सरकार ने या कहिये ज़िला प्रशासन ने उनके ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की. साक्ष्य आने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मामले में रुचि दिखानी शुरू की. सबसे पहले उन्होंने कहा कि जिसने क़ानून तोड़ा उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी. इसके बाद शाश्वत के ख़िलाफ़ पुलिस ने गिरफ़्तारी का वारंट के लिए अर्ज़ी दी. कोर्ट ने केस डायरी देखने के बाद उनकी ज़मानत याचिका शनिवार को ख़ारिज भी की. नीतीश के तेवर को देखते हुए भाजपा के बिहार इकाई के वरिष्ठ नेता सबको भरोसा देते रहे कि इस मामले में ज़मानत याचिका ख़ारिज होने पर वो सरेंडर करेंगे. अरिजित शाश्वत ने पटना के एक मंदिर के पास नाटकीय घटनाक्रम में सरेंडर के साथ गिरफ़्तारी भी दी.
लेकिन शाश्वत प्रकरण जब चल रहा था तब तक रामनवमी भी आ गई. हालांकि नीतीश कुमार को एक कुशल प्रशासक की तरह अंदेशा हो गया था कि इस बार सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश होगी. उन्होंने पुलिस को सतर्कता बरतने की सलाह दी. जिसके कारण एक मुस्लिम वृद्ध ने मधुबनी में मुझे पिछले रविवार को कहा कि जब राजा ख़ुद रातजगा हमारे सुरक्षा के लिए कर रहा है तब हम चैन की नींद सो सकते हैं.
लेकिन बिहार में रामनवमी के दौरान जो कुछ भी देखने को मिला उससे एक साज़िश और तैयारी की बू आम लोगों को भी महसूस हो रही है. जैसे लोग जितनी बड़ी संख्या में तलवार, हॉकी स्टिक लेकर निकले वो बिहार की भगवान राम को पूजा करने की संस्कृति नहीं रही. उसके अलावा सवाल ये था कि इतनी बड़ी संख्या में लोग रामनवमी का जुलूस कैसे निकालने लगे. लेकिन रविवार से घटना होने लगी. ख़ासकर औरंगाबाद शहर में. वहां प्रशासन के तमाम दावों के बावजूद सोमवार को एक ही समुदय के लोगों की दुकान में आग लगायी गयी.
औरंगाबाद में जो कुछ हो रहा था उसके बारे में देश दुनिया में कई लोग बाहर रखे हुए थे. सबके सम्बंधी हैं. लेकिन यहां जो भी हुआ वो भाजपा के स्थानीय सांसद सुशील सिंह की मैजूदगी में. अमूमन बिहार में विधायक और सांसद जब कहीं मौजूद रहते हैं तब घटना रुकती है या माहौल पर क़ाबू पाया जाता है लेकिन यहां उल्टा हुआ. लेकिन विधानसभा सत्र में रहने के कारण जब विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने ये मुद्दा उठाया, तब नीतीश कुमार का रवैया था कि आप चुप रहें, हम सब जानते हैं. इसके बाद रोसड़ा, सिलाव, नवादा में भी घटनाओं का दौर चला जिससे आम लोगों में, ख़ासकर बिहार के बाहर नीतीश कुमार की छवि बनी कि अब कुर्सी के लिए उन्होंने मौन धारण कर लिया है. इससे ज़्यादा लोग कहने लगे कि नीतीश कुमार अब सुशासन बाबू कहलाने लायक नहीं रहे.
नीतीश बाबू सुशासन बाबू कैसे कहलाए. इसके कुछ कारण थे और कुछ उदहारण थे. जैसे उन्होंने दावा किया उनकी सरकार ना किसी को बचाती है और ना फंसाती है. उन्होंने एक ऐसा सिद्धांत लागू किया जिसके कारण उनकी पार्टी के विधायकों को जेल की हवा खानी पड़ी जिसके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं था. उनके विधायक सुनील पांडेय और अनंत सिंह को जेल की हवा खानी पड़ी. फिर उन्होंने कानून का राज की बात कही. जिसके कारण हजारों की संख्या में अपराधियों को कोर्ट से दोषी करार दिलाने में उनको सफलता मिली. जिससे उनको सुशासन बाबू का स्वयंभू तमागा मिला.
लेकिन सवाल है कि सचाई क्या है? सच है कि नीतीश कुमार ने अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं जिसमें सुशील मोदी प्रमुख हैं, बहुत हद तक बिहार में एक या उससे अधिक दंगा होने से बचा लिया. बिहार में शायद बहुत कम लोगों को मालूम हो कि हर बार, चाहे वो होली हो या दुर्गा पूजा या मुहर्रम, तनाव एक आम बात है. लेकिन उसे बातचीत या प्रशासनिक पहल से शांत किया जाता है. नीतीश ने सचमुच हर घटना में अपने स्तर पर मॉनिटरिंग कर स्थिति को बेक़ाबू होने से बचाया. सबसे ज़्यादा फ़ील्ड में काम करने वाले पुलिसवाले इस बात के लिए उनकी तारीफ़ करने से नहीं थकते कि कार्रवाई करने के लिए उन्होंने सबको फ़्री हैंड दिया. कोई राजनीतिक दबाव ना भागलपुर में पुलिसवालों पर आया और ना औरंगाबाद या रोसड़ा में जिसके कारण भाजपा के नेताओं का नाम प्राथमिकी में आया और गिरफ़्तार भी हुए.
