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This Article is From Oct 06, 2016

उमर अब्दुल्ला का ट्वीट, राजनाथ सिंह, 'युद्ध का झुनझुना' और 'वैग द डॉग'...

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 06, 2016 14:22 pm IST
    • Published On अक्टूबर 06, 2016 14:17 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 06, 2016 14:22 pm IST
एक बार फिर लगा, हॉलीवुडिया कथाकार त्रिकालदर्शी होते हैं. मतलब 'संजय दृष्टि' से दो चैनल एक्स्ट्रा, क्योंकि संजय के पास एक ही चैनल था, जिस पर कुरुक्षेत्र का लाइव प्रसारण होता था. हॉलीवुडिया डायरेक्टर के पास दो और पैकेज होते हैं, भूत और भविष्य. वे अलग लेवल के द्रष्टा होते हैं. वे आउट ऑफ बॉडी एक्सपीरिएंस कर सकते हैं, जबकि अपने बॉलीवुडिया कथाकार भोगे हुए यथार्थ से अभिशप्त हैं. जैसे, आज ही की बात करूं तो ड्राइवरलेस कार पर रिसर्च करते हुए देखा कि गूगल की बिना ड्राइवर वाली कार में लोग ठीक वैसे ही हिचकोले खा रहे थे, जैसे 'डिमॉलिशन मैन' में सिल्वेस्टर स्टैलॉन और सैंड्रा बुलॉक जा रहे थे, बिना ड्राइवर वाली ऑटोनोमस कार में, साल 1993 में.

अब आता हूं आज के एजेंडे पर... दूसरा उदाहरण तब याद आया, जब जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक स्टोरी ट्वीट की, जिसे मैंने बहुत ग़ौर से नहीं देखा था. राजनाथ सिंह को यूपी का मुख्यमंत्री बनाए जाने की मुहिम का ज़िक्र था और बाकी 'इत्यादि' टाइप की जानकारियां टंकित थीं. फिर वापस जाने पर उमर साहब की टिप्पणी देखी तो पता चला कि वो सेकंड लास्ट पैरा पढ़ने के लिए भी लिखे थे. तो वहां पर कश्मीर में होने वाले किसी बड़े सैनिक ऑपरेशन होने की बात की गई थी. वह जानकारी भी मुझे 'इत्यादि' कैटेगरी की ही लगती, अगर तारीख़ पर नज़र नहीं पड़ती, जो जून की थी. मतलब चार महीने पहले की.
 
फिर ध्यान से पढ़ा. उमर अब्दुल्ला का कहना था कि जून की इस रिपोर्ट से जर्नलिस्टों ने असली स्कूप मिस कर दिया. दरअसल, रिपोर्ट में स्थानीय बीजेपी नेताओं के हवाले से लिखा गया था कि जम्मू-कश्मीर में एक बड़ा ऑपरेशन होने वाला है, जिसमें हमें सफलता मिलेगी (यह कॉन्फिडेंस उल्लेखनीय है), ऑपरेशन के बाद राजनाथ सिंह हीरो बनेंगे और यूपी के सीएम पद का उम्मीदवार बनाने के लिए सही माहौल होगा. यह ख़बर वाकई दिलचस्प थी. अगर यह ख़बर सही है तो फिर सर्जिकल स्ट्राइक की पटकथा बहुत पहले लिखी जा चुकी थी, उरी एक तात्कालिक कारण था. सरकार की रणनीति साफ़ थी. उमर अब्दुल्ला ने अपने दूसरे ट्वीट में यही अंडरलाइन किया कि यह ख़बर उरी हमले, घाटी में चल रहे बवाल से पहले की है. मन में सवाल उठा कि आख़िर यह ख़बर भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में नई क्यों लग रही है...? उसी सवाल की बेशक़ीमती मीमांसा, एक पैरा के बाद...

दरअसल, इस ख़बर से मुझे आज की दूसरी फिल्म याद आई, जिसका नाम था 'वैग द डॉग'. दो ज़ोरदार अभिनेता उसमें थे, रॉबर्ट डी नीरो और डस्टिन हॉफ़मैन. कहानी यह थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से ठीक पहले मौजूदा राष्ट्रपति सेक्स स्कैंडल में फंसे थे, लोकप्रियता का ग्राफ़ गिरा हुआ था. अब इस समस्या से कैसे निपटा जाए...? तो राष्ट्रपति की टीम ने ठेका दिया रॉबर्ट डी नीरो को और उन्होंने एक फिल्म डायरेक्टर, यानि डस्टिन हॉफ़मैन को पकड़कर एक नकली युद्ध गढ़ दिया. अल्बानिया के साथ एक फिक्शनल युद्ध शूट किया गया, जिसे अमेरिकी जनता को परोसा गया और लोगों का ध्यान राष्ट्रपति के स्कैंडलों से भटकाया गया... दरअसल यही 'वैग द डॉग' मुहावरे का मतलब भी है. छोटी चीज़ों में ध्यान भटकाकर बड़ा खेल करना. वैसे विकीपीडिया ने एक और दिलचस्प जानकारी दी. वह यह कि फिल्म के रिलीज़ होने के एक महीने बाद मोनिका लेविंस्की वाले स्कैंडल में क्लिंटन साहब फंसे थे और सूडान के किसी इलाके में अमेरिका ने हमला भी किया था. सोचिए, फिल्म रिलीज़ के एक महीने बाद.

