महाराष्ट्र के सोलापुर में एक सैलून ने ग्राहकों के लिए अनूठी शर्त रखी है. शर्त यह कि पहले उन्हें सैलून में बैठकर, वहां मौजूद किताबों के कुछ पन्ने पढ़ने होंगे, तभी कटिंग-शेविंग की जाएगी. सोशल मीडिया के उफान के दौर में इस तरह की पहल क्यों शानदार है, इसे विस्तार से देखने की जरूरत है.
सैलून या लाइब्रेरी?
सोलापुर के जिस सैलून की बात हो रही है, वहां ग्राहकों के लिए सैकड़ों किताबें रखी हैं. कुछ ब्रेल लिपि में भी हैं, ताकि कोई भी किताब पढ़ने के नियम से अछूता न रह जाए. सैलून चलाने वाले का मानना है कि लोगों को टीवी या मोबाइल पर टाइमपास करने की जगह किताबें पढ़नी चाहिए. कई ग्राहक किताबें लेकर घर भी चले जाते हैं, फिर वापस कर देते हैं. कह सकते हैं कि वह सैलून भी है और लाइब्रेरी भी.
हालांकि देश-दुनिया में इस तरह के सैलून और भी हैं. तमिलनाडु के तूतीकोरिन में ऐसा ही एक सैलून खबरों में आया था, जहां बैठकर किताबें पढ़ने वालों को कम रेट पर सर्विस दी जाती है. इस सैलून के हेयरड्रेसर इस बात से चिंतित थे कि मोबाइल फोन की वजह से लोगों में किताबें पढ़ने की आदत धीरे-धीरे कम होती जा रही है. इससे न केवल लोगों के बुनियादी ज्ञान में कमी आती है, बल्कि व्यक्तित्व का विकास भी बाधित होता है.
अगर बड़े फलक पर देखा जाए, तो इन सैलूनों ने एकदम बुनियादी बहस छेड़ दी है. आज के दौर में सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल के खतरों और किताबों में छुपी असीम संभावनाओं, दोनों पर पैनी नजर रखे जाने की दरकार है.
आज किताबें कौन पढ़ता है?
सबसे जरूरी सवाल तो यही है. ज्यादातर यही देखा जाता है कि किताबें वैसे लोग ही पढ़ते हैं, जिनके लिए पढ़ना अनिवार्य हो. स्कूल-कॉलेजों के स्टूडेंट और जॉब पाने की तैयारी में जुटे प्रतियोगी इसी कैटेगरी में आते हैं. डॉक्टर, वकील, जर्नलिस्ट जैसे कुछ प्रोफेशन भी लगातार कुछ न कुछ पढ़े जाने की डिमांड करते हैं. इनसे अलग हटकर, एक बड़ी आबादी के पास न पढ़ने की अपनी-अपनी वजह हो सकती है.
कोई इस वजह से नहीं पढ़ता कि जब करियर सेट है, तो अब ज्यादा पढ़ने से क्या फायदा? किसी के पास रोजमर्रा के काम या ऑफिस-बिजनेस का वर्कलोड ज्यादा है. किसी के पास दूसरी वजहों से किताबें पढ़ने का वक्त नहीं है. किसी के पास समय तो है, पर किताबें पढ़ने की इच्छा ही नहीं है. कोई इस वजह से नहीं पढ़ता कि जब उसके पास मनोरंजन या टाइमपास करने के दूसरे ढेर सारे विकल्प मौजूद हैं, तो वह किताबें पढ़ने का 'जोखिम' क्यों उठाए?
किताबें पढ़ने से क्या होता है?
हर किसी के लिए समझने की बात ये है कि किताबें सिर्फ ज्ञान हासिल करके का जरिया भर नहीं होतीं. इनके और भी फायदे हैं. किताबें पढ़ने से हमारे दिमाग और शरीर पर कैसा असर पड़ता है, यह जानने के बाद शायद हर कोई इनके लिए रोजाना कम से कम 20-25 मिनट जरूर निकालना चाहे. हाल के कई रिसर्च में इस बारे में अनूठे तथ्य सामने आ चुके हैं, जिन्हें यहां दुहराने की जरूरत है.
ऐसा पाया गया है कि रोजाना कुछ देर किताबें पढ़ने से ब्लड-प्रेशर और तनाव से निपटने में मदद मिलती है. सोने से ठीक पहले किताबें पढ़ने से नींद की क्वालिटी में सुधार हो सकता है. पढ़ने की आदत से ब्रेन एक्टिव रहता है, जिससे मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूती हासिल करने में मदद मिलती है. रिसर्च करने वालों ने किताबें पढ़ने की आदत और लंबे जीवन के बीच भी संबंध पाया है. हां, इतना जरूर है कि किताबों का चुनाव सोच-समझकर किया जाए.