लेकिन वर्तमान हालात के लिए नीतीश कुमार बेदाग भी नहीं निकल सकते. उनके स्तर पर कई ख़ामियां या कमियां हैं. नीतीश कुमार केवल बिहार के मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि गृह मंत्री भी हैं. जब इतनी बड़ी संख्या में तलवार या अन्य शस्त्र जमा किए जा रहे थे तब उनका ख़ुफ़िया तंत्र कहां सोया हुआ था. फिर वो भागलपुर की घटना को भले शुरुआती घटना या इस तनाव की ज़ड बता रहे हैं लेकिन आख़िर किस मजबूरी या दबाव में उन्होंने पुलिस महकमे का मुखिया एक ऐसे व्यक्ति केसी द्विवेदी को चुना जिनके एसपी कार्यकाल में भागलपुर का दंगा 1989 में हुआ और 1200 से अधिक लोगों की जान गयी. जब एक ज़िला में रहकर एक पुलिस अधिकारी लोगों की जान माल की रक्षा नहीं कर सकता वो राज्य पुलिस का मुखिया होने लायक है, ये एक ऐसा सवाल है जो नीतीश के कट्टर समर्थकों को भी निरुत्तर कर देता है. इसके बाद अधिकांश जगहों पर तनाव की शुरुआत नीतीश कुमार विरोधियों ने नहीं बल्कि उनके सहयोगी पार्टी के नेताओं ने की. नीतीश की चुप्पी उनके ऊपर और सवाल खड़ा करती है.
निश्चित रूप से अधिकांश जगह जहां तनाव हुए वो नये इलाक़े थे जिनके बारे में कोई सोच नहीं सकता. हिंसा के पीछे लगे दिमाग़ों ने तनाव के परंपरागत इलाक़ों को नज़रंदाज करते हुए नई जगहों का चयन किया लेकिन हर जगह पुलिस सुस्त दिखी. अधिकांश जगहों पर पुलिस के अधिकांश अधिकारी वर्षों से अपने पद पर बैठे हैं जैसे जनता से उन्हें भी पांच साल का मैंडेट मिला हो. ये सबकी समझ से परे है कि गृह मंत्री नीतीश की क्या मजबूरी है कि वर्षों से जमे पुलिस अधिकारियों का तबादला करने का उनके पास समय नहीं है या इच्छाशक्ति ख़त्म होती जा रही है. सब जानते हैं कि भाजपा का अपने नेताओं या अन्य संगठनों पर, जैसे दंगा कराने के ऊपर नियंत्रण नहीं, वैसे ही वो नीतीश कुमार के विभाग में हस्क्षेप नहीं करते. लालू यादव का साथ छोड़ने के पीछे नीतीश आज तक यही तर्क देते हैं कि पुलिस विभाग के काम काज में उनका बहुत ज़्यादा दखल था.
लेकिन अब मूल सवाल है कि नीतीश क्या अभी भी सुशासन बाबू हैं या जैसा कि एक चैनल ने कहा कि जंगल राज के सुशासन बाबू होकर सिमट गए हैं. नहीं ये तमग़ा अभी छिनना थोड़ा जल्दी होगा. ये सब कुछ नीतीश कुमार के कुछ निर्णय के ऊपर निर्भर करता है कि क्या इस तनाव के पीछे के लोगों की गिरफ़्तारी करा कर वो अपने काम की इतिश्री कर लेते हैं या उन्हें सज़ा भी दिलाते हैं. इससे भी अधिक अपने पुलिस महानिदेशक, जो अररिया के नक़ली बीडीओ की तुरंत गिरफ़्तारी करा कर न्यूज़ चैनल पर उसका श्रेय लेने में कोई देरी नहीं दिखाते, उनसे कैसे अपने सुशासन के एजेंडा पर काम कराते हैं, ये नीतीश के लिए एक बड़ी चुनौती होगी.
आने वाले दिनों में अरिजित शाश्वत का मामला एक टेस्ट होगा. अगर वो जेल जाता है और फिर बाहर आकर अपनी राजनीतिक दुकान लगाने में कामयाब होता है तब नीतीश कुमार की राजनीतिक हैसियत और कम होगी. उनका इक़बाल और ख़त्म होगा. लेकिन अगर उनके और उनके समर्थक लोगों को सही में नीतीश उनकी ग़लतियों के लिए सज़ा दिलाने में कामयाब होते हैं तो सुशासन बाबू का तमग़ा कोई उनसे फ़िलहाल नहीं छिन नहीं सकता. लेकिन फ़िलहाल इस पर बहस तो जारी रहेगी.
मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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