विज्ञापन
This Article is From Aug 01, 2017

नीतीश-मोदी के मिलन पर इतना हंगामा क्यों है बरपा?

Manish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 01, 2017 21:37 pm IST
    • Published On अगस्त 01, 2017 21:27 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 01, 2017 21:37 pm IST
बिहार की राजनीति में पिछले हफ्ते जो हुआ, उस पर पूरे देश में बहस जारी है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस नाटकीय घटनाक्रम में महागठबंधन को अलविदा कहते हुए बीजेपी के साथ सरकार बनाई, उससे खुद पटना से दिल्ली तक बीजेपी के नेता हतप्रभ थे. ये कयास करीब तीन हफ्ते से स्‍पष्‍ट था कि सीबीआई द्वारा मामला दर्ज होने के बाद तेजस्वी यादव ने ना तो सफाई दी और ना ही इस्तीफा दिया, जिससे नीतीश को इस्तीफा देने का एक मजबूत आधार मिल गया.

लेकिन हर व्‍यक्ति जानना चाहता है कि नीतीश कुमार ने जो किया, वो क्यों किया? नीतीश को मालूम था कि सीबीआई छापेमारी के बाद उनके फ़ोन का इंतजार करने वाले राजद अध्यक्ष लालू यादव भविष्‍य में चारा घोटाले या किसी अन्य मामले में जेल जाने के बाद उनसे जेल में मुलाकात की अपेक्षा रखते और उससे ज्यादा जैसे एक ज़माने में लालू यादव के तब के सहयोगी और अब केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान उन्हें निर्दोष करार देते थे, वैसी भूमिका में नीतीश भी दिखे.. ये बात नीतीश को कतई पसंद नहीं होती. नीतीश कुमार को इस बात का भरोसा हो गया था कि लालू यादव ने संपत्ति के चक्कर में अपने दोनों बेटों खासकर तेजस्वी के राजनीतिक जीवन को मिट्टी में मिला दिया हैं, लेकिन इन सबसे ज्यादा नीतीश कुमार महागठबंधन में असहज हो गए थे और लालू यादव के यादव वोटरों के सामाजिक बर्ताव के कारण उन्हें ये अपने नेता, कार्यकर्ता और प्रशासनिक मशीनरी के फीडबैक के आधार पर ये भरोसा हो गया था कि लोकसभा चुनाव में यादव वोट मिले या न मिले, लेकिन अति पिछड़ा, महादलित और अपने जाति का वोट भी शायद ही मिले... इसलिए अगर वो पूरे विपक्ष के प्रधानमंत्री के उमीदवार भी बन जाएं तो लालू यादव के साथ के कारण उनकी दुर्गति निश्चित है. लालू यादव यहां नीतीश से मात खा गए. वे अपने बड़बोलेपन और राजनीतिक स्थिति को भांपने में नाकामयाबी के कारण ये मानकर चल रहे थे कि नीतीश कुर्सी पर बैठे रहने के कारण शायद उनकी हर बात मानते रहेंगे.

लेकिन नीतीश ने जब एक बार पार्टी का मन भांप लिया, उसके बाद बीजेपी के साथ पुराने संबंधों के कारण न संवाद और न ही सरकार बनाने की जो भी आवश्यक औपचारिकता होती हैं, उसे पूरा करने में कोई देरी हुई, क्योंकि बीजेपी के शीर्ष पर बैठे लोगों ने इस मामले में राज्य इकाई के लोगों से रायशुमारी करने की जरूरत नहीं समझी और ये सब कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्‍यक्ष अमित शाह और नीतीश के बीजेपी में सबसे विश्‍वस्‍त अरुण जेटली तक सब सीमित रहा. वर्तमान बीजेपी को लालू के साथ नीतीश के दिनोंदिन तनाव से राजनीतिक लाभ था, क्योंकि आने वाले चुनाव में फायदा उन्हें ही मिलता, लेकिन नीतीश को तुरंत समर्थन देकर बीजेपी यह सन्देश देने में कामयाब रही है कि 2019 में कोई ज्यादा मुकाबला बचा नहीं हैं और विपक्ष भले नीतीश पर जितना हमला कर ले, लेकिन उनके इस कदम से परेशान और हताश दोनों हैं.

