हैं, लेकिन जिन्हें कुछ नहीं मिला उन्हें लग गया कि प्रशासन और सरकार से नए कानून बनाने के अलावा कोई मदद नहीं मिलने वाली है. लिहाज़ा वह अपनी लड़ाई सड़क से लेकर मीडिया और मीडिया से लेकर अदालतों तक ले जाने लगे हैं. दिल्ली से सटे नोएडा, ग्रेटर नोएडा की ही बात करें तो शायद ही कोई हफ्ता बीतता होगा जब अलग-अलग बिल्डरों के ख़िलाफ़ घर लेने वाले विरोध प्रदर्शन ना कर रहे हों. दिल्ली से लेकर कोलकाता, मुंबई से लेकर चेन्नई तक कई संस्थाएं बनी हैं जिसे बनाने वाले भी खरीदार हैं और चलाने वाले भी.
आपस में पैसे जमाकर आंदोलन चलाए जा रहे हैं, सोशल साइट्स पर पेज और ग्रुप बने हैं, जहां अपनी बात और अपने गुस्से का इज़हार भी कर रहे हैं. इन पेजों पर रणनीति भी बनती है और कहां कब सबको जुटना है वे भी तय होता है. कोर्ट के फैसलों को भी तुरंत शेयर किया जाता है. अब तो कई व्हाट्सऐप ग्रुप भी बन गए हैं, जिसके ज़रिए नए ख़रीदारों को जोड़ने की कोशिशें होती है. जगह-जगह चल रहे आंदोलनों को सियासी दलों ने उस गंभीरता से नहीं लिया जितना उन्हें लेना चाहिए था. हालांकि वीकेंड मूवमेंट में जुड़े मिडिल क्लास को अब लगने लगा है कि वह अपने दम पर अपना हक़ ले सकते हैं. उम्मीद करनी चाहिए की जिस पारदर्शिता की बात की जाती है वह रीयल ऐस्टेट सेक्टर में दिखे, ताकि वीकेंड मूवमेंट के लिए लोगों को मजबूर ना होना पड़े.
मिहिर गौतम एनडीटीवी इंडिया में एसोसिएट न्यूज़ एडिटर हैं.
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