राष्ट्रीय राजमार्ग 31 के ज़रिये पटना में घुसने से ज़रा पहले शोरशराबा शुरू हो जाता है. एक किलोमीटर से भी ज़्यादा दूरी तक सड़क के एक किनारे पर ट्रक खड़े हुए हैं, और राजमार्ग का यह अहम हिस्सा पार्किंग लॉट में तब्दील हो गया है. इसी सड़क पर दूसरी लेन में ट्रक आ-आकर चलते ट्रैफिक में घुसते रहते हैं. ...और यह सब रोज़ाना होने के बावजूद यहां पुलिस का नाम-ओ-निशान भी दिखाई नहीं देता.
13 साल तक नीतीश कुमार के बिहार का मुख्यमंत्री बने रहने के बावजूद यह बिहार की तस्वीर है, जो उसे बहुत-सी अराजकताओं वाला राज्य बनाती है. पिछले पांच साल के दौरान यहां (नीतीश के राजनैतिक 'दलबदल' के अलावा) कुछ भी नहीं बदला है, जिससे मतदाता कह सकें, हां, यह शख्स हमें रामराज्य की तरफ न सही, अच्छी ज़िन्दगी की तरफ एक कदम भी ले जा रहा है.
बीजेपी बिहार में अपने गठबंधन के साथी जनता दल यूनाइटेड के साथ लोकसभा चुनाव लड़ रही है.
बिहार में लगभग 80 फीसदी आबादी सरकारी राशन के बल पर ज़िन्दा है. देशभर के तमाम राशन कार्ड धारकों में से 12 फीसदी बिहार में ही बसते हैं. और राशन कार्ड को आधार कार्ड से लिंक कर लेने के बावजूद लोगों की शिकायत है कि उनके नाम काट दिए गए हैं. बहुतों की शिकायत है कि उनका नाम राशन कार्ड लिस्ट में नहीं है, जबकि अन्य लोगों की शिकायत है कि उन्हें वही मिलता है, जो दुकानदार चाहता है.
एक तरफ राशन मिलना दूभर है, दूसरी तरफ शराबबंदी कर उठाए गए 'बड़े कदम' को भी कोसा जा रहा है. टायर व्यापारी सुरिंदर सिंह का कहना था, "सड़क किनारे 300 ठिकाने हैं, जहां आपको शराब मिल सकती है, और वे घर आकर दे जाते हैं... सिर्फ इतना हुआ है कि दाम दोगुने हो गए हैं..." सुरिंदर सिंह के मुताबिक, GST ने भी उसके कारोबार का गला घोंट डाला है. वह कहते हैं कि वह कांग्रेस को वोट देंगे, क्योंकि एक 'बूढ़े' शख्स की तुलना में एक युवा का इंचार्ज होना बेहतर है.
बिहार में अप्रैल 2016 में शराब की बिक्री पर पूरी तरह पाबंदी लागू की गई थी.
चाहे गांव हो या शहर, लगभग हर शख्स इस बात से सहमत है कि शराबबंदी के बाद उसका मिलना नहीं रुका है, बस, बहुत-से लोग रईस हो गए हैं. हालांकि वे मानते हैं कि इस फैसले से कुछ महिलाएं खुश हैं, लेकिन एक विद्यार्थी के मुताबिक, इसका क्या फायदा, 'जब चोरी-चोरी छुप-छुपकर सब मिलता है, बस, कीमतें बढ़ गई हैं...'
शहरों और गांवों में लोगों की शिकायत है कि पुलिस शराब विक्रेता बनकर रह गई है. सो, बेहद दिलचस्प पहलू यह बन गया है कि वे आपको उसी चीज़ को पीने के लिए गिरफ्तार कर सकते हैं, जिसे उन्होंने ही आपको बेचा था.
विद्यार्थी बिश्राम कुमार का दावा है कि राज्य में लोग शराब को लेकर नहीं, नौकरियों को लेकर नाराज़ हैं. उसका दावा है कि रेलवे ने कई सालों से कोई भर्ती नहीं की है. बिश्राम कुमार ने कहा, "वे परीक्षा की तारीख प्रकाशित करते हैं, और फिर उसे रद्द कर देते हैं..."
फटवा (पटना) के छात्र भीसराम कुमार का कहना है कि नौकरी बड़ा मसला है.
यादवों के गांव गुलनी में पुरुषों का गुस्सा साफ नज़र आता है. उनका कहना है कि ग्रामीण बिहार में भ्रष्टाचार चरम पर है. उन्हें मिलने वाली कोई भी सेवा या सरकार की उदारता से हासिल होने वाली किसी भी चीज़ के लिए कीमत चुकानी पड़ती है, भले ही वे स्वच्छ अभियान के तहत बनने वाले शौचालय हों, या मनरेगा (MGNREGA) के तहत मिलने वाला ग्रामीण रोज़गार.
एक बुज़ुर्ग ग्रामीण ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बात को याद किया, "हर पांच रुपये में से चार उनके पास चले जाते हैं..." - बस, यही हाल है बिहार का...