कुल मिलाकर, यह फिल्म इसलिए याद आई कि अमेरिका में तो युद्ध और राजनीति का हमेशा गहरा रिश्ता रहा है. वैसे, दुनिया के बहुत-से देशों में रहा है, और पाकिस्तान में तो लोकतंत्र की इमारत ही युद्ध के सीमेंट से खड़ी है, लेकिन अपने देश का प्रजातंत्र इस मामले में परिपक्व रहा है. वोटर बहुत समझदार रहे हैं. युद्ध ने कभी हमें ज़्यादा एक्साइट नहीं किया है.

हम लोग वोटर को भले 'थेथर' बोलें, पर यह हमारा जुझारूपन है कि सरोजिनी नगर मार्केट में बम फट गया, तो लाजपत नगर मार्केट से कुशन कवर ख़रीद लेते हैं. हम हिंसा का जवाब कुशन कवर ख़रीदकर देते रहे हैं. लोकल में बम फटता है, तो हम बस से निकलते हैं, बस में बम फटता है, तो ऑटो से. आतंकी हमें रोक नहीं पाते. वे जान लेते रहते हैं, हम बढ़ते रहते हैं. वोटरों के मन में युद्ध और सर्जिकल स्ट्राइक का मुकाबला प्याज़, 2जी और गाय से जब भी हो, हमने प्याज़ और गाय चुने हैं. हमने कभी 'वॉर एंड पीस' पर वोट नहीं दिया, हम 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' पर वोट देते आए हैं. भले ही बंपर पर स्क्रैच लगाने पर अपने पड़ोसी को चाकू से गोदकर हम उसके प्राण हर लें, लेकिन वह तो डोमेस्टिक लेवल की बात है. इंटरनेशनल लेवल पर अगर भारत की ब्रांड इक्विटी शांतिप्रिय देश वाली है, तो थैंक्स टू द वोटर्स.

...लेकिन अब वोटर चेंज हो रहे हैं, युद्ध को लेकर लोगों में इंटरेस्ट जगा है. विश्व गुस्से के युग में जी रहा है. ब्रेक्ज़िट से लेकर डोनाल्ड ट्रंप तक. भारत में भी गुस्से की श्रेष्ठ वजहें सामने हैं. मध्यवर्गीय संपन्नता है, निम्नवर्गीय कुंठा है, ज़्यादा कमाई, ज़्यादा ईएमआई, गैजेट्स, दीवाली डिस्काउंट, शानदार गाड़ियां और पार्किंग है, अंगुली उठाकर भाषण देने वाले भी, आस्तीन चढ़ाते नेता भी... युद्ध के प्रजनन के लिए आदर्श स्थिति भी आ चुकी है. हिंसा की सेक्स अपील से जितने लेफ्ट और राइट मोहित रहे हैं, उतने ही मदहोश खुद को लिबरल कहने वाले भी हैं, जो सरकार को जमकर उकसा रहे हैं. मध्यमार्ग की सामूहिक हत्या हो गई है.

इस चेंज को पकड़ने में सब पार्टियां अलबलाई हुई हैं. सर्जिकल स्ट्राइक की भूरि-भूरि प्रशंसा से हरी-पीली निंदा होते हमने देख लिया है. कहा गया - यूपीए के वक़्त में भी सर्जिकल स्ट्राइक हुए थे, तो तब ज़िक्र क्यों नहीं हुआ था...? अब क्यों हो रहा है...? समस्या स्ट्राइक से है, या उसे सार्वजनिक करने से...? दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल पहले व्यंग्य करते हैं, पीएम नरेंद्र मोदी को सलाम करते हैं, सेना पर सवाल उठाते हैं. मनीष सिसौदिया बेचारे अपने ट्वीट के ज़रिये उन तानों और व्यंग्यों को एक गंभीर सवाल में ट्रांसफॉर्म करना चाहते हैं, पर व्यंग्य के साथ समस्या तो होती है. गंभीर बयान को तो व्यंग्य कैटेगरी में क्वालिफाई कराया जा सकता है, जैसे मार्कंडेय काटजू करते हैं, पर व्यंग्य वाले बयान को सीरियस कैटगरी में वाइल्डकार्ड एंट्री भी नहीं मिलती.

...फिर महबूबा मुफ्ती से 'भारत माता की जय' बुलवाना पड़ता है. 'पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दे दिया गया है' जैसे जैविक बयान देने पड़ते हैं. चिंता इस बात की है कि जिस तरीके से सभी पार्टियां सर्जिकल स्ट्राइक का पोस्टमार्टम कर रही हैं, कहीं ऐसा न हो, इसके शव को ममी बनाकर सब अपने-अपने मेनिफेस्टो में सहेजकर रख लें.

ख़ैर, हो सकता था, अगर ख़बर बड़ी होती, जैसा अब्दुल्ला जी बोल रहे थे, तो 'सबूतयाचक, आलोचक' सरकार पर यह आरोप लगाते कि राजनैतिक फायदे के लिए स्ट्राइक करवाया गया. पर इस पर कोई सवाल न उठाना संदेह ज़रूर उठा सकता है, या हो सकता है, सबने वाकई मिस किया हो, या किसी लोकल नेता का बड़बोलापन हो या फिर मुझे यह फिल्मी लगी, इसलिए ब्लॉग लिख दिया, लेकिन हमारे सामने 'वैग द डॉग' एक ब्लूप्रिंट है, देखिएगा, वक्त मिले तो... आने वाला कल दिखेगा...

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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