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This Article is From May 06, 2019

फिसलता हुआ दिख रहा बीजेपी का "मोदी शाइनिंग" अभियान

Krishan Partap Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 06, 2019 20:11 pm IST
    • Published On मई 06, 2019 20:11 pm IST
    • Last Updated On मई 06, 2019 20:11 pm IST

सत्तारूढ़ दल जीत के लिए राष्ट्रवाद की भावना को भुनाकर बैलेट बॉक्स को अपने पक्ष में भरने की कोशिश कर रहा है. इस विषय पर शायद ही कभी एक उपन्यास की अवधारणा बन सके. इजराइल में बेंजामिन नेतन्याहू और तुर्की में रेसेप तईप एर्दोगन इस राजनीतिक कला में वर्षों से महारथ हासिल किए हैं. जबकि इस साल मतदाताओं की बढ़ती बेरुखी के संकेत साफ तौर पर मिले हैं. यदि आपके पास टूटे वादों या अधूरी अपेक्षाओं के बारे में मतदाताओं के प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं, तो खुद को राष्ट्रीय ध्वज में लपेटकर और खुद को एकमात्र रक्षक घोषित करके उत्तर देने से बचने का यह क्या बेहतर तरीका है. यह एक रणनीतिक अभियान है जिसमें सैन्य शक्ति का इस्तेमाल आंतरिक और बाहरी दुश्मनों के खिलाफ करके और लोगों में भय पैदा करके मतदाताओं के बीच विभाजन को प्रेरित किया जाता है. जैसा कि चार्ल्स डी गॉल ने कहा था, "देशभक्ति तब होती है जब आपके अपने लोगों का प्यार पहले आता है, राष्ट्रवाद तब होता है जब आपके खुद के अलावा अन्य लोगों के लिए नफरत पहले आती है."

इसके मूल में छुपी भावना यही है कि आम चुनाव में फैसला इस बात पर होगा कि क्या मतदाता प्रधानमंत्री मोदी को संदेह का लाभ देंगे और उन्हें इस तरह एक और कार्यकाल मिल जाएगा. यह जानते हुए, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपना पूरा अभियान मोदी के व्यक्तित्व पर केंद्रित किया है. उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में पेश किया जा रहा है जो अपरिहार्य हैं और जिनका कोई विकल्प नहीं है. जिसके बिना न तो भारत की सुरक्षा होगी, न ही आर्थिक विकास होगा. इसलिए इसे 'मोदी शाइनिंग' अभियान कहा जाए.

सन 2014 के चुनावों के दौरान बीजेपी ने तत्कालीन परिस्थितियों में मोदी को एक ऐसा अनुकूल उम्मीदवार माना जिसके नाम पर मतदाताओं को लुभाया जा सके और रिकॉर्ड बहुमत हासिल किया जा सके. बीजेपी ने न सिर्फ इसे कर दिखाया बल्कि उत्तर और पश्चिम भारत की सीटों पर उसने भारी अंतर से एकतरफा जीत हासिल की. उसने कई  सीटों पर दो लाख से अधिक वोटों से विजय हासिल की. वोटों का वह मार्जिन इस समय काम आएगा क्योंकि राष्ट्रीय प्रवृत्ति इस बार सामान्य हो जाएगी.