लालू यादव को 2017 में भ्रष्टाचार के मामले में छह साल की सजा हुई है (फाइल फोटो)
भले ही वे शिकायत बहुत करते हों, और उनके गांवों पर नज़र डालने से पता चलता है कि उनके पास शिकायतों के लिए बहुत-सी वजहें हैं, लेकिन वोट देने के लिए सबसे बड़ा आधार जाति ही है. लगभग सभी यादव लालू प्रसाद यादव की लालटेन को वोट देने का वादा कर रहे हैं. वे मानते हैं कि लालू ने कुछ गलत किया हो सकता है, लेकिन उसके लिए उन्हें मिल चुकी सज़ा - उन्हें दोषी करार दिया जाना और कैद - ज़रूरत से ज़्यादा हो चुकी है. उनके लिए, 19 मई को आखिरी चरण के मतदान के दौरान लालटेन ज़रूर जलनी चाहिए.
लेकिन यादवों के इस छोटे-से समूह में भी तीन युवक कहते हैं कि वे मोदी को वोट देंगे, जिसके लिए उनके पड़ोसियों ने उन्हें दोस्ताना लहजे में फटकारा भी, लेकिन वे अड़े रहे. उनमें से एक नीरज कुमार कहता है, "मोदी बदलाव ला रहे हैं, खासतौर से शीर्ष पर, और जो भ्रष्टाचार हमारे यहां है, वह अप्रत्यक्ष है... इसका मतलब यह हुआ कि यह शीर्ष तक नहीं जाता, सिर्फ स्थानीय है..." वह मोदी को इस उम्मीद में वोट देने वाला है कि वह आने वाले समय में इस पर रोक लगाने में कामयाब होंगे.
यादव बहुल गांव गुलनी में मोदी समर्थक नीरज कुमार.
इसी सड़क पर कुछ आगे एक भूमिहार ब्राह्मण किसान मोदी के पक्ष में नहीं हैं. वह अपनी 50 बीघा ज़मीन की ओर इशारा कर पूछते हैं कि सरकार ने उनके लिए क्या किया है. इस ज़मीन को सींचने के लिए पानी कहां है...? और फिर पांच मिनट के अपने भाषण में वह विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सरकार के ज़ोर दिए जाने को पूरी तरह खारिज कर देते हैं. बालाकोट के बारे में वह कहते हैं, मोदी की तारीफ क्यों, हमारे फौजियों को इसका श्रेय मिलना चाहिए.
लेकिन मोदी के लिए समर्थन बहुत कम नहीं हुआ है. पटना जिले के फतवाह में अपनी लेथ मशीन के पास बैठे मैकेनिक ने कहा, मोदी आतंकवादियों से निपटे हैं, गरीबों के लिए शौचालय बनवाए हैं, उनके लिए खाते खुलवाए हैं और उनके लिए गांवों में मकान बनवाने में मदद की है.
इसी वजह से, BJP को गठबंधन में बराबर सीटों (17) पर लड़ने के लिए मनाने में कामयाब रहे नीतीश कुमार भी मोदी के ही सहारे लड़ते नज़र आ रहे हैं. सासाराम और बक्सर में मोदी की बड़ी-बड़ी रैलियों के बाद अपनी रैली के लिए नालंदा पहुंचे नीतीश भीड़ का आकार देखकर ज़रूर निराश हुए होंगे. वर्ष 2014 में जब वह हार रहे थे, उन्होंने इसी जगह पर ज़्यादा भीड़ जुटाई थी. मंगलवार की रैली की तुलना अगर पास में ही हुई तेजस्वी यादव की रैली से की जाए, तो नीतीश का मामला हल्का ही नज़र आता है.
एक चुनावी रैली में तेजस्वी यादव
तेजस्वी के समर्थक कम सुलझे हुए हो सकते हैं, ज़्यादा शोरगुल करने वाले हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने चार घंटे बहुत सब्र के साथ उनके आने का इंतज़ार किया. तपती धूप उनकी आवाज़ को कम न कर सकी, और छोटे-से हेलीकॉप्टर में पहुंचे तेजस्वी का उन्होंने जोश-खरोश के साथ स्वागत किया. तेजस्वी भी नीतीश के मुकाबले आते ही उनके साथ ज़्यादा आसानी से जुड़े हुए महसूस हुए. ऐसा लगता है, तेजस्वी भविष्य में बहुत आगे जाएंगे.
मोदी बनाम शेष के परिदृश्य में आंकड़े मोदी के पक्ष में हैं. नीतीश कुमार को 17 सीटें देकर अमित शाह ने पांच ऐसी सीटें दे दी हैं, जो वे 2014 में जीते थे, और आठ अन्य सीटें भी. लेकिन इस तरह हुए समझौते की बदौलत गठबंधन अधिकतर सीटों पर 45 फीसदी से भी ज़्यादा वोट शेयर के साथ लड़ाई में उतरा है, जिससे बड़ा फायदा हो सकता है. भले ही कुछ सीटों पर NDA को जाति, भ्रष्टाचार और शराबबंदी की वजह से संघर्ष करना पड़ सकता है, मोटे तौर पर विपक्ष ही उन्हें हराने के लिए संघर्ष करता रहेगा.
(ईश्वरी बाजपेयी NDTV में वरिष्ठ सलाहकार हैं.)
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