साइंटिस्ट मानते हैं कि किताबों से जुड़ने से दिमाग के भीतर सामाजिक सरोकार वाले तार भी जुड़ते चले जाते हैं, जिससे डिप्रेशन का जोखिम कम होता है. दरअसल, अच्छी किताबों के जरिए मनोरंजन करने से दिमाग में 'एंडोर्फिन' नाम का हार्मोन रिलीज होता है. यही वह चीज है, जिससे लोगों को दर्द और तनाव से निपटने में मदद मिलती है. लेकिन हर कहानी एकदम सपाट नहीं होती. अच्छी चीजों के कई दुश्मन भी तो हो सकते हैं!
सोशल मीडिया और टाइमपास
आज की सच्चाई कुछ ऐसी है कि लोग अपने जरूरी कामकाज के बीच-बीच में भी स्मार्टफोन पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते. ऐसे में अगर सचमुच कहीं बैठकर टाइमपास करना हो, अपनी बारी का इंतजार करना हो, तो शायद ज्यादातर लोगों की पहली पसंद सोशल मीडिया ही हो. सैलून तो क्या, बस, मेट्रो, पार्क- कहीं भी नजर डालिए. हर ओर बस एक ही नजारा दिखता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की एक रिसर्च के मुताबिक, दुनियाभर में 2 करोड़ से ज्यादा लोग सोशल मीडिया और इंटरनेट की लत के शिकार हैं. मुमकिन है कि वास्तविक आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा बड़ा हो. दिक्कत यह है कि ज्यादातर लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं होता कि वे इस तरह की लत के शिकार बन चुके हैं. इसलिए सोशल मीडिया और मोबाइल से चिपके रहने के नुकसानों को जोर-शोर से गिनाए जाने का वक्त आ गया है.
छुपी हुई लत के नुकसान
पहले यह देखना होगा कि सोशल मीडिया हर किसी को अपनी ओर खींच क्यों रहा है. दरअसल, इंटरनेट और सोशल मीडिया पलभर में हमें वहां पहुंचा देते हैं, जहां हम पहुंचने की ख्वाहिश रखते हैं. भले ही यह सब काल्पनिक तौर पर हो, लेकिन इससे अंदर से सुकून का अहसास होता है. मन में खुशी और संतुष्टि मिलती है. वैज्ञानिक इन बातों को अलग ढंग से बताते हैं. दरअसल, इन सबके पीछे जो केमिकल जिम्मेदार है, उसे 'डोपामाइन' नाम से जाना जाता है. यह ब्रेन में बनने वाला केमिकल है, जो किसी को प्रेरित करने और पैसे या रिवॉर्ड मिलने जैसी खुशी का अहसास करने में रोल निभाता है.
लेकिन दिक्कत यह है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते वक्त, कुछ देर के लिए ज्यादा मात्रा में 'डोपामाइन' रिलीज होने के बाद इसमें कमी आ जाती है. बाद में 'डोपामाइन' का लेवेल बेसलाइन से भी नीचे चला जाता है. इस कमी से एंग्जायटी, स्ट्रेस और डिप्रेशन का खतरा बढ़ जाता है. इस कमी को पूरा करने के लिए बार-बार स्मार्टफोन और इंटरनेट की तलब महसूस होती है. इस तरह लोग दुष्चक्र में फंसते चले जाते हैं.
विकल्प क्या बचता है?
आज घर-घर लोगों को यही शिकायत होती है कि बच्चे जब-तब मोबाइल से ही चिपके रहते हैं. स्कूलों की पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में भी ज्यादातर इसी पर चर्चा होती है. सच तो यह है कि बच्चों की इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए बड़े भी कम जिम्मेदार नहीं. जहां तक विकल्प की बात है, अच्छी पहल की बात है, उसकी शुरुआत अपने घर से हो, तो ज्यादा बेहतर. बस थोड़ी खोपड़ी चलाने की बात है. जैसा मरीज, उसके मुताबिक दवा.
अब हर सैलून को किताबें रखने के लिए या किताबें पढ़ने की शर्त्त लागू करने के लिए तो बाध्य नहीं किया जा सकता. लेकिन इतना जरूर हो सकता है कि अगली बार जब बच्चों को सैलून भेजें, तो उनके हाथ में उनकी ही पसंद की एक किताब थमा दें. अगर खुद भी ऐसा कर सकें, तो सचमुच मजा आ जाए. आजकल हेयरकटिंग-शेविंग के इतने सारे स्टाइल आ चुके हैं कि वेटिंग टाइम में कोई भी 10-15 पेज आराम से पढ़ ले.
कहते हैं कि मानव-सभ्यता के विकास में दो पेशों का योगदान सबसे ज्यादा रहा है- एक वे, जो हमारे लिए निश्चित नाप के कपड़े सिलते हैं. दूसरे वे, जो हमारे बाल-दाढ़ी को संवारते हैं. सोचिए कि अगर हर सैलून में लाइब्रेरी खुलने लग जाए, तो इस दौर की मानव जाति पर यह बड़ा उपकार समझा जाना चाहिए!
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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