लेकिन नीतीश के निर्णय पर आखिर प्रतिक्रिया क्या हैं? निश्चित रूप से नीतीश ने एक साथ अपने किसी निर्णय के लिए अपने राजनीतिक जीवन में इतना आलोचना नहीं झेली होगी. हालांकि इस पर आम लोग और राजनीतिक विश्लेषकों के बीच कोई एक मत नहीं हैं. सबसे पहले बिहार में रहने वाले अधिकांश लोग, चाहे वो किसी जाति, वर्ग के हों, उन्हें पता नहीं, लेकिन एक राहत की सांस ले रहे हैं. हो सकता हैं कि ये अचानक पुलिस और प्रशासन के लोगों को सड़कों पर देखकर हो या अधिकारियों के तबादले की खबर से, क्योंकि महागठबंधन की धर्मनिरपेक्ष सरकार की ये सच्‍चाई थी कि तबादले खासकर जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक या अन्य अधिकारियों के तबादले नीतीश के बूते नहीं था और लालू यादव ने इस बात को माना भी है कि उनका हस्तक्षेप रहता था, लेकिन उनके मनमाफिक अधिकारी इतने विवादास्पद होते थे कि सब कुछ लटका पड़ा था और पूरे राज्य में विधि व्‍यवस्‍था के गिरते स्तर पर सब वर्ग के लोग सहमत थे. दूसरा, नीतीश के इस कदम के जो सबसे मुखर आलोचक हैं और कल तक उनके हर कदम के सबसे बड़े समर्थक होते थे, उनकी आलोचना का कारण है कि नीतीश ऐसे पीठ दिखा कर जायेंगे, उन्हें उम्मीद थी लेकिन विश्‍वास नहीं हो रहा. ये नीतीश के नए आलोचक बीजेपी के सबसे बड़े विरोधी रहे हैं और उनके लिए मोदी, शाह के साथ नीतीश का आना एक कटु सच के अलावा व्‍यक्तिगत झटका है. इसमें बिहार से जुड़े, दिल्ली में बसे, बिहार के विशेषज्ञ सब तरह के लोग हैं. उन्हें लगता हैं कि फ़िलहाल दूर-दूर तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाला कोई नीतीश की तरह का कद्दावर नेता नहीं रहा. ऐसे लोग परेशान और दुखी दोनों हैं, लेकिन नीतीश की मजबूरी है कि वो सबको अपने इस कदम के पीछे की मजबूरी के बारे में और बिहार के हालात और लालू यादव की भूमिका के बारे में व्‍यक्तिगत रूप से सफाई नहीं दे सकते और उन्होंने खुद भी माना है कि अपने कामों से आलोचकों को गलत साबित करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं, लेकिन वोटर का भी एक बड़ा समूह है जो ठगा महसूस कर रहा है, लेकिन उसे नीतीश के बिहार बीजेपी से कोई डर नहीं लगता जितना मोदी-शाह का भय हमेशा सताता रहता है. 

आने वाले दिनों में, नीतीश कुमार को राजनीतिक रूप से बहुत ज्यादा चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा. भले लालू यादव इस बात से खुश हो रहे हैं कि भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार की विश्‍वसनीयता कम हुई हैं और तेजस्वी यादव विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में अपने भाषण से सबको प्रभावित करने में सफल रहे हों, लेकिन लालू यादव जब तक अपने परंपरागत वोट बैंक में बीजेपी और जनता दल यूनाइटेड समर्थित जातियों को तोड़ने में कामयाब नहीं होते, तब तक राजनीतिक चुनौती या चुनाव जीतने के समीकरण के लिए आश्‍वस्‍त नहीं हो सकते.. लेकिन नीतीश की असल चुनौती है जिस भ्रष्‍टाचार के मुद्दे पर उन्होंने इतना बड़ा बवाल खड़ा कर इतनी बड़ी राजनीतिक पलटी मारी वो अगर राज्य में नीचे से लेकर सचिवालय के स्तर तक करप्‍शन पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते तब तक आम जनता यही मानेगी कि तेजस्वी केवल मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी के साथ मिलने के लिए एक बहाना थे. हालांकि ये उम्मीद की जा रही है कि केंद्र जल्द बिहार के लिए कुछ बड़ी घोषणा कर सकता है, लेकिन अगर शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे विभागों के कामकाज सुधार पाने में नीतीश ध्यान केंद्रित नहीं करते, तब शायद बिहार के लोगों में उनकी प्रशासनिक क्षमता को लेकर उठ रहे सवालों का निराकरण नहीं होगा. नीतीश कुमार के 12 सालों के शासनकाल के बावजूद सच्‍चाई यही है कि राजधानी पटना में सफाई हो या रोशनी व्‍यवस्‍था या ट्रैफिक सबकुछ बदहाल हैं.  

हालांकि बीजेपी के साथ सत्ता संभालने के कुछ दिन के अंदर ही राज्य में माफिया खासकर बालू माफिया के खिलाफ अभियान की शुरुआत हो गई है, लेकिन राजद से जुड़े नेताओं को निशाने पर रखकर लोगों का विश्‍वास नहीं जीता जा सकता. जब तक इस गोरखधंधे में लगे सभी पक्षों, वो पुलिस हो या पर्यावरण और खनन विभाग के अधिकारी या इस धंधे में लगे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के पैसे को बेनकाब नहीं किया जाता, कार्रवाई की विश्वनीयता पर सवाल खड़े होते रहेंगे.. लेकिन इन सबसे ज्यादा जरूरी है कि नीतीश कुमार को शराबबंदी की आड़ में सामानांतर होम डिलीवरी से लेकर देशी शराब बनाने का जो धंधा घर-घर शुरू हो गया है, उसका समाधान ढूंढना होगा. आज किसी से ये बात छिपी नहीं कि पुलिस के अधिकारी थाने से लेकर जिला मुख्यालय तक इस शराबबंदी में चांदी काट रहे हैं और राज्य में ब्लैक मनी और बेनामी सम्पति बनाने का ये बड़ा आय का स्‍त्रोत हैं और आने वाले दिनों में नीतीश सरकार को सबसे ज्यादा इस कसौटी पर परखा जाएगा कि आखिर बिहार में  शराबबंदी सफल है या विफल.

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com