सन 2014 में जहां मोदी लहर के कारण बीजेपी के लिए चुनाव मैदान बहुत आकर्षक था, वहीं इस बार विपक्ष अधिक एकजुट है. ऐसे में वह सत्ता विरोधी प्रभाव के मद्देनजर बालाकोट और पुलवामा के संदर्भों को लेकर इन चुनावों को अपने  पक्ष में कृत्रिम रूप से बदलने की कोशिश में जुटी है. मीडिया का 90% हिस्सा बीजेपी के पास है, जो मोदी की मदद करने के लिए छोटी-मोटी लहर पैदा करने के प्रयास में लगा है. हालांकि यह भारत के मतदाताओं के आकार और जटिलता के दृष्टिगत इतनी आसानी से पूरा नहीं हो सकता है. पिछले पांच वर्षों में जो देखा गया, मतदाताओं की नजरों में मीडिया की चुनाव की निष्पक्ष कहानी नाटकीय रूप से कम विश्वसनीयता है. मुझे संदेह है कि मोदी के जयकारों के बीच जमीनी पत्रकारों को मोदी विरोधी आवाजों को पहचानकर संतुलन बनाए रखने में मुश्किलें सामने आ रही हैं. पुलिस की नाक के नीचे देश की राजधानी में दिनदहाड़े अरविंद केजरीवाल पर हमले को देखने के बाद, पत्रकारों के लिए मोदी विरोधी मतदाता 'यति' हो चुके हैं, जिन्हें ढूंढना मुश्किल हो रहा है. वे मतदान केंद्र पर ही बोलेंगे.

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दिल्ली में रोडशो के दौरान सीएम अरविंद केजरीवाल को थप्पड़ मारा गया.

पुलवामा हमले के बाद उपजे आक्रोश के बावजूद, 26/11 के हमले को लेकर दहशत की वैसी कोई मौजूदगी नहीं है, जो हाल के हमले के बाद श्रीलंका में व्याप्त है. पीएम ने इस चुनावी कथा में फायदे कि लिए पाकिस्तान कि जरिए कोशिश की है. हालांकि इमरान खान ने फर्जी तरीके से गिरकर बीजेपी को चुनावी फायदा देने के लिए खुद को मुशर्रफ की तरह खलनायक के रूप में पेश किया. बालाकोट और पुलवामा को लेकर मोदी के समर्थन में प्रोपेगंडा को सीमित कर दिया गया है, जिससे कि मोदी समर्थक वोटरों और दिसंबर में तीन राज्यों के चुनाव हारने के बाद विवादित हुए पार्टी कैडर को उत्साहित किया जा सकता था. यह कोई छोटी बात नहीं है, लेकिन चुनावी गेम-चेंजर भी नहीं है, जो कि कुछ सुझाव दे रहा है.

इसके अलावा बालाकोट के बाद राष्ट्रवाद की भावना से लाभ उठाने के लिए, दुखी कर देने वाले लंबे और जल्द खत्म न होने वाले चुनावी कार्यक्रम के बजाय शीघ्र और अधिक तेज चुनाव कार्यक्रम हमारे लिए लाभकारी रहा है. मुझे संदेह है कि पंजाब, हरियाणा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 19 मई को अत्यधिक तापमान वाली गर्मी में बड़ी संख्या में वोटर घर से निकल सकेंगे और राष्ट्रवादी भावना मतदाताओं के दिमाग पर हावी रह सकेगी.

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पाकिस्तान बीजेपी के चुनाव अभियान के केंद्र में रहा है. पार्टी का कहना है कि उसने जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी शिविर पर हवाई हमले का आदेश देकर पाक को सबक सिखाया.

जैसा कि बीजेपी ने किया है, करीब पूरी तरह से राष्ट्रवादी अभियान के संदेश के प्रचार पर भरोसा करना, एक बहुत ही जोखिम भरी रणनीति है. यदि यह असर कर गया, तो पर्याप्त चुनावी फायदा मिल सकता है; हालांकि, अगर तीर गलत निशाने पर लगा, तो इसका उतना ही उल्टा प्रभाव भी संभव है. पिछले हफ्ते पश्चिम दिल्ली के मौजूदा सांसद का एक वीडियो वायरल हुआ. इस वीडियो में जब एक मतदाता ने सांसद से उनके रिकॉर्ड पर सवाल उठाया तो उन्होंने इसके जवाब में "भारत माता की जय!" का नारा लगाया. इससे पहले, बीजेपी के 'शुभंकर' अनुपम खेर ने चंडीगढ़ में अपनी सांसद पत्नी के रिकॉर्ड को लेकर पत्रकारों के सवाल  पर बचाव करते हुए इसी नारे का सहारा लिया था. इस जबरदस्त और बेढंगी रणनीति से बीजेपी के वोटर संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजे तय करने वाला अस्थिर वोटर चीजों को बहुत अलग तरह से देख सकता है.

फिर हमारे पास खुद प्रधानमंत्री हैं, जो निकटतम विपक्षी नेता पर दर्जन भर अपमानजनक आरोपों की झड़ी इरादतन लगा रहे हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस राज्य में होते हैं. यहां तक कि वे कमांडर-इन-चीफ के पद को भी उपयुक्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उनसे "अच्छे दिन", नौकरी, नोटबंदी या अन्य ऐसे मार्मिक विषयों पर कोई बात नहीं की जा सकती है, जो कि मतदाताओं के लिए वास्तविक हित के मुद्दे हो सकते हैं. सन 2014 के चुनाव के प्रत्येक क्रमिक चरण के साथ उनके आत्मविश्वास और कद में वृद्धि हुई. इस चुनाव में उल्टा हो रहा है. उन्होंने बालाकोट के बाद में मजबूत शुरुआत की थी लेकिन बाद में क्रमश: उनके भाषणों में हताशा का प्रदर्शन हुआ. बीते सप्ताहांत में तो वे वास्तव में राजीव गांधी की हत्या का भी मजाक उड़ाते हुए दिखाई दिए. यह देखना मुश्किल है कि पीएम ने यह कैसे सोचा कि गांधी परिवार के सुरक्षित और पारंपरिक गढ़ रायबरेली और अमेठी में मतदान से दो दिन पहले, इसमें से एक संसदीय क्षेत्र के पड़ोसी प्रतापगढ़ में राजीव गांधी का अपमान करना बीजेपी के हित में कैसे होगा. स्पष्ट रूप से यह भारी भूल है जो तब हुई है जब राष्ट्रवादी मानसिकता का अनर्गल आलाप जोरों से किया जा रहा है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि राजीव गांधी के जीवन का अंत 'भ्रष्टाचारी नंबर वन' के रूप में हुआ.

नेतन्याहू और एर्दोगन ने मजबूत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को आधार बनाकर अपनी राष्ट्रवादी राजनीति को चमकाया. इससे वे मतदाताओं के बीच मजबूत खिलाड़ी की भूमिका में आए और विश्वसनीय बने. नवंबर 2016 में मोदी ने अचानक देश का भाग्य विधाता बनकर नोटबंदी का फैसला लिया लेकिन इसके बावजूद जेटली ने हमें विश्वास दिलाया है कि हमारी अर्थव्यवस्था उस समय से मंदी की चपेट में है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था और असंगठित क्षेत्र अभी तक उबर नहीं पाए हैं. सभी फर्जी आर्थिक आंकड़ों और दबा दी गईं नौकरियों की रिपोर्टों से बीजेपी के सांसदों, जिन्हें ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों में किसानों के हालात का सामना करना पड़ता है, को मदद नहीं मिलेगी. चुनाव के दौरान जेट एयरवेज का पतन, कॉर्पोरेट आय की खराब रिपोर्ट, लगातार बढ़ता एनबीएफसी संकट और तेल की कीमतों के बढ़ने की संभावना, सभी ऐसे मुद्दे हैं जिनका सामना अगली सरकार को करना होगा. यदि 23 मई के बाद इन परेशानियों को दूर करना है तो भारत को एक टीम के रूप में काम करने वाले सक्षम मंत्रियों के कैबिनेट की जरूरत होगी. बीजेपी अपनी रैंकों में काबलियत को लेकर मुश्किल में थी. सनी देओल और प्रज्ञा ठाकुर जैसे उम्मीदवार शायद ही इसमें फिट हो सकें.

राष्ट्रीयता के भ्रम के कारण आपको फिर से चुना जा सकता है, लेकिन निश्चित रूप से इससे न तो रोजगार पैदा हो सकेगा न ही पेट भर सकेगा.

(कृष्ण प्रताप सिंह उपन्यासकार और राजनीतिक स्तंभकार हैं